फ्लाइट में बैठकर फेसबुक चलाना है तो ये जान लीजिए
एयरलाइन यात्रियों को प्लेन में एंटीना स्थापित करने की शुरुआती लागत को वहन करना पड़ेगा. अतिरिक्त लागत टिकट किरायों में वसूल की जा सकती है.
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अपने सीट बेल्ट बांधिए और इंटरनेट पर लॉग ऑन कर लीजिए. दूरसंचार आयोग के एक प्रस्ताव के मुताबिक, अब भारत में हवाई यात्रा करने वाले लोग जल्दी ही फ्लाइट में बैठे बैठे दूसरों से फोन पर बात कर पाएंगे, अपने ऑफिस के ईमेल भेज सकते हैं, फेसबुक की जांच करने के साथ-साथ वीडियो भी देख पाएंगे. अब फ्लाइट के दौरान मोबाइल और इंटरनेट का इस्तेमाल कर सकते हैं.
फ्लाइट से यात्रा करने वाले लोगों को अभी तक विमान के उड़ान भरने से पहले क्रू अपने मोबाइल फोन बंद करने या फिर फ्लाइट मोड पर रखने की हिदायत दी जाती थी. ये लोग अब ये सोच रहे हैं कि आखिर ये सिस्टम काम कैसे करेगा.
इन-फ्लाइट इंटरनेट टेक्नोलॉजी क्या है?
इन-फ्लाइट कनेक्टिविटी सिस्टम मुख्य रूप से दो प्रकार की तकनीकों का उपयोग करता है. पहले में एक ऑनबोर्ड एंटीना जमीन पर मौजूद निकटतम टावर से सिग्नल पकड़ता है. ये कनेक्शन एक निश्चित ऊंचाई तक उपलब्ध होगा. तब तक जब तक कि विमान, जमीन पर मौजूद टावरों के बगैर किसी क्षेत्र से गुजर रहा हो.
दूसरे परिदृश्य में, उपग्रह के सिग्नल सीधे एयरलाइन में स्थापित एंटेना से कनेक्ट होता है. यह तब अधिक प्रभावी होता है जब एयरलाइन पानी के ऊपर से गुजर रही हो. ये एटीजी (एयर-टू-ग्राउंड)-आधारित नेटवर्क की तुलना में ज्यादा कारगर है जो सैटेलाइट के सिग्नल को पहले जमीन पर मौजूद ट्रांसमीटर को भेजते हैं और तब एयरलाइन के एंटीना को भेजा जाता है.
आगे क्या होगा?
नई तकनीक नए दौर में लेकर जाएगी
प्लेन के एंटिना से जुड़े राउटर के जरिए डेटा को किसी इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस जैसे एक स्मार्टफोन या एक लैपटॉप को ट्रांसमिट किया जाता है. एंटीना उपग्रहों के माध्यम से सिग्नल को प्रेषित करता है, जो डेटा खपत की गणना करने वाले बिलिंग सर्वर पर ट्रैफिक को पुनर्निर्देशित कर देता है. अगर वाईफ़ाई के जरिए उपलब्ध इंटरनेट सेवाओं को सिर्फ फ्लाइट मोड में उपयोग करने की इजाजत है, तो प्लेन का एंटीना दूरसंचार सेवा प्रदाताओं द्वारा प्रदान की जाने वाली जमीन पर मौजूद इंटरनेट सेवाओं का इस्तेमाल करता.
आमतौर पर टेक-ऑफ के पांच मिनट बाद प्लेन 3,000 मीटर की ऊंचाई तक पहुंच जाता है, तब एंटीना सैटेलाइट-आधारित सेवाओं पर स्विच कर जाएगा. यह यात्रियों को इंटरनेट सेवाओं की निरंतरता सुनिश्चित करेगा और स्थलीय और उपग्रह नेटवर्क के बीच के क्रॉस कनेक्शन को रोक देगा. इसके लिए एयरलाइन या तो विदेशी उपग्रहों या फिर इसरो के स्वदेशी जीपीएस-समर्थित भू-संवर्धित नेविगेशन सिस्टम (GAGAN) की सेवाओं पर निर्भर करेगी.
गगन को इसरो और एयरपोर्ट ऑथोरिटी ऑफ इंडिया (एएआई) ने संयुक्त रुप से विकसित किया है. जिसका इस्तेमाल एयरक्राफ्ट की सटीक लैंडिंग के लिए किया जाता है. गगन का सिग्नल दो जियो स्टेशनरी अर्थ ऑर्बिट (जिओ) सैटेलाइट- जीसैट8 और जीसैट10 के द्वारा ब्रॉडकास्ट होते हैं.
चुनौतियां क्या हैं?
इस तकनीक को काम करने के लिए, एयरलाइंस और सेवा प्रदाताओं को एक सर्वर के साथ साथ सैटेलाइट सिग्नल को डेटा पैकेट में बदलने वाला एक उपकरण भी प्लेन में रखना होगा. साथ ही उन्हें एंटीना को भी सही एंगल पर स्थापित करना होगा ताकि सैटेलाइट के माध्यम से आने वाले सिग्नल कमजोर न पड़ें. जब प्लेन एक उपग्रह की सीमा से दूसरे ग्रह की सीमा में आती है, तो दिक्कतें होंगी. आम तौर पर, फ्लाइट में मौजूद वाईफाई जमीन पर मौजूद वाईफाई की तुलना में धीमी होने की उम्मीद है. हालांकि, नवीनतम तकनीक उस परिदृश्य को बदल सकती है.
क्या उपयोगकर्ताओं को ज्यादा भुगतान करना होगा?
एयरलाइन यात्रियों को प्लेन में एंटीना स्थापित करने की शुरुआती लागत को वहन करना पड़ेगा. विमानों के लिए ये ज्यादा आसान होगा कि वो उपकरण नए विमानों में स्थापित करें बजाए इसके कि अभी उपलब्ध विमानों को कुछ दिन इस्तेमाल न करके उसमें उपकरण फिट किए जाएं. अतिरिक्त लागत टिकट किरायों में वसूल की जा सकती है. वहीं उपकरण के इंस्टॉल करने में लगने वाली ऊंची लागत सस्ते विमान सेवा प्रदाता कंपनियों की चिंता बढ़ा सकती है.
वहीं विदेशी विमान जो भारत में अपनी सेवाएं देते हैं या फिर भारत के एयरपोर्ट का इस्तेमाल करते हैं वो स्थानीय विमान कंपनियों की अपेक्षा पहले सेवाएं प्रदान कर सकते हैं क्योंकि वो पहले से ही ये सेवाएं देते आ रहे हैं.
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