द्विअर्थी संवाद से निपटने का हथियार भी महिलाओं को ही सोचना होगा
न जाने कितनी महिलाएं हर रोज द्विअर्थी संवादों का शिकार होती हैं. क्या ये शोषण नहीं?? प्रश्न बहुत हैं, मगर सबसे बड़ा प्रश्न है इस तरह के द्विअर्थी संवादों से स्त्री का पार पाना!
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किसी ने आकर कहा था और बचपन से सुनते ही आए थे “अरे लड़कों से गलतियां हो ही जाती हैं” और गलतियों की लाइन लग गयी, फिर गलती करने वालों में कोई उम्र का लिहाज़ न रहा. न ही तो गलतियों की कोई उम्र होती है और न कोई सीमा! असीमित आकाश की तरह हर प्रकार की गलतियों को स्त्री पर आजमाया जाने लगा. जब दंड का चाबुक न रहा तो वाणी पर जैसे विराम ही न रहा. स्त्रियों पर तरह तरह की भाषाओं के प्रयोग भी होने लगे.
जब इन प्रयोगों का दायरा बढ़ने लगा तो कहीं न कहीं पात्र एकसार से हो गए. हर घटना कहीं भी कभी भी जैसे दोहराती सी लगी, जैसे किसी भी पार्किंग में अपनी स्कूटी के लिए ऐसी महिला द्वारा जगह खोजना, जिसने शायद अभी अभी चलाना सीखा है, या वह सड़क से परिचित नहीं है, वह थोड़ा कातर निगाहों से इधर-उधर देखती है, चेहरे से स्कार्फ हटाती है, काजल भरी आंखें उसकी बहुत खूबसूरत हैं, उनमें थोडा पानी भी है. वह अपनी साड़ी सम्हालती है, फिर स्कूटी को सम्हालती है, और कहती है, 'बैया, मैं इदर कैसे लगा सकती हूं! इदर तो जगह ही च नहीं.'
उधर ही दो तीन लड़के (आदमीनुमा) खड़े हैं, 'अरे मैडम, काहे परेसान होती हैं, उधर ही लगा दीजिए आगे लेजाकर.' वह फिर से देखती है, घबराती है, और फिर कहती है 'बैया, इतनी छोटी जगह, मैं नहीं कर पाएगी.'' अब वह आगे आकर कहता है “मैडम जी, कुछ काम हम ही लोग कर पाते हैं, छोटी जगह में कैसे बड़ी चीज़ डालनी है, घुमानी है, हमें सब आता है.''
अब इसे आप किस श्रेणी में रखेंगे? भाषा और सन्दर्भों का यह विस्तार इस कदर मानसिकता में व्यापक है कि इसे आप चाहकर भी मानसिकता बदलो वाली परिभाषा में, नहीं रख सकते? क्या रख सकते हैं? किस तरह इस प्रकार के द्विअर्थी सम्वाद से स्त्री बाहर निकलेगी.
इत्तफाकन उधर एक और स्त्री खड़ी है, उसने जरा तेज आवाज में कहा 'इधर ले आइये न! भैया लगा देंगे, सच ही कहा है इन्होंने, कुछ काम आदमी लोग ही कर पाते हैं सही से, कुछ तो भैया ने बता ही दिए हैं!' और उस समय भरी दोपहरी में भी सन्नाटा है! उस पार्किंग में ऐसा भी नहीं कि यह संवाद इन्हीं दो तीन स्त्री और पुरुषों के बीच हो रहा है, दरअसल यह संवाद उस आनंद का है, जो स्त्री को परेशान देखकर आता है.
जब ऐसा कुछ होता है और ऐसे लोगों पर दंड की बात आती है तो यह दुहाई लगभग हर तरफ से आने लगती है, छोड़िये न! कितना लड़ेंगे? मगर यही मानसिकता है जो खीरा खरीदती स्त्री को भी निगाह झुकाने पर विवश कर देती है, जब उससे सब्जी वाला यह कह देता है 'मैडम जी, खीरा ले लीजिए, ज्यादा मोटा नहीं है, लीजिए, पतला ही है, डाल दें क्या?'
क्या किया जाए, मानसिकता बदली जाए या दंड दिया जाए? यह प्रश्न लफंगों पर हो रही कार्यवाही का विरोध करने वालों से है. न जाने कितनी महिलाएं इस तरह के द्विअर्थी संवादों का शिकार होती हैं. गलती होती रही है, दंड से मानसिकता सुधारें या मानसिकता से दंड? प्रश्न बहुत हैं, मगर सबसे बड़ा प्रश्न है इस तरह के द्विअर्थी संवादों से स्त्री का पार पाना! ये धीरे-धीरे इतने अन्दर तक विकृत हो चुकी है कि अब इससे लड़ने के लिए हर प्रयास करना होगा, सबसे पहले तो स्त्री को ऐसे सम्वादों से भयभीत होने के स्थान पर उनका सही प्रत्युत्तर देने के लिए मानसिक रूप से तैयार होना होगा!
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