आर्थिक मंदी से निपटने के लिए अब मोदी सरकार को अलर्ट मोड में आ जाना चाहिए…
एक अख़बार की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी ने कंपनियों को सