औरत की आबरू: कितनी हक़ीक़त कितना फ़साना
यहां औरत एक गोश्त का टुकड़ा है जिसे कसाई की दुकान के बाहर खड़े भूखे कुत्तों की हवस ज़ादा नज़र मुसलसल तकती रहती है.
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औरत की आबरू
हिंदुस्तान की जमहूरियत का जनाज़ा जिस वक्त 8 साल की मासूम बच्ची की शहादत से होकर गुजर रहा था, राम की आंखें नम थीं, तिरंगा था शर्मसार बड़ा, नाचार रो रहा था. वो चंदा थी किसी की आंख का तारा, वो पारो थी बिटिया रानी, जो अब सिर्फ लाश है नोची हुई, उधड़ी हुई हर जगह से. उस नन्ही सी जान के जिस्म पर जो गहरे घाव हैं, वो इस मुशायरे की हक़ीक़त बयान करते हैं, एक ऐसी हक़ीक़त जिसे कोई हिजाब, कोई घूंघट, कोई घुटनों से नीची स्कर्ट छिपा नहीं सकती.
हमारा मुआशरा यूं तो अजल से औरत को अपनी ज्यादतियों का शिकार बनाता रहा है और शायद ये सिलसिला ता-ब-अब्द तक ब-दस्तूर जारी रहेगा. हमारी तारीख औरत के वजूद को मिटा चुकी उस खुद अफ्रोज़ी का एक निहायती शर्म-नाक मुजस्मा है, जहां औरत को गोश्त का टुकड़ा समझा जाता है. पैदा होते ही अगर कुड़े-दान में ना फेंक दी गई और किस्मत अच्छी रही तो किसी की बेटी बनी. उम्र के बहाव के साथ वो बहन बनी, बीवी भी और मां भी. सोसाइटी के बनाए उन सांचों में ढलती रही. उसकी हस्ती का मरकज़ मर्द ही रहा.
मर्द. एक ऐसा लफ्ज़, जो खुद बे-आबरू है.
फर्ज कीजिए अगर इस मजमून का उन्वान (शीर्षक) "मर्द की आबरू" होता तो बहुत मुमकिन है कि आपका ज़ेहन कई सवाल करता, इसलिए क्योंकि आबरू को सिर्फ औरत के मुतालिक ही देखा जाता रहा है. औरत और मर्द के दरम्यान जो फर्क है उसकी बुनियाद यहां सिर्फ उनके निजाम-ए-तनासुल और जिंसी अज़ाओं (प्रकृति, शक्ति) पर कायम है. और शायद यही वजह है कि औरतों के साथ जिंसी जबरदस्तियां, उनके साथ इस्मत रियाजी न सिर्फ औरत की आबरू को तार तार करने के मकसद से, बल्कि गोला, बारूद और पिस्टल की तरह अपने दुश्मन के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल की जाती हैं. फिर वो चाहे हिंदू मुसलमान के फसाद हों या यहूदियों पर नाज़ियों का अज़ाब, हर दौर में औरत के जिस्म को जंग का मैदान समझा गया है.
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वो क्या कर सकती और क्या नहीं, उसकी काबिलियत, उसकी ज़ेहनी सलाहियत, उसकी ख्वाहिशों की हद और उसके कैरेक्टर के पैमाने, ये सब सोसाइटी तय करती है. यहां औरत को कोठा चलाने की इजाजत तो है मगर बाइक चलाने की नहीं, इस मुआशरे में जिस्मफरोशी करने वाली उस बे-सहारा औरत को तो घलीज़ समझा जाता है. लेकिन उसी चकले में रोज़ ज़ियारत करने वाले मर्द को ये सोसाइटी बुरा नहीं समझती बल्कि, उन्हें सरफराज़ कहा गया, नियाबत-ए-इम्तियाज कहा गया.
हर चीज पर यहां अच्छे और बुरे का लेबल ये सोसाइटी लगाती है.
जैसा की मैं पहले अर्ज़ कर चुका हूं, यहां औरत एक गोश्त का टुकड़ा है जिसे कसाई की दुकान के बाहर खड़े भूखे कुत्तों की हवस ज़ादा नज़र मुसलसल तकती रहती है. हाय रे हिम्मत-ए-मर्दाना जो इस गफ़लत में हैं कि औरत की आबरू शराफत के शोकेस में रखी उस प्लास्टिक की गुड़िया की तरह है जिसकी तारीफ तो होती है, क़सीदे तो पढ़े जाते हैं, शानों से लेकर रानो तक संवारा और निहारा भी जाता है मगर है वो सिर्फ नुमाइश भर की शै.
जब तलक औरत को सिर्फ एक गोश्त का टुकड़ा समझा जाता रहेगा, चील कौओं की तरह उसे नोचने के लिए कोई राम, कोई अली किसी मंदिर या मदरसे में या फिर कोई चाचा, कोई भतीजा यूंही इंसानियत को शर्मसार करता रहेगा. जब तलक औरत को शराफत के शोकेस में सजी संवरी गुड़िया समझा जाता रहेगा, कोई 8 साल की मासूम बच्ची, कोई 11 साल की बच्ची, कोई निर्भया यूंही जिंसी जबर्दस्तियां के शिकार होती रहेंगी और इस मुआशरे की नंगी हकीकत बयान करती रहेंगी.
एक ऐसी हक़ीक़त जिसे सदियों से शर्म, हया और आबरू जैसे फर्जी अल्फाज की चदर तले हम छुपाते रहे हैं.
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