स्त्री बस यही चाहती है कि उसे 'इंसान' समझा जाए !
'स्त्री' ईश्वर की गढ़ी वह खूबसूरत कृति है, जिसके बिना सृष्टि की कल्पना ही नहीं की जा सकती. ये वो धुरी है जिसके गर्भ में जीवन पनपता है.
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'अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस' की शुभकामनाएं, बोलना उतना ही आसान है जैसा कि 'स्वतंत्रता दिवस मुबारक़ हो' कहना या अन्य कोई भी दिवस की बधाई देते समय औपचारिकताएं निभाना. सब जानते हैं, इस सब की सच्चाई, एक तिथि या अवकाश से ज्यादा कुछ भी नहीं. कभी गौर कीजियेगा, नब्बे प्रतिशत महिलाओं के मुंह से इस बधाई की प्रतिक्रियास्वरुप खिसियाता 'थैंक्स' ऐसे निकलेगा जैसे अस्पताल के बिस्तर पर पड़े किसी बीमार बच्चे को हैप्पी बर्थडे बोल दिया गया हो. पर एक बात यह भी है कि कोई 'विश' करे, अच्छा तो लगता ही है!
सच समझे आप, 'स्त्रियों' को समझ पाना इतना आसान नहीं है. स्त्री मन की थाह का अंदाजा, शायद स्त्री को स्वयं भी नहीं होता. फिर भी इन बातों को समझकर शुभकामनाएं भेजेंगे, तो उसे अच्छा लगेगा-
आज जिस इंसान पर कोई स्त्री आग-बबूला हो रही है, कल उसी के लिए नम आंखों से दुआ मांगती दिखेगी. क्योंकि उसे परवाह है अपनों की, क्रोध उस खिसियाहट का परिणाम है कि अपनों को उसकी परवाह क्यों नहीं? ये प्रेम है उसका.
"जाओ, अब तुमसे कभी बात नहीं करुंगी" कहकर दस सेकंड बाद ही सन्देश भेजेगी, "सॉरी यार, कॉल करूं क्या?" क्योंकि वो आपके बिना रह ही नहीं सकती, उसे क़द्र है आपकी उपस्थिति की. ये रिश्तों को निभाने की ज़िद है उसकी.
- रात भर सिरहाने बैठ बीमार बच्चे का माथा सहलाती है, कभी अपनी नींदों का हिसाब नहीं लगाती. ममता है उसकी.
- हिसाब से घर चलाते हुए, भविष्य के लिए पैसे बचाती है और एक दिन वो सारा धन बेहिचक किसी जरूरतमंद को दे आती है. दयालुता है उसकी.
- कोई उसकी मदद करे न करे, लेकिन वो सबकी मदद को हमेशा तैयार रहती है. संवेदनशीलता है उसकी.
- अपने आंसू भीतर ही समेटकर, दूसरों की आंखें पोंछ उन्हें दिलासा देती है. दर्द को समझने की शक्ति है उसकी.
- अपनों के लिए ढाल बनकर दुश्मन के सामने खड़ी हो जाती है. हिम्मत है उसकी.
- बार-बार जाती है, जाकर लौट आती है. इश्क़ है, दीवानगी है उसकी.
- एक हद तक सफाई देती है, फिर मौन हो जाती है. गरिमा है उसकी.
मम्मी, बेटी, गुड़िया, सुनो, दीदी, बुआ, चाची और ऐसे ही अनगिनत नामों-रिश्तों के बीच खोई हुई कभी फ़ुरसत के कुछ पलों में अति औपचारिक ढंग से तैयार किये गए स्कूली प्रमाण-पत्रों में अपना नाम पढ़कर खुद को पुकार लेती है. स्वयं की तलाश में, खोयी रही अब तक....कुछ ऐसी ही ज़िन्दगी है उसकी. मेरे लिए स्त्री का यही पर्याय है.
'स्त्री' ईश्वर की गढ़ी वह खूबसूरत कृति है, जिसके बिना सृष्टि की कल्पना ही नहीं की जा सकती. ये वो धुरी है जिसके गर्भ में जीवन पनपता है. नारी, 'नर' की महिमा है, गरिमा है, ममता की मूरत है, अन्नपूर्णा है, कोमल भाषा है, निर्मल मन और स्वच्छ हृदय है, समर्पिता है. और इन सबसे भी अहम बात वो सिर्फ़ एक ज़िस्म ही नहीं, उसमें जां भी बसती है. अपने हिस्से के सम्मान की हक़दार है वो.
