बधिर खिलाड़ियों की टीस को न करें अनसुना
तुर्की में आयोजित डेफलंपिक-2017 में शानदार प्रदर्शन कर लौटे भारतीय दल ने अगर दिल्ली एयरपोर्ट पर अपना विरोध न जताया होता तो शायद हर बार की तरह इस बार भी उन्हें भुला दिया गया होता.
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डेफलंपिक को इससे पूर्व कितने लोग जानते थे? ईमानदारी से कहा जाए तो बहुत कम लोग. हमें और आपको ये कबूल करने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए कि डेफलंपिक अर्थात बधिर ओलंपिक के बारे में जानना तो बहुत दूर, अधिकतर लोगों ने इसका नाम भी नहीं सुना होगा. तुर्की के सामसून शहर में आयोजित डेफलंपिक-2017 में शानदार प्रदर्शन कर लौटे भारतीय दल ने अगर दिल्ली एयरपोर्ट पर अपना विरोध न जताया होता तो शायद हर बार की तरह इस बार भी उन्हें भुला दिया गया होता. उन्हीं की तरह इस ओलंपकि में हासिल की गई उनकी शानदार उपलिब्धयां भी लोगों को पता नहीं चलतीं.
दरअसल अपने स्वागत में सरकार, खेल मंत्रालय और खेल प्राधिकरण के किसी अधिकारी को न पाकर बधिर ओलंपिक खिलाड़ियों और उनके सपोर्ट स्टॉफ ने इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से निकलने से इंकार कर दिया. नतीजतन उनके इस विरोध-प्रदर्शन की खबर ने बधिर ओलंपिक-2017 के खेल प्रदर्शन से ज्यादा सुर्खियां बटोरीं और वो पलभर में लोगों के दिलो-दिमाग में छा गए. हर किसी को उनसे सहानुभूति हुई और मीडिया-सोशल मीडिया में उनके समर्थन में लोग आ गए.
एयरपोर्ट पर विरोध प्रदर्शन करते खिलाड़ी
अजीब बात है कि जिन खिलाड़ियों को उनके खेल प्रदर्शन की वजह से पहचाना जाना चाहिए था, लोग उन्हें उनके विरोध-प्रदर्शन के बाद जानने को मजबूर हुए. बधिर ओलंपिक और उसके खिलाड़ियों के प्रति अज्ञानता के लिए जितने हम कसूरवार हैं, उससे कहीं अधिक हमारी सरकारें और मीडिया जिम्मेदार है.
दुर्भाग्यवश उनके साथ ये अनदेखी तब हुई है जब बधिर ओलंपिक खेलों में ये किसी भी भारतीय दल का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है. डेफलंपिक के इस 23वें संस्करण में भारत की तरफ से गया 46 सदस्यीय दल कुल पांच पदक जीतकर लौटा है. इसमें से विरेन्द्र सिंह ने 74 किलोग्राम की फ्रीस्टाइल कुश्ती में स्वर्ण पदक जीतकर देश का नाम रौशन किया है तो वहीं कुश्ती में ही अजय कुमार और सुमित दहिया ने कांसे का तमगा जीता है. इसके अतिरिक्त दीक्षा डागर ने गोल्फ में रजत तो वहीं पृथ्वी सरकार और जाफरीन शेख की जोड़ी ने पुरूषों के युगल मुकाबले में कांसे का मेडल हासिल किया.
भारत को कुश्ती में एक गोल्ड और दो ब्रॉन्ज मेडल मिले
उनके इस प्रदर्शन का अगर 2016 के रियो ओलंपिक में भारतीय दल से तुलना की जाए तो हमारे बधिर खिलाड़ियों का प्रदर्शन काफी बेहतर रहा है. बधिर ओलंपिक में गए 46 सदस्यीय दल में खिलाड़ियों के अलावा सपोर्टिंग स्टॉफ भी था. इन खिलाड़ियों में महज 8 खेलों में अपना हाथ आजमाया और उनकी झोली में पांच मेडल आए जबकि ओलंपिक में गए भारतीय दल में केवल खिलाड़ियों की संख्या 117 थी और उन्होंने 15 मैदानों में अपना भाग्य आजमाया लेकिन उनके हाथ महज दो मेडल लगे. इसमें एक पीवी संधू ने बैडमिंटन में रजत तो दूसरा साक्षी मलिक ने कुश्ती में कांसे का तमगा दिलवाया. इसके बरक्स शारीरिक रूप उनके कम दक्ष खिलाड़ियों ने पैरालंपिक में 4 पदक दिलवाया.
