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Updated: 23 फरवरी, 2017 01:00 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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क्रिकेट के प्रति लोगों की दीवानगी देखती हूं तो समझ नहीं पाती कि लोग खेल को महत्व देते हैं या खिलाड़ी को. पर खिलाड़ी तो आते-जाते रहते हैं, इसलिए अब तक यही नताजा निकला कि क्रिकेट के खेल में ही जुनून है. पर फिर भी मुझे ये खेल जोड़ नहीं पाया. वजहें बहुत सी हैं.. पर आज सिर्फ एक वजह पर ही चर्चा काफी होगी.

कुछ दिन पहले भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट का ब्लाइंड टी20 वर्ल्ड कप फाइनल हुआ, जिसे भारत ने जीता था. यूं तो भारत और पाकिस्तान के बीच किसी भी मैच को कोई भारतीय मिस नहीं करता, पर ये ब्लाइंड क्रिकेट था तो शायद इस मैच का लाइव कवरेज दिखाने में उतना प्रॉफिट नहीं होता, तो नहीं दिखाया गया. लोगों को भारत की जीत के बारे में तब पता चला जब प्रधानमंत्री मोदी ने इसकी खबर ट्वीट की. मोदी जी ने लिखा कि खुशी की बात है कि भारत ने ब्लाइंड टी20 वर्ल्ड कप जीत लिया है. टीम को शुभकामनाएं. भारत को उनकी जीत पर गर्व है.

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हमारे खिलाड़ियों ने दूसरी बार टी20 वर्ल्ड कप चैम्पियनशिप जीतकर जो सम्मान देश को दिलाया, वो बहुमूल्य है. भारत का हर खिलाड़ी जो देश को सम्मान दिलाता है, वो गर्व करने लायक है. पर जब इन खिलाड़ियों को ईनाम देने की बारी आती है तो सारकार का सारा गर्व साफ-साफ दिखाई देने लगता है. गर्व के रूप में ईनामों की जो बौछार इंटरनेशनल क्रिकेट के खिलाड़ियों पर होती है, उससे बाकी सारे खेल, यहां तक कि महिला क्रिकेट और ब्लाइंड क्रिकेट सब महरूम रहते हैं. फिर चाहे आप वर्ल्ड कप ही क्यों न जीत लाओ. सरकार का गर्व सिर्फ शब्दों में दिखता है, ईनाम में नहीं.

कितना शर्मनाक है कि ब्लाइंड क्रिकेट वर्ल्ड कप चैंपियन बनी भारत की टीम को खेल मंत्री विजय गोयल ने केवल 10 लाख रुपये के ईनाम की घोषणा की. जबकि 2014 में दो बार के चैम्पियन पाकिस्तान को हराकर चैंपियन बनी टीम के हर खिलाड़ी को 5-5 लाख रुपए का ईनाम दिया गया था.

इस बार ईनाम की राशि ने क्रिकेट खिलाडियों के मनोबल को तोड़ दिया. और टीम ने ईनाम की राशि स्वीकार करने से मना कर दिया. इस बात के लिए टीम के लिए तालियां...

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सरकार के इस रवैये से ये तो साफ जाहिर हो गया कि सरकार सिर्फ इंटरनेशनल क्रिकेट को ही महत्व देती है, और इसके खिलाड़ी ही उनके लिए असल खिलाड़ी होते हैं. इंटरनेशनल क्रिकेट के लिए सरकार के पास पैसा ही पैसा है. वो जीत आएं तो नोटों की बारिश होती है, लेकिन ये खिलाड़ी दुनिया जीत भी आएं तो अपने देश की सरकार से ही हार जाते हैं. सरकार को इन खिलाड़ियों के प्रयास नजर नहीं आते. वो दृष्टिबाधित होते हुए भी जीतकर आते हैं, लेकिन दुख की बात है कि ये लोग अब भी संसाधनों के आभाव से गुजर रहे हैं. न तो सरकार ने इस टीम को आधिकारिक दर्जा दिया और न ही गर्व करने योग राशि, जिससे इन लोगों का जीवन बेहतर हो सके. इन्हें आलीशान फलैट नहीं चाहिए थे, इन्हें बीएमडब्लू या महंगे तोहफे भी नहीं चाहिए थे, पर इतना तो कर सकते थे कि इनके चुनौतियों भरा जीवन कुछ सरल हो सके. भारत से अच्छा तो पाकिस्तान है कि 2002 में जब पाकिस्तान ने विश्व कप खिताब जीता था, तो वहां की सरकार ने उन्हें तुरंत ही आधिकारिक दर्जा दे दिया था.

ब्लाइंड टीम ने ईनाम की राशि ठुकराकर सरकार के मुंह पर जो तमाचा जड़ा है, उससे उसे सबक लेने की जरूरत है. ये समझने की जरूरत है कि विकलांगों का नाम बदलकर 'दिव्यांग' रख देने से कोई उनका फिक्रमंद नहीं बन जाता. फिक्र केवल उन कामों में दिखती है, जो असल में दिखाई देते हैं. और अफसोस कि सरकार की तरफ से हमें ऐसा कोई प्रयास अब तक दिखाई नहीं दिया जो ये बताए कि वो वाकई फिक्रमंद हैं. बाकी देशों में विकलांगों पर गंभीरता से ध्यान दिया जाता है, ऐसे में भारत की सरकार का ये संवेदनहीन रवैया देश के लिए शर्म की बात है.

देश के लिए खेलने वाले खिलाड़ी मुझे पसंद हैं, पर खेलों पर हो रही राजनीति नहीं. तो क्रिकेट से न जुड़ पाने की क्या ये वजह काफी नहीं ?

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पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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