महिलाएं कब समझेंगी कि सेल्फ केयर का मतलब स्वार्थी होना नहीं है
क्या महिलाएं अपनी केयर तभी कर पाएंगी, जबकि उन्हें दूसरों की सेवा-चाकरी से वक्त बचेगा? या फिर घर के बाकी लोग समझ लें कि उनकी केयर घर की महिला पर आश्रित न हो? यदि महिलाएं घरवालों की केयर टेकर बनी रहेंगी, तो वे अपना ख्याल नहीं रख पाएंगी.
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महिलाएं सबका ख्याल रखती हैं, सबके लिए करती हैं मगर अपने बारे में नहीं सोचती हैं. वे अपने लिए कुछ नहीं करती हैं. वे पूरे परिवार के लिए मदर टेरेसा बनी फिरती हैं मगर जब बात अपनी आती है तो पीछे हट जाती हैं. वे बीमारी में भी घर के काम करती रहती हैं. अगर वे सेल्फ केयर करतीं तो इसकी नौबत ही नहीं आती.
कई बार हमने महिलाओं को कहते सुना है कि मैं सबके लिए करती हूं मगर मेरे लिए कोई कुछ नहीं करता. मैं सबका सिर दबाती हूं, मेरा सिर कोई नहीं दबाता. मैं जब नहीं रहूंगी तो देखना यह सब कौन करता है? महिलाएं सिर्फ ये लाइनें बड़बड़ाती रहती हैं और सबका काम करती जाती हैं. क्या उन्हें नहीं पता है कि किसी के ना रहने से जिंदगी रूकती नहीं है? क्या उनकी वैल्यू सिर्फ किसी के काम करने तक सीमति है? क्या उनके ना रहने पर उन्हें सामने वाला व्यक्ति सिर्फ इसी बात के लिए उन्हें याद करने वाला है?
महिलाओं को हर रिश्ते में थोड़ी लकीर खींचनी होगी. वे मां है, पत्नी है, बहू हैं मगर पहले वे खुद एक इंसान हैं
महिलाएं अपनी केयर तभी कर पाएंगी, जब वे इस बात की अहमियत दूसरों को समझा पाएंगी. यानी तब जब घर के बाकी लोग अपना काम खुद करने लगें. परिवार में महिलाएं एक सपोर्ट सिस्टम की तरह काम करती हैं. जिसे भी जरूरत होती है, हर कोई महिलाओं की तरफ ही देखता है. यहां तक सब ठीक है. लेकिन, ऐसा कितनी बार होता है कि जब महिलाओं की तकलीफ में भी सभी लोग उसी संवेदना के साथ उसके साथ खड़े हों. महिलाओं ने इस व्यवस्था को स्थायी सिस्टम मान लिया है. वे दूसरों पर कुर्बान होती रहेंगी, उनकी मदद को कोई नहीं आएगा.
महिलाओं को हर रिश्ते में थोड़ी लकीर खींचनी होगी. वे मां हैं, पत्नी हैं, बहू हैं मगर सबसे पहले खुद एक इंसान हैं. कुलमिलाकर वे मशीन नहीं हैं. जैसे सबको काम के बाद आराम की जरूरत होती है. और सब अपनी सुविधा और जरूरत के हिसाब से तरोताजा हो भी जाते हैं. महिलाओं को भी इस बारे में सोचना चाहिए. और महिलाओं को ही क्यों, परिवार के बाकी लोगों को भी इस पर गौर करना चाहिए.
महिलाओं को अपने बाल ऐसे संवार कर रखने चाहिए कि वे काम वाली बाई न लगें. उनके पास इतनी आजादी होनी चाहिए कि जब चाहें अपने नाखूनों पर नेल पॉलिश लगा सकें. उनके मन में इस तब का डर ना हो कि इसके सूखने से पहले ही कोई काम आ जाएगा. एक दिन ऐसा भी हो कि वे देरी से सोकर उठें, और उन्हें इस बात की चिंता ना हो कि सुबह की चाय कैसे बनेगी?
वो भी जब चाहें दिन में आराम कर सकें बिना इस अफसोस के कि वो बच्चों को कौन संभालेगा? वे हमेशा दूसरों के पसंद का खाना बनाती हैं एक दिन ऐसा भी हो कि पूरे परिवार के लोग उनकी पसंद का खाना बनाएं. कभी ऐसा भी तो हो कि वे अपने पंसद का गाना सुने और कोई उनके साथ गुनगुनाएं. फिर कभी वे अपनी गर्ल गैंग के साथ कोई फिल्म देखने जाएं और उन्हें घर से बार-बार फोन ना आए. ऐसा क्यों है कि वे सुबह उठते से ही रसोई में चली जाती हैं, वे भी जूते पहन कर मॉर्निंग वॉक पर क्यों नहीं जातीं, वे कोई योगा क्लास क्यों नहीं ज्वाइन करतीं? क्या उनकी सेहत किसी के लिए जरूरी नहीं? ऐसा क्यों होता है कि सबके घर से दफ्तर चले जाने के बाद ही घर की महिलाएं अपना काम करती हैं?
आप सोच रहे होंगे कि ये सारी बातें कितनी छोटी हैं? मगर यही बातें महिलाओं के लिए बहुत बड़ी बन जाती हैं. क्योंकि शायद उन्होंने खुद को इसी रूप में ढाल लिया है. महिला को काम करते हुए देखने की घरवालों की आदत पड़ जाती है. अगर उन्हें अगर काम से ही एक दिन परिवार को इग्नोर करना पड़े तो गिल्ट में जीने लगती हैं. घरवाले भी उन्हें गिल्ट महसूस कराने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं. तभी तो महिला से पूछ लिया जाता है कि तुम करती ही क्या हो? जबकि सबको पता रहता है कि वह दिन भर क्या करती है?
महिला, घर के कामों में किसी से मदद लेने में भी हिचकती है. उसे सारा काम करने की आदत जो पड़ जाती है. नाश्ता भी वही बनाएंगी, टिफिन भी वही पैक करेंगी औऱ साफ-सफाई भी वही करेंगी. जैसे महिला नहीं सुपरवुमन हो. ऊपर से जरा सी भी कमी होने पर उन्हें ही टोका जाएगा. इसलिए खुद की केयर वही महिला कर पाएगी जो अपने बारे में सोचना शुरु कर दे. वरना जब तब वह सब पर न्योछावर रहेगी उसकी दुर्गति होती रहेगी.
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