बिंदास और बेबाक है 'वीरे दी वेडिंग'
फिल्म 'वीरे दी वेडिंग' से उन लोगों को परेशानी जरूर हो सकती है जिन्हें लगता है कि लड़कियां फिल्म में गालियां भी देती हैं या सिगरेट-शराब भी पीती हैं. कहानी में अलग-अलग किरदारों के मिज़ाज को इन चीज़ों के जरिये दर्शाया है ना कि स्केंडलाइज करने के लिये.
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चार लड़कियों की दोस्ती और उनकी ज़िंदादिली की कहानी है 'वीरे दी वेडिंग', हिंदी सिनेमा में लड़कों की दोस्ती पर तो कई फिल्में बनी हैं लेकिन लड़कियों की दोस्ती को 'वीरे दी वेडिंग' में बहुत नेचुरल तरीके से पेश किया गया.
4 दोस्तों की बिंदास फिल्म
कहानी चार दोस्तों की हैं कालिन्दी (करीना कपूर), अवनी (सोनम कपूर), मीरा (शिखा तलसानिया) और साक्षी(स्वरा भास्कर). इनके बीच कुछ भी छिपा नहीं है, एक दूसरे के लिये इनकी जिंदगी खुली किताब है, दस साल बाद जब ये चारों दोस्त एक साथ मिलती हैं तो सिर्फ धमाल ही नहीं होता बल्कि एक दूसरे की परेशानियों से भी ये वाक़िफ़ होती हैं. करीना यानी कालिन्दी दो साल से रिलेशनशिप में है और अपने बॉयफ्रेंड से शादी करनेवाली है. वहीं अवनी (सोनम) वकील है और दूसरों के दबाव में आकर शादी करना चाहती है. साक्षी (स्वरा) अपने पति को तलाक देना चाहती है और मीरा (शिखा तलसानिया) ने अपने फिरंगी पति से भाग के शादी की थी, इसलिये वो अपने घर नहीं जाती जबतक उसके पति को अपनाया ना जाये. परेशानियां सबके पास हैं लेकिन इनकी ताकत है इनकी दोस्ती. समाज के प्रेशर को दरकिनार कर ये दोस्त अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीती हैं.
दिल्ली में रहनेवाली हाई सोसाइटी की लड़कियों को बेहद आम तरीके से दिखाया गया है
निधी मेहरा और मेहर सूरी की स्क्रिप्ट बांध कर रखती है, फिल्म की कहानी सरल है और स्क्रीनप्ले दिलचस्प. कई सीन हैं जिनसे आप रिलेट कर सकते हैं, जो आपकी जिंदगी में भी घटे होंगे. क्लाइमेक्स ज़रूर बेहतर हो सकता था, चार दोस्तों के ट्रैक के साथ इंसाफ करने के चक्कर में, फिल्म आखिर में लंबी ज़रूर लगती है लेकिन उसके बावजूद एंटरटेनिंग है.
एक्टिंग के डिपार्टमेंट में सबसे असरदार हैं करीना कपूर, लेकिन सोनम कपूर, शिखा तलसानिया और स्वरा भास्कर भी अपने किरदारों के साथ इंसाफ करती हैं. सुमित व्यास भी करीना के मंगेतर के रोल में फिट बैठते हैं. करीना की होने वाली सास के रोल में आइशा रज़ा लाजवाब हैं.
कॉस्ट्यूम से लेकर फिल्म का संगीत फिल्म की लय के साथ जाता है. सुधाकर रेड्डी की सिनेमेटोग्राफी में फ्रेशनेस है.
लड़कियों की जिंदगी पर फिल्म बनाने के लिये लड़की होना ज़रूरी नहीं है
अब बात केपटन ऑफ दा शिप यानी निर्देशक शशांक घोष की. शशांक की सबसे बड़ी ख़ासियत है उन्होंने दिल्ली में रहनेवाली हाई सोसाइटी की लड़कियों को बेहद आम तरीके से दिखाया है. उनकी परेशानियां भी वैसी हो सकती हैं जो किसी भी आम लड़की की होती हैं और लड़कियों की जिंदगी पर फिल्म बनाने के लिये लड़की होना ज़रूरी नहीं है. उनके मजाक उनकी जिंदगी की उथलपुथल को एक पुरुष निर्देशक भी समझ सकता है.
'वीरे दी वेडिंग' की मुख्य पात्र लड़कियां जरूर हैं लेकिन विषय युनिवर्सल है इसलिये सभी रिलेट कर सकेंगे, बाकी उन लोगों को आपत्ति जरूर हो सकती है जिन्हें लगता है कि लड़कियां फिल्म में गालियां भी देती हैं या सिगरेट-शराब भी पीती हैं. कहानी में अलग-अलग किरदारों के मिज़ाज को इन चीज़ों के जरिये दर्शाया है ना कि स्केंडलाइज करने के लिये. बाकी ऐतराज़ करनेवालों की फिक्र नहीं करनी चाहिये 'कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना'. कुल मिलाकर 'वीरे दी वेडिंग' एक बेबाक और एंटरटेनिंग फिल्म है.
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