इगास-बग्वाल: उत्तराखंड का लोकपर्व जो दिवाली के 11 दिन बाद मनाया जाता है!
उत्तराखंड के लोकपर्व इगास-बग्वाल को लेकर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने राजकीय अवकाश की घोषणा की है. यह दूसरा मौक़ा होगा जब उत्तराखंड के इस लोकपर्व को लेकर सरकारी अवकाश घोषित किया गया है. यह लोकपर्व दीपावली से 11 दिन बाद मनाया जाता है. इसे बूढ़ी दीवाली भी कहा जाता है. आइए इसके पीछे की मान्यता को जानते हैं.
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इगास-बग्वाल उत्तराखंड का लोकपर्व है. इस दिन सूबे के सीएम पुष्कर सिंह धामी ने राजकीय अवकाश की घोषणा की है. यह दूसरा मौक़ा होगा जब इस लोकपर्व को लेकर सरकारी अवकाश घोषित किया गया है. पिछले साल धामी ने ही इस अवकाश का ऐलान किया था. इगास-बग्वाल इस पहाड़ी राज्य में बहुत लोकप्रिय है. इसे दिवाली के 11वें दिन बहुत धूमधाम से मनाया जाता है. इसे बूढ़ी दीवाली भी कहा जाता है. इसके पीछे कई मान्यताएं हैं, जिनमें दो प्रमुख हैं.
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस लोकपर्व के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि इगास-बग्वाल उत्तराखंड वासियों के लिए एक विशेष स्थान रखती है. यह हमारी लोक संस्कृति का प्रतीक है. अपनी सांस्कृतिक विरासत और परंपरा को जीवित रखने के लिए हम सबको प्रयास करने होंगे, ताकि नई पीढ़ी हमारी लोक संस्कृति और पारंपरिक त्योहारों से जुड़ी रहे. ये हमारा उद्देश्य है. मुख्यमंत्री धामी का ये पहल और उनकी बातें इस त्योहार की अहमियत को दर्शाने के लिए काफी हैं.
मुख्यमंत्री धामी ने इस बाबत ट्वीट करके लिखा, "आवा! हम सब्बि मिलके इगास मनोला नई पीढ़ी ते अपणी लोक संस्कृति से जुड़ोला. लोकपर्व 'इगास' हमारु लोक संस्कृति कु प्रतीक च. ये पर्व तें और खास बनोण का वास्ता ये दिन हमारा राज्य मा छुट्टी रालि, ताकि हम सब्बि ये त्योहार तै अपणा कुटुंब, गौं मा धूमधाम से मने सको. हमारि नई पीढ़ी भी हमारा पारंपरिक त्योहारों से जुणि रौ, यु हमारु उद्देश्य च."
इगास बग्वाल का पर्व दीपावली से 11 दिन बाद मनाया जाता है. इसे बूढ़ी दीवाली भी कहा जाता है. इसके मनाने के पीछे दो मान्यताएं हैं. पहली ये कि श्रीराम जब अयोध्या पहुंचे तो लोगों ने दीपावली के रूप में दिए जलाकर प्रकाश पर्व मनाया, लेकिन पहाड़ के दुर्गम इलाकों में संसाधन ना होने के कारण यह सूचना 11 दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मिली. इस कारण यह प्रकाश पर्व 11 दिन बाद इगास-बग्वाल के रूप में यहां मनाया जाता है.
इसे मनाने के पीछे दूसरी वजह शौर्य और बलिदान को समर्पित है. कहा जाता है कि जब वीर माधो सिंह भंडारी की सेना दुश्मनों को परास्त कर दीपावली के 11 दिन बाद वापस लौटी तो स्थानीय जनता द्वारा प्रकाश पर्व मना उनके शौर्य और बलिदान की सराहना और सम्मान दिया गया. पहाड़ के इस अनोखे लोकपर्व को मनाने का तरीका भी अनोखा है. सिर्फ दीपक नहीं भैलो खेलकर, पारंपरिक लोक नृत्य चांचडी कर और झुमैलो का नृत्य भैलो से भैलो, चल खेली ओला जैसे लोकगीतों पर नृत्य करके इस अनोखे पर्व को मनाया जाता है.
तिल, हिसर और चीड़ की सूखी लकड़ी के छोटे-छोटे गट्ठर बनाकर उन्हें विशेष रस्सी से बांधकर भैलो को तैयार किया जाता है. बग्वाल के दिन पूजा अर्चना कर भैलो का तिलक किया जाता है. इसके बाद सभी ग्रामीण एक जगह इकट्ठा होकर भैलो खेलते हैं. इसको खेलने का तरीका भी बड़ा आकर्षक है. भैलो पर आग लगाकर इसे चारों और घुमाया जाता है. इतना ही नहीं इस दौरान विभिन्न तरह के आकर्षक करतब भी दिखाए जाते हैं.
लोकपर्व किसी भी संस्कृति का आधार स्तम्भ होते हैं, जिस तरह से पिछले कुछ वर्ष में यह त्योहार पहाड़ ही नहीं उत्तराखंड के मैदानी इलाकों में भी धूम-धाम और जन भावनाओं के साथ मनाया जा रहा है. उससे पहाड़ की संस्कृति और पहाड़ की सभ्यता का प्रचार प्रसार हर तरफ हो रहा है. इससे विभिन्न प्रदेशों और देशों से अनेक लोग यह त्योहार मनाने उत्तराखंड पहुंच रहे हैं. इस तरह उत्तराखंड की संस्कृति और सम्मान में बढ़ोतरी जारी है.
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