Chintu Ka Birthday Review: बम-गोलियों के साए में मना बर्थडे दिखाता है एक बाप की मजबूरी
विनय पाठक (Vinay Pathak ), तिल्लोतमा शोम और वेदांत राज चिब्बर स्टारर 'चिंटू का बर्थडे' (Chintu Ka Birthday) उस भारतीय परिवार की कहानी है जो 2004 में इराक (Iraq ) में रह रहा है और जो अपने बेटे का बर्थडे सेलिब्रेट करना चाहता है. फिल्म उन चुनौतियों को दिखाती है जिनका सामना परिवार को अपने बर्थडे सेलिब्रेशन के दौरान करना पड़ता है.
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2004 बगदाद (Baghdad)... इराक (Iraq) में यूएस अलाइड फ़ोर्स द्वारा सद्दाम (Saddam Hussein) की सेना को हराये हुए 1 साल हो चुका है. अमेरिका (America) ने सद्दाम को पकड़ लिया है और उसका ट्रायल प्रतीक्षारत है. वहीं भारत सरकार के अनुसार इराक में जो भारतीय फंसे हैं उन्हें वापस लाने के इंतजाम किए जा रहे हैं... कुछ ऐसे बैक ड्राप के साथ शुरुआत होती है नेशनल अवार्ड विनर प्रोड्यूसर सत्यांशु और देवांश सिंह द्वारा निर्देशित और फर्स्ट ड्राफ्ट एंटरटेनमेंट, तुलसा और सिनेमाज ट्विंस द्वारा निर्मित फ़िल्म 'चिंटू का बर्थडे' (Chintu Ka Birthday) की. फ़िल्म में चिंटू की भूमिका निभाई है वेदांत राज चिब्बर (Vedant Raj Chibbar) ने जबकि चिंटू के पापा के रोल में हैं विनय पाठक (Vinay Pathak) और चिंटू की मां के रूप में तिल्लोतमा शोम (Tillotama Shom) ने लाजवाब अभिनय किया है. इसके अलावा बिशा चतुर्वेदी, सीमा पाहवा, खालिद मासो और मीर मेहरूस सपोर्टिंग रोल में हैं. फ़िल्म एक मध्य वर्गीय परिवार के इर्द गिर्द घूमती है, जो एक युद्धग्रस्त क्षेत्र इराक (Iraq) में असाधारण स्थिति से निपटते हुए अपने 6 साल के बेटे चिंटू का बर्थडे मनाने की कोशिश कर रहे हैं. जाहिर है जिस जमीन पर युद्ध (Iraq War) हो. गोली और बम चल रहे हों. कब हमला हो जाए इसकी किसी को खबर न हो ऐसे में एक परिवार का लॉक डाउन की स्थिति में रहते हुए अपने बेटे के जन्मदिन की पार्टी आयोजित करना इतना भी आसान नहीं होता. कुछ इन्हीं चुनौतियों को दर्शाती है फ़िल्म चिंटू का बर्थडे.
फिल्म चिंटू का बर्थडे में इराक के जटिल हालातों में फंसे एक भारतीय परिवार की जटिलताओं को दर्शाया गया है
फ़िल्म मानवीय संवेदनाओं का बखूबी बयान करती है साथ ही इसमें दिखाया गया है कि इंसान को उस वक़्त कैसी अनुभूति होती है जब उसकी आखिरी उम्मीद भी टूट जाती है. फ़िल्म का दिलचस्प पहलू वो नजरिया है जो हमें बताता है कि तब उस पल इंसान को क्या करना चाहिए जब उसके सामने परेशानियों का पहाड़ हो.
क्या बताती है फ़िल्म की कहानी
क्योंकि फ़िल्म का प्लाट युद्ध से प्रभावित इराक़ है और चिंटू नाम के बच्चे का बर्थडे है तो फ़िल्म में दिखाया गया है कि कैसे बच्चा और उसके मां बाप दोनों ही बहुत एक्साइटेड हैं. मगर एक ऐसे क्षेत्र में जहां मौत किसी साए की तरह मंडराती हो वहां बर्थडे मनाना अपने में अजीब है. निर्देशक द्वारा फ़िल्म की शुरुआत में ही दर्शकों को बांधे रखने की कोशिश की गई है. अगर हम फ़िल्म के ओपनिंग सीन पर नजर डालें तो इसमें बर्थडे के दिन चिंटू को स्कूल जाते और उसके लिए तैयार होते दिखाया गया है. चिंटू की मां उसे तैयार करते हुए बताती है कि उसके लिए नया शर्ट पैंट सिलवाया गया है.
चिंटू के पापा स्कूल में बांटने के लिए टॉफी ले आए हैं और जैसे ही चिंटू स्कूल जाने के लिए निकलता है खबर आती है कि हमला हो गया है जिसकी वजह से स्कूल बाजार सब बंद कर दिए गए हैं. इस खबर के बाद चिंटू उदास हो जाता है और बाद में प्लान ये बनता है कि चिंटू का केक घर पर ही होगा साथ ही होगी भव्य पार्टी भी. मेहमान आते हैं मगर तभी कुछ ऐसा होता है जिसकी कल्पना न तो चिंटू ने की होती है और न ही उसके मां बाप ने.
