साल तो खत्म हो गया लेकिन क्या महिलाएं सिंदूर चूड़े से आगे बढ़ पाईं?
स्त्रियों के साथ इस समय समाज का रवैया अजीब चल रहा है. यही अजीबपन इस साल भी रहा और कुछ भ्रमों के चलते इसके आगे भी चलने की संभावना है. महिलाओं के लिए अपराध कम हुए या बढ़े यह सवाल नहीं है. सवाल यह है की क्या वे अपने साथ होने वाले अपराधों के लिए आवाज़ उठाने में सफल हुई हैं?
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तो अंतत: यह साल जाने को है और 2018 आने को है, फिर इस साल क्या देखा जाए कि क्या हुआ है? और क्या होने की उम्मीद है? क्या स्त्रियों का जीवन सिन्दूर बिंदी से आगे बढ़ सका है या अभी तक स्त्रियां वहीं अटकी हैं? इस साल बहुत कुछ ऐसा हुआ जो नहीं होना चाहिए था, और बहुत कुछ ऐसा हुआ जो जरूरी भी था. जैसे तीन तलाक पर एक हठधर्मिता का टूटना.
मुस्लिम महिलाओं के लिए छोटी छोटी बातों पर तलाक बहुत ही आम था. कई लड़कियां अक्सर इसी डर के साए में जीती थीं, कि कहीं उन्हें तीन तलाक का सामना न करना पड़ जाए. एक बार में तीन तलाक हालांकि कुछ लोग इसे धर्म विशेष का मुद्दा कहते रहे और स्त्री चिंतन करने वाला एक विशेष वर्ग भी. मगर यह प्रश्न अब तक उन पर रहेगा कि आपके पास में आपकी ही साथी एक कुप्रथा से प्रताड़ित होती रही थीं, और हम चुप रहे. हम चुप रहे की आवाज़ उन्हीं से उठे. ये उनके कायदे कानून हैं. ये उनका समाज है?
कई बार इस चुप्पी और कुतर्कों की आवश्यकता नहीं होती है. मगर मुस्लिम महिलाओं के मामले में समाज की संवेदनहीनता समझ से परे थी. क्या हम स्त्री बुद्धिजीवी भी वोटबैंक के जाल में फंस गईं या फिर हम कथित धर्मनिरपेक्षता के जाल में फंस गईं, या फिर हमें लगा की आखिर कौन पंगा ले? आखिर हमें इस कठिन रास्ते पर जाने की जरूरत ही क्या है?
महिलाओं को आजादी खैरात में नहीं बल्कि हक है इसलिए मिलनी चाहिए
इतना जरूर है की यह फैसला जब आया तो मैंने भी अपने घर के आस पास कई स्त्रियों की आंखों में एक नई चमक देखी. दरअसल क़ानून से और कुछ नहीं, बस लड़ने का हौसला आता है. अपने साथ किसी के खड़े होने की उम्मीद दिखाई देती है और धीरे धीरे यह कुरीति अपने आप ही गायब हो जाती है. जैसे दहेज़ प्रथा हो रही है. अंतर्जातीय विवाहों पर बेड़ियां टूट रही हैं और धीरे धीरे स्त्रियों के प्रति समाज उदार हो रहा है. यह उदारता कहीं न कहीं बहुत अधिक है तो कहीं कुछ कम.
स्त्रियों के साथ इस समय समाज का रवैया अजीब चल रहा है. यही अजीबपन इस साल भी रहा और कुछ भ्रमों के चलते इसके आगे भी चलने की संभावना है. महिलाओं के लिए अपराध कम हुए या बढ़े यह सवाल नहीं है. सवाल यह है की क्या वे अपने साथ होने वाले अपराधों के लिए आवाज़ उठाने में सफल हुई हैं? क्या इस साल हम इस तरफ एक कदम भी बढ़े की स्त्रियों को ऐसा माहौल प्रदान करें, जहां पर वे खुलकर आवाज़ उठा सकें और इसके साथ ही ढोंगी धर्मगुरुओं के जाल में फंसी लड़कियों ने भी हिम्मत दिखाई. साल के आख़िरी दिनों में ही दिल्ली से एक बाबा और उत्तर प्रदेश से एक मदरसा संचालक अपने अपने समुदायों की स्त्रियों का शोषण करने के आरोप में गिरफ्त में आए.
इस वर्ष मुझे बस यही उम्मीद है की लड़कियों के लिए जो भी कदम उठाए जाएं वे बस उन्हें इन्सान समझकर उठाए जाएं. उन्हें हिन्दू, मुस्लिम, सिख या ईसाई या पारसी के खांचे में बांटकर नहीं. जैसे इसी बरस एक पारसी महिला को अपने धर्म से बाहर विवाह करने पर भी धर्म से बेदखल नहीं किया गया, जैसा पारसी धर्म करता आया है. उस महिला ने न्यायालय का सहारा लिया था.
मुझे लगता है कि स्त्रियों के लिए हम ऐसा माहौल ही क्यों दें कि उन्हें अपने जायज हकों और अधिकारों के लिए बार बार न्यायपालिका की तरफ देखना पड़े? बार बार यह नियम न्यायालय बनाए की जाओ और जानों ये तुम्हारे हक हैं, ये नहीं! हालांकि न्यायपालिका ने भी इस वर्ष कई बार निराश किया, जब फारुकी को संदेह का लाभ देते हुए बलात्कार से बरी कर दिया. यह कहीं न कहीं न्यायपालिका पर एक दाग सा था.
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