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Updated: 18 अगस्त, 2019 11:12 AM
ऋचा साकल्ले
ऋचा साकल्ले
  @richa.sakalley
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निखिल आडवाणी की फिल्म Batla house 2008 की एनकाउंटर की घटना को पर्दे पर रचने की वो कोशिश है जो अतीत में उठे सवालों के जवाब देने में पूरी तरह नाकाम रही है बल्कि यह तो सवालों का ही एनकाउंटर करने की कोशिश करती है.

असल घटनाओं पर फ़िल्में बनाना चुनौती भरा टास्क है John Abraham और निखिल यह ज़िम्मेदारी उठाते जरुर हैं मगर पूर्वाग्रहों के साथ. 2008 के बाटला हाउस एनकाउंटर पर आधारित यह फिल्म अगर गंभीरता का दामन पकड़ती तो बहुत कुछ नया प्रयोग होता मगर फिल्म उन कही सुनी बातों का ही कोलाज नज़र आती है जो बाटला हाउस एनकाउंटर के वक़्त उठीं.

batla houseअतीत में उठे सवालों के जवाब देने में पूरी तरह नाकाम रही है batla house

2008 में इस एनकाउंटर को फ़र्ज़ी बताया गया और पुलिस की भूमिका पर भी सवाल उठे. लेकिन फिल्म में पुलिस को लेकर ऐसा ड्रामा रचने की कोशिश की गई जो यह साबित करने में लगा रहा कि पुलिस ग़लत हो ही नहीं सकती क्योंकि वो जान जोखिम में डालकर गोली चलाती है. वो ग़लत हो ही नहीं सकती क्योंकि व्यक्तिगत रुप से पुलिसवाले चाहे कितने परेशान रहें मगर फ़र्ज़ निभाते वक़्त वो सिर्फ़ एक सच्चे देशभक्त होते हैं. पूरी फिल्म पुलिस की भूमिका ख़ासतौर से बाटला हाउस एनकाउंटर की अगुवाई करने वाले अफ़सर संजीव कुमार यादव जिसे फिल्म में संजय कुमार कहा गया है को सही बताने के लिए कभी उन्हे दयनीय बना देती है तो कभी उन्हे ऐसा देशभक्त बताती है मानो बाटला हाउस एनकाउंटर में शामिल पुलिसवालों सा देशभक्त कोई था ही नहीं. ऐसे वक़्त में बार बार वही संवाद बोलने का मन होता है जो फिल्म का नायक जॉन अब्राहम  चिल्ला चिल्लाकर कहता है ’मुझे ड्रामा नहीं चाहिए, मुझे मेरे सवालों का जवाब चाहिए’

फिल्म बाटला हाउस देखते हुए एक सवाल ज़ेहन में और उठा कि फिल्म का नायक जॉन अब्राहम को ही क्यों चुना गया. जॉन ने एक्टिंग उनकी दूसरी फ़िल्मों की तुलना में ठीक ही की लेकिन उनका होना इस गंभीर फिल्म में मुझे डाइजेस्ट करने में दिक्कत हुई. कहानी की बात करुं तो वो एनकाउंटर को पर्दे पर रचती है फिर एनकाउंटर के नायक के महिमामंडन में जुट जाती है. एनकाउंटर पर जब केस हुआ तो दिल्ली पुलिस की ख़ूब थू थू हुई जब सवाल उठे तो दिल्ली पुलिस के ग़ैर ज़िम्मेदाराना और बदल बदल कर दिए जवाबों के चलते वो शक के दायरे में आई. फिल्म में भी सवाल उठाए गए एनकाउंटर पर लेकिन निर्देशक ने सवालों को दबाने के लिए नायक अफ़सर को मेंटल पेशेंट बनाकर साबित किया कि वो फिल्म में सच निकालकर नहीं लाना चाहते बल्कि सवालों का एनकाउंटर करके मार गिराना चाहते हैं.

निखिल आडवाणी की ये फिल्म कहती जरूर है कि यह कोई पक्ष नहीं लेती है और कहानी को संतुलित तरीके से बताने का दम भरती है लेकिन कहानी मे पक्ष उस चालाकी से पिरोया है कि निर्देशक के पूर्वाग्रह आंखों से ओझल नहीं हो पाते मसलन एक सीन जिसमें एनसीपी संजय कुमार का टोपी पहने लोगों की भीड़ में फंस जाने की कल्पना कहीं ना कहीं उसके माइनॉरिटी के विरोध का अवचेतन होने की छाप छोड़ती है वरना निखिल स्पष्ट करे कि वो सीन और क्या छाप छोड़ सकता है.

बहरहाल जो लोग वाक़ई इस मामले में सवालों का जवाब पाने के उद्देश्य से फिल्म देखना चाहते हैं तो ना देखें बेहतर होगा लेकिन जो सवाल जवाब से परे पुलिस की भक्ति और यशगान देखने के इच्छुक हैं तो निखिल जॉन  का यह ड्रामा उन्हें पसंद आएगा. रविकिशन और मृणाल ठाकुर अपने अपने रोल्स  में फ़िट रहे हैं. मेरी तरफ़ से फिल्म को 2.5 स्टार.

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ऋचा साकल्ले ऋचा साकल्ले @richa.sakalley

लेेखिका टीवीटुडे में प्रोड्यूसर हैं.

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