ग़ालिब का दिल्ली कनेक्शन, और वो मिर्जा क्यों हैं...
हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया पर याद आता है, वो हर एक बात पर कहना के यूँ होता तो क्या होता...
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मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खां उर्फ 'ग़ालिब'. शायद ही कोई होगा जिसने इस नाम को न सुना हो. फिर चाहे आप प्यार में हों या फिर उर्दू और कविताओं के प्रेमी हों. ग़ालिब दिल के धड़कन की तरह हैं. उनके बिना न प्यार का इजहार पूरा हो सकता है न ही कोई कविता. दोहें हों या फिर गजल, ग़ालिब ने कविता की पूरी पहचान ही बदल दी.
27 दिसम्बर 1797 को मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खां का जन्म हुआ था. उत्तर प्रदेश के आगरा में जन्में मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खां ही बाद में 'ग़ालिब' (विजेता) और असद (शेर) के नाम से मशहूर हुए. ग़ालिब उज़बेकिस्तान से आए तुर्कों के वंश से थे. मिर्ज़ा अबदुल्लाह बेग खां और इज़्जत-उत-निसा बेगम के घर जन्में ग़ालिब ने 5 साल की उम्र में अपने पिता को खो दिया था. इसके बाद ग़ालिब का लालन-पालन उनके चाचा ने किया था. उन्होंने पारसी, उर्दू और अरबी में शिक्षा पाई.
हर इक बात पे कहते हो कि तू क्या है?
तेरह साल की उम्र में ग़ालिब अपनी पत्नी उमरांव बेगम और भाई मिर्ज़ा युसूफ खान के साथ दिल्ली आ गए. ग़ालिब की शादी बहुत ही कम उम्र में हो गई थी और उनके साथ बच्चे भी थे. लेकिन उनका एक भी बच्चा बच नहीं पाया. ग़ालिब की शायरी अपने दुख और संताप की झलक भी साफ दिखती है.
दिल्ली में रहने वाले लोग बल्लिमारान की गलियों में स्थित ग़ालिब की हवेली को देखने जाते हैं, जहां 15 फरवरी 1869 को ग़ालिब ने आखिर सांस ली थी. सरकार ने उनकी हवेली को हेरिटेज साइट घोषित कर दिया है जहां उनकी कृतियां आज भी मिल जाती हैं.
मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर द्वितीय ने मिर्ज़ा ग़ालिब को दबिर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला की उपाधियों से नवाज़ा. बहादुर शाह ने उन्हें 'मिर्ज़ा नोशा' की उपाधि भी दी थी, जिस कारण ग़ालिब, खुद के नाम के पहले मिर्ज़ा लगाते थे. साथ ही ग़ालिब ने बहादुर शाह के बेटे फक्र-उद दिन मिर्जा को पढ़ाया भी.
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