साहिर पाकिस्तान से सिर्फ इसलिए लौटे क्योंकि वहां 'हिंदू' नहीं थे...
मुल्क़ बंटकर आज़ाद हुआ. साहिर लाहौर में थे. लेकिन खुश नहीं. यह शहर अब एक नये देश का हिस्सा था. जिसमें विविधता नहीं थी. एक धर्म था. एक मत. एक जैसे सोच विचार के लोग. सबसे बढ़कर यहां हिंदू नहीं थे. उन्हें ऊब हुई. वे लौट आए दिल्ली.
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ऊंचे दरख़्त के साये तले राखी की गोद में लेटे अमिताभ... उनका चेहरा अपनी तरफ झुकाते हैं. बैकग्राउंड में बजता है, तू अब से पहले सितारों में बस रही थी कहीं, तुझे ज़मीं पर उतारा गया है मेरे लिए... एक दूसरे सीन में राखी दुल्हन के जोड़े में घबराहट से थरथरा रही हैं. फिर यही गाना दोहरा रही हैं. अटके हुए टुकड़े को दूल्हे ने पूरा किया... सुहागरात है घूंघट उठा रहा हूं मैं... राजेश खन्ना का दौर जा चुका है. दो जवां जिस्मों के बीच की अंतरंगता को ढकने के लिए फूलों की ज़रूरत नहीं है. लेकिन सब बयां भी नहीं है. बस एक लफ्ज़ 'सुहागरात' ने किस किस को जाने कहां-कहां छुआ होगा? भारतीय गीतों में इतना खुल कर यह लफ्ज़ शायद इससे पहले कभी इस्तेमाल नहीं हुआ. यह उन लफ़्ज़ों का ही जमाल है कि लोग आज भी इस गाने को सुनकर कल्पना लोक में ही सही, अपने मेहबूब से मिल आते होंगे.
जैसा स्वाभाव था कहना गलत नहीं है कि बहुत बोलने वाले अक्खड़ शायर थे साहिर
साहिर लुधियानवी की नज़्में हों या ग़ज़लें या फिल्मी गीत, जो कहा, डंके की चोट पर कहा. और खुद को शीर्ष का 'साहिर' याने शायर मनवा लिया. 1945 में अपना पहला कविता संग्रह 'तल्खियां' छपवाने के लिए लुधियाना से लाहौर आए और आते ही छा गए. मुल्क़ बंटकर आज़ाद हुआ. साहिर लाहौर में थे. लेकिन खुश नहीं. यह शहर अब एक नये देश का हिस्सा था. जिसमें विविधता नहीं थी. एक धर्म था. एक मत. एक जैसे सोच विचार के लोग. सबसे बढ़कर यहां हिंदू नहीं थे. उन्हें ऊब हुई. वे लौट आए दिल्ली.
बंबई की फिल्मी दुनिया धुने लिए हुए उनके लफ़्ज़ों का इंतज़ार कर रही थी. फिर भी वे क़रीब बरस भर रुके रहे. शायद अमृता के लिए... (क्यों.. अमृता की बरसियों और पैदाइशों के मौक़े पर साहिर की आधी जली सिगरेट याद की जाती है. याद किया जाता है किसी बारिश भीगकर बीमार हुए साहिर के माथे पर विक्स मलती अमृता. तो साहिर को याद करते हुए अमृता पीछे क्यों छोड़ दी जाती हैं?)
अधूरापन उनकी जिंदगी का मुक़द्दर था. तल्खियां कुल हासिल.
मेरी दर्दमांदा जावानी की तमन्नाओं के
मुज़महिल ख़्वाब की ताबीर बता दे मुझको
तेरे दामन में गुलिस्तां भी हैं वीराने भी
मेरा हासिल, मेरी तक़दीर बता दे मुझको
1921 में जन्में अब्दुल हई 'साहिर' के पिता की कई पत्नियां थीं. मां ने पति की अय्याशी से तंग आकर तलाक़ ले लिया. साहिर ने अदालत में बाप पर मां को तरजीह दी और बाप की सारी जायदाद से हाथ धो बैठे. फिर शुरू हुआ तंगहाली का सफ़र. जिसने उनकी शायरी में जीवन की निर्ममता, कठोरता को घोल दिया. लगातार मिल रही निराशा ने उन्हें निष्ठुर बनाया. इसी निष्ठुरता में वे कभी अपनी महबूबा को 'मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग' की तर्ज़ पर दो टूक बोल देते हैं-
तुम्हारे गम के सिवा और भी तो गम हैं मुझे
नजात जिनसे मैं इक लम्हा पा नहीं सकता
ये ऊंचे-ऊंचे मकानों की ड्योढ़ियों के तले
हर इक गाम पे भूखे भिख़ारियों की सदा
ये कारखाने में लोहे का शोर गुल जिसमें
है दफ़्न लाखों गरीबों की रूह का नग़मा
यह गम बहुत है मेरी जिंदगी मिटाने को
उदास रह के मेरे दिल को और रंज न दो
तुम्हारे गम के शिव और भी तो गम हैं मुझे
मिज़ाज में पुश्तैनी जमींदारी की अकड़ भी बाक़ी रही. अपने आगे किसी को न समझने का घमंड भी. जो उनकी रचनाओं में सबसे मुखर होकर आती है.