हमें बदलना ही होगा अपने-आप को, अपनी सोच को, अपने आसपास के माहौल को, नारी को उपभोग की वस्तु समझने वालों की कुत्सित सोच को..अब बिना डरे हुए सामना करना ही होगा उन पापियों का, समाज के झूठे ठेकेदारों का, बेनक़ाब करना है हर घिनौने चेहरे की सच्चाई को..साथ देना होगा, उस नारी का, उम्मीद की लौ जिसकी आँखों में अब भी टिमटिमाती है, जिसे अब भी विश्वास है बदलाव पर!
स्त्री को कोई अपेक्षा नहीं सिवाय इसके कि उसे 'इंसान' समझा जाए, उसे भी उसके हिस्से का मान मिले. उसके साथ निर्ममता और क्रूरतापूर्ण व्यवहार न हो. वो देवी बनने की इच्छुक तो बिल्कुल भी नहीं. जहां तक 'फेमिनिज्म' की बात है तो फेमिनिज्म को बवाल समझने वालों के लिए यह जानना आवश्यक है कि स्त्री की लड़ाई पुरुष वर्ग के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ है, जिसमें समाज का हर वर्ग सम्मिलित है. विज्ञान का नियम है , किसी वस्तु को दबाने पर वो दुगुनी शक्ति से उछलती है, कुछ ऐसा ही स्त्रियों के साथ भी हुआ है.
अपने कर्त्तव्यों के पूर्ण निर्वहन के साथ, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक एवं सचेत रहकर सत्य के पक्ष में खड़े हो, अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाना ही 'फेमिनिज्म' है. नारी आंदोलन, नारी अधिकारवाद, स्त्री सशक्तिकरण, स्त्रीत्व ज़िंदाबाद के नाम पर हो रही तमाम रैलियों, भाषणों और टिमटिमाती मोमबत्तियों को मैं खारिज़ करती हूं. यदि हम 'स्त्री' अपने-अपने घरों में बच्चों को सबका समान रूप से सम्मान करना सिखायें, हर धर्म का आदर करने का पाठ दें और स्वयं भी यही करें तो एक परिवार तो स्वस्थ मानसिकता वाला बन ही जायेगा और सभी यही करें तो सकारात्मक समाज की स्थापना उतनी मुश्किल नहीं, जितनी प्रक्षेपित की जाती रही है.
'फेमिनिज्म' शब्द का प्रयोग हर युग में, हर तबके में, हर ओहदे पर बैठे लोगों द्वारा अलग-अलग विधियों से अलग-अलग प्रयोजनों के लिए किया जाता रहा है. पर 'स्त्रीत्व' के नाम पर खुद की महानता के गुणगान और हर बात में पुरुषों को दोषी ठहरा देना निहायत ही गलत है. पहले और अब की परम्पराओं तथा सोच में अंतर आ चुका है. हां, नारी के मूलभूत गुण अब भी सुरक्षित है. परिवर्तन गर हुआ है तो यही, कि अब उसे अपनी समस्याओं पर बोलना आ गया है, झिझक खुलती जा रही है,वो multitasking करना भी जान गई है. लेकिन हर बात में झंडा फहराते हुए मोर्चा निकाल देना और व्यर्थ की नारेबाज़ी उचित नहीं लगती ! अबला, असहाय, निरीह अब पुराने गीत हैं. आंसू, होते तो असल हैं पर उन्हें हथियार की तरह इस्तेमाल न किया जाए तो बेहतर!
'स्त्रीत्व' यही है कि हम अपने मूलभूत गुणों को संरक्षित रखते हुए, हर वर्ग को उसके हिस्से का मान दें और जरुरत पड़ने पर अपनी बात भी अन्य प्रजाति (पुरुष) पर दोषारोपण किये बिना कह सकें. क्योंकि हमारी और आपकी दुनिया में बहुत अच्छे और सुलझी सोच वाले पुरुषों की उपस्थिति को भी नकारा नहीं जा सकता. एक कटु सत्य यह भी है कि अत्याचार पुरुषों पर भी होते हैं, परन्तु सामाजिक ढांचा ही कुछ ऐसा है कि वे इस विषय पर बात करने में असहज महसूस करते हैं.
आजकल की युवा पीढ़ी की सकारात्मक सोच, समाज के लिए बहुत उम्मीदें पैदा करती है. हमें आशान्वित रहना होगा कि कुछ वर्षों में स्त्री-पुरुष के बीच यह द्वंद्व ही समाप्त हो जाए और दोनों एक दूसरे की सत्ता को मान देते हुए, आपसी मतभेद के बावजूद मनभेद न रखें. तभी इस सच्चाई को स्नेह से स्वीकार कर सामंजस्य बैठा पाने में सक्षम होंगे! तब तक ऐसी चर्चाओं का जीवंत रहना जरुरी है. उसके बाद पुरुष दिवस हो या स्त्री दिवस क्या फ़र्क़ पड़ता है. बस, मानवता बची रहे!
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