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Updated: 04 अप्रिल, 2016 07:16 PM
शिवानन्द द्विवेदी
शिवानन्द द्विवेदी
  @shiva.sahar
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गत 3 अप्रैल को हिंदी भाषा के बिगड़ते स्वरूप एवं बोल-चाल से लिखने तक में तेजी से आयात हो रहे अंग्रेजी शब्दों की चिंता को लेकर विदेश मंत्रालय और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में लम्बा विमर्श हुआ. भाषा को लेकर माखनलाल विवि द्वारा एक शोध-पत्र जारी किया गया. इसमें सात-आठ हिंदी भाषा के समाचार-पत्रों के अध्ययन के आधार पर उनमें इस्तेमाल होने वाले अंग्रेजी के शब्दों को पांच श्रेणियों में रखा गया था. पहली श्रेणी में वे शब्द जिनका हिंदी में कोई विकल्प नही है. दूसरे वे शब्द जिनका हिंदी में मुश्किल विकल्प है. तीसरी वह श्रेणी थी जिसमें अंग्रेजी के शब्द चलाऊं थे. चौथी और पांचवी श्रेणी में अंग्रेजी के उन शब्दों को रखा गया जिनके हिंदी में आसान और सहज विकल्प होने के बावजूद भी समाचार-पत्र उनका अंग्रेजी शब्द प्रयोग कर रहे हैं.

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शोध में यह कहा गया कि ऐसे लगभग 15,737 अंग्रेजी के शब्द इन सात-आठ हिंदी के समाचार-पत्रों से खोजकर निकाले गये हैं. हालांकि जिन सात-आठ समाचार-पत्रों के आधार पर यह खोज की गयी है उनमे दिल्ली से प्रकाशित होने वाले एक बड़े समाचार-पत्र को नही रखा गया है, वर्ना यह संख्या लगभग तीस हजार के पार होती. बिना नाम बताये भी आप उस समाचार-पत्र को जान गये होंगे. इस कार्यक्रम में खुद विदेश-मंत्री सुषमा स्वराज शामिल हुई और हर अध्ययन को बारीकी से देखा. इस आयोजन के बाद तमाम संपादकों के साथ विदेश-मंत्री ने बैठक भी की. कोई शक नही कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की यह चिंता सराहनीय है.

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खैर, भाषा पर अपना कुछ ज्यादा अध्ययन नही रहा है. पिछले चार साल में मात्र बीस-पचीस लेख लिखा होगा और चार-छह साक्षत्कार किए होंगे. लेकिन मेरा यह दृढ विश्वास है कि बेहद घातक होते इस मर्ज का इलाज संपादकों के पास नही हैं और यह समाचार-पत्रों तथा चैनलों की समस्या भी नही है. यह एक कल्पना है कि समाचार-पत्र ही हिंदी भाषा को खराब कर रहे हैं. मेरा स्पष्ट मानना है कि अगर वाकई वे ऐसा कर रहे हैं तो आगे भी करते रहेंगे. यकीन नहीं हो तो कल की उस गोल-मेज बैठक में शामिल सम्पादकों वाले संस्थानों की आज और आज से दस दिन बाद तक नियमित निगरानी करके एक शोध-पत्र बनाइए. इस बैठक का अगर पांच फीसद भी प्रभाव दिख जाये तो बताइयेगा.

सीधी सी बात है भाषा टीवी या समाचार-पत्रों की समस्या नही है तो भला वे समाधान की चिंता क्यों करेंगे? आपने बुलाया, वे आ गये, सुन लिया और धन्यवाद भी दे दिया. यह समस्या, आयात-निर्यात की है. आयात-निर्यात का धंधा आप किनके साथ कर रहे हैं, इसपर सोचना होगा. जिन्हें हिंदी का ज्ञान है वे इतना जरुर जानते होंगे कि हिंदी के पास 'अपना' मूल शब्द कोई नही है. सभी शब्द लगभग 49 की 49 भारतीय भाषाओं (बोलियों भी कहा जाता है) से आये हैं, जो कालान्तर में परिष्कृत एवं परिमार्जित किये गये हैं.

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हिंदी को सर्वाधिक शब्द दिल्ली से सटे अथवा समाजिक तौर पर सर्वाधिक नजदीक से जुड़े प्रदेशों, जिन्हें 'हिंदी-बेल्ट' कहा जाता है, से ही मिले हैं. मसलन उत्तर-प्रदेश, राजस्थान, बिहार, हरियाणा, पंजाब आदि से. इन राज्यों में जो तमाम भाषाएं बोली जाती हैं, उन्हीं से आयात करके हिंदी का निर्माण पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों में हुआ है. लेकिन दुविधा देखिये कि जिन-जिन भाषाओं से हिंदी ने सर्वाधिक शब्द लिया उन भाषाओं को बोली बताते हुए संविधान में जगह नही दी गयी.

राजस्थानी, भोजपुरी, हरियाणवी, ब्रज, अवधि अथवा और भी तमाम हैं. पंजाबी एक अपवाद है लेकिन गौर करिए कि पंजाबी से जो भी शब्द लिए गये हैं उन शब्दों का प्रयोग आज भी होता है. उनकी जगह पर बेवजह अंग्रेजी का प्रयोग नही होता है. अंग्रेजी सिर्फ उन शब्दों को हिंदी में मार रही है जिन शब्दों वाली भाषाओं को भारत के संविधान में जगह नही दी गयी है. चूंकि संविधान में जगह न मिलने की वजह से उनका संवैधानिक अस्तित्व शून्य है ही, और समाजिक आयात-निर्यात में आत्मबल का अभाव भी है.

हिंदी में आज जो अंग्रेजियत बढ़ रही है, इसकी वजह सिर्फ यही है कि हमने हिंदी के शब्द-स्त्रोतों को ही बंद कर दिया है. पहले तो यह स्वीकारना होगा कि हिंदी के पास अपना कोई मूल शब्द नही है. उसे हमेशा शब्द लेना पड़ा है. आयातित शब्द ही आज उसके मूल शब्द हैं. अब अगर आप हिंदी को उन भारतीय भाषाओं से ही दूर करेंगे तो उसके पास अंग्रेजी से शब्द लेने के अलावा और क्या विकल्प बचेगा? बिगड़ती भाषाओं की समस्या का समाधान सम्पादकों के पास नही है. अगर कोई यह समझ रहा है कि हमारी भाषा को यह समाचार-चैनल अथवा समाचार-पत्र खराब कर रहे हैं, तो उसको अपने शोध को दुबारा देखने की जरुरत है.

इस समस्या के मूल में जाइए तो मर्ज कुछ और है. यकीन नहीं हो तो किसी भोजपुरिया या राजस्थानी भाषा के व्यक्ति से उसकी अपनी भाषा में बात करके देखिये कि वो कितने अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग कर रहा है? फिर उसी से हिंदी में बात करके देखिये वो कितने अंग्रेजी के शब्द प्रयोग कर रहा है? अंतर यही निकलकर आएगा कि अपनी मूल भाषा में वो कम से कम या न के बराबर अंग्रेजी प्रयोग करेगा जबकि वही शख्स हिंदी में बात करते समय गैर-जरुरी अंग्रेजी का प्रयोग भी खूब करेगा.

लेखक

शिवानन्द द्विवेदी शिवानन्द द्विवेदी @shiva.sahar

लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउन्डेशन में रिसर्च फेलो हैं एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम के संपादक हैं.

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