ओलंपिक खेलों में भारत की ये दुर्दशा कोई पहली बार नहीं हुई है बल्कि 1920 में जब से हमने इसमें अपना दल भेजना शुरू किया है महज दो दर्जन मेडल ही हमारी झोली में आए हैं. इनमें नौ गोल्ड मेडल शामिल हैं लेकिन हमें स्वर्ण पदकों की इस संख्या पर ज्यादा इतराने की जरूरत नहीं है क्योंकि इनमें से आठ भारतीय हाकी टीम की देन हैं. वो भी तब जब वो दौर भारतीय हॉकी का स्वर्णिम युग था. दीगर अकेला स्वर्ण पदक अभिनव बिंद्रा ने बीजिंग ओलंपिक में शूटिंग में जीता था. अर्थात लगभग एक सदी बीतने के बावजूद भी हमारे प्रदर्शन में कोई सुधार नहीं है.
दीक्षा डागर गोल्फ में मेडल लाने में सफल रहीं
इससे जाहिर होता है कि हमारे दिव्यांग खिलाड़ियों का प्रदर्शन ओलंपिक खिलाड़ियों से कहीं बेहतर है. इसके बावजूद बधिर खिलाड़ियों की उपेक्षा की गई और खेल मंत्रालय तथा भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) की तरफ से कोई अधिकारी एयरपोर्ट पर उनके स्वागत के लिए नहीं गया. उनकी ये उपेक्षा तब की गई है जब उन्होंने गत 25 जुलाई को ही ई-मेल के माध्यम से 1 अगस्त को वतन वापसी की सूचना दे दी थी. खिलाड़ियों इंटरप्रेटर और प्रोजेक्ट ऑफिसर केतन शाह का कहना है कि हमने साई के महानिदेशक और खेल मंत्री से संपर्क साधने की कोशिश की लेकिन किसी ने भी हमारी तरफ ध्यान नहीं दिया.
काबिलेजिक्र है कि इससे पहले रियो पैरालंपिक में तैराकी में रजत पदक जीतने वाली चंद्रमाला पांडे को इसमें हिस्सा लेने के लिए बर्लिन की सड़कों पर पैसों के लिए भीख मांगने के लिए विवश होना पड़ा था. फिर 2011 में ली गई भारतीय महिला कबड्डी टीम की उन तस्वीरों को कौन भूल सकता है जब विश्व चैम्पियनशिप जीतकर हाथ में ट्रॉफी लिए सड़क पर ऑटो रिक्शा के इंतजार में खड़ी थीं.
शेखर और जाफरीन को टैनिस में ब्रॉन्ज मेडल हासिल हुआ
सरकारी उपेक्षा और लापरवाही तो खैर कोई नई बात नहीं है लेकिन असल चूक मीडिया से हुई है जिसे स्वीकारने में कोई बुराई नहीं है. इनके जरिए उन्हें उतना महत्व नहीं दिया गया जिसके वह हकदार थे. कम से कम उस समय तो जरूर इन खिलाड़ियों को कवरेज देनी चाहिए थी जब ये डेफलंपिक-2017 में पदक जीत रहे थे. जाहिर है कि इससे लोगों को उनके नाम और काम, दोनों की जानकारी होती. मगर ये तल्ख सच्चाई है कि वो सुर्खियों में तभी आए जब उन्होंने एयरपोर्ट से जाने को मना कर दिया.
ओलंपिक में हमारे खराब प्रदर्शन को देखते हुए एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर टास्क फोर्स का गठन किया गया है तो वहीं दूसरी तरफ उनकी सरकार के अधीन मंत्रालयल और भारतीय खेल प्राधिकरण ही उनकी इस योजना को पलीता लगाने पर तुले हैं. बार-बार होने वाली ऐसी उपेक्षाओं के बाद भला कौन खेलों में अपना भविष्य बनाना चाहेगा? और फिर जब तक लोग किसी खेल में उतरेंगे नहीं तो उसे जीतेंगे कैसे? हमें चाहिए कि क्रिकेट की तरह ही अन्य खेलों और उनके खिलाड़ियों को भी प्रोत्साहन दें ताकि वो भी अपने-अपने खेलों में देश का नाम रौशन कर सकें.
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