तो क्या चिंटू अपना बर्थडे मना पाएगा? क्या स्थिति नियंत्रित रहती है? क्या सब कुछ शांति से हो पाएगा? चिंटू के बर्थडे के चक्कर में किसी की जान तो नहीं जाएगी? इन सभी सवालों के जवाब के लिए हमें फ़िल्म देखनी होगी. फ़िल्म में कई ऐसे सीन हैं जो एक ही समय में हमें गुदगुदाएंगे रो वहीं ये भी सोचने के लिए मजबूर करेंगे कि उस परिवार का क्या हश्र होता है जो युद्ध और गोली-बम-बंदूक के साए में रहता है.
कैसा है फ़िल्म का अभिनय
कहानी 2004 के बगदाद की है. बगदाद उस समय अपने सबसे मुश्किल वक़्त से गुज़र रहा था ऐसे में सारी जटिल परिस्थितियों को एक बर्थडे के अंतर्गत फिट करना न तो निर्देशक के लिए आसान था न ही कलाकारों के लिए. इराक में फंसे एक मजबूर भारतीय के रूप में विनय पाठक ने अपना बेस्ट दिया है वहीं बात तिल्लोतमा शोम की ही तो उन्होंने भी एक टिपिकल हाउस वाइफ के रूप में कहानी में नई जान फूंकी है.
ये फ़िल्म बिना चिंटू यानी वेदांत राज चिब्बर के अधूरी है. वेदांत की सौम्यता ऐसी है कि उसे बस आप पर्दे पर देखते रह जाएंगे. एक 6 साल के बच्चे के रूप में जैसी एक्टिंग वेदांत ने की है, उनमें वो तमाम गुण हैं कि आने वाले वक्त में आप उन्हें एक बड़े अभिनेता के रूप में देख सकते हैं.
बात अभिनय की चल रही है तो हम बिशा चतुर्वेदी, जो कि फ़िल्म में चिंटू की बहन बनी हैं उनका जिक्र ज़रूर करेंगे इनका भी काम शानदार है. इन सबकेअलावा सीमा पाहवा, खालिद मासो जैसे कलाकार भी कहानी को विस्तार देते नजर आते हैं.
निर्देशन और डायलॉग ने बनाया एक साधारण कहानी को असाधारण
फ़िल्म चाहे कोई भी क्यों न हो मगर स्क्रिप्ट के साथ तब तक न्याय नहीं हो सकता जब तक निर्देशक अपनी क्रिएटिविटी न दिखाए. इस पैमाने पर देवांश सिंह एकदम खरे उतरते हैं और फ़िल्म बनाते वक्त अपने निर्देशन के जरिये उन्होंने बारीक से बारीक बातों पर खासी गंभीरता दिखाई है.
चाहे अमेरिका- इराक युध्द के दृश्य हों या फिर चिंटू का घर हर जगह फ़िल्म की कहानी के साथ इंसाफ किया गया है. फ़िल्म में कई जगह एनीमेशन का भी इस्तेमाल हुआ है जिसे निर्देशक की रचनात्मकता ही कहा जाएगा. वहीं बात अगर फ़िल्म के डायलॉग की हो तो उन्हें भी प्रभावी रखा गया है जो कहानी में नई जान डालते हैं.
फ़िल्म के टेक्निकल पक्ष और म्यूज़िक ने एक अच्छी स्क्रिप्ट को लाजवाब बनाया
'चिंटू का बर्थडे' जैसी फिल्मों में कहानी की रीढ़ उसका टेक्निकल पक्ष होती है. ऐसे में जब हम इन बिंदुओं पर इस फ़िल्म को देखते हैं तो लगता है कि निर्देशक और कलाकारों की ही तरह फ़िल्म की टेक्निकल टीम से जुड़े लोग भी अपने काम के लिए बहुत गंभीर नजर आ रहे हैं. जिस तरह से फ़िल्म में कैमरा चला है और छोटे छोटे पलों को उसने अपने फ्रेम में कैद किया है वो निर्देशक की काबिलियत दर्शाता है.
इसी तरह जो एडिटिंग की गई है उसमें भी दृश्यों को सहेजा गया है. बात म्यूजिक की हो तो यहां भी हमें कमाल होता दिखाई देता है जो अपने आप में सोने पर सुहागा है.
देख डालिये फ़िल्म
फ़िल्म 'चिंटू का बर्थडे' को देखने या न देखने को लेकर इफ और बट का कोई कांसेप्ट ही नहीं है. फ़िल्म इसलिए भी देखिए क्योंकि इसमें इराक की जटिल परिस्थिति है और उस परिस्थिति के बीच संघर्ष करता विनय पाठक का परिवार है तो वहीं एक तरफ चिंटू की सौम्यता और उसकी मासूमियत है.
फ़िल्म आपको रोके रखेगी और जब आप इसे खत्म करेंगे आपकी पलकें भीगी हुई होंगी और आप ये सोच रहे होंगे कि वाक़ई उनकी ज़िंदगी बहुत मुश्किल होती है जिन लोगों के सामने इस तरह हर रोज़ मौत तमाशा करती है. उन्हें ज़िंदगी के नए नए मंजर दिखाती है.
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