दुनिया ने तजुर्बात ओ हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया, लौटा रहा हूं मैं
निदा फ़ाज़ली अपनी आत्मकथा में और उनके साथ उन्हीं के घर में कई साल रहने वाले प्रकाश पंडित कहते हैं, साहिर को हमेशा अपने इर्द गिर्द श्रोता चाहिए होते हैं. ताकि जब वे अपनी 'तल्खियों" की, फ़िल्मी गीतों की, देश विदेश में मिली प्रसिद्धि का गुणगान करें, वे उन्हें सुनें. वो सामने बैठे दोस्तों की कम अक्ली का मज़ाक़ उड़ाएं. उन्हें नीचा दिखाएं. तंज़ के तीर छोड़े तो सब हां में हां मिलाए. बदले में शराब पिये. खाना खाएं. क़याम करें या चले जाएं.
कौन यक़ीन करेगा, दो बार फ़िल्म फेयर एक बार पद्मश्री से सम्मानित शायर- गीतकार सोकर उठने के बाद मर्ज़ी से एक दो घंटे खामोश रहता है. फिर जब बोलना शुरू करता है तो देर रात तक बोलता ही रहता है. इसे सनक कहिये या ठसक- उनकी कोशिशों से ही मुमकिन हुआ कि आकाशवाणी पर गानों के प्रसारण के समय गायक तथा संगीतकार के साथ गीतकारों का भी उल्लेख किया जाए.
इससे पहले तक सिर्फ गायक-संगीतकार का ही नाम होता था. गीतकार के तौर पर रॉयल्टी लेने वाले वह पहले गीतकार भी हैं. गरीबी में बचपन जीने वाले साहिर के पास एक वक़्त बाद कई गाड़ियां थीं. बंगले भी. कैफ़ी आज़मी को लगता रहा कहीं साहिर लिखना छोड़ कर डायरेक्टर या प्रोड्यूसर न बन जाए. उन्होंने बहुत पैसा कमाया लेकिन मुहब्बत के मामले में गरीब ही रहे.
अमृता प्रीतम के बाद सुधा मल्होत्रा उनकी जिंदगी में आईं. दो प्रेमिकाओं के होते हुए, मुहब्बत पर बेशुमार नज़्मे, ग़ज़लें, गीत लिखने के बावजूद मुहब्बत ही से महरूम रहे.
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
कि जिंदगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छांव में
गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
यह तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी
मगर यह हो न सका और अब ये आलम है
कि तू नही तेरा गम तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह जिंदगी जैसे
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं
न कोई रास्ता, न मंज़िल, ना रोशनी का सुराग़
भटक रही है इन्हीं खलाओं में जिंदगी मेरी
इन्हीं खलाओं में रही जाऊंगा कभी खोकर
मैं जानता हूं मेरी हमनफ़स मगर यूं ही
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
युद्ध के लिए रोमांचित होने वाले लोगों को उनकी नज़्म ' ए शरीफ़ इंसानों ' पढ़नी चाहिए. खूब बोलते हुए भी कौन जाने साहिर क्या वह कह पाए जो उन्हें कहना था. या लफ़्ज़ों की अदाकारी से ज़ख़्म को दिल में छुपाते छुपाते दिल इतना थक गया कि आज ही के रोज़ 1980 को धड़कने से इंकार कर बैठा. अज़ीज़ साहिर, नग़मा निगार! तुम पल दो पल के शायर नहीं थे. हम तुम्हें आज भी याद करते हैं. बार बार करते हैं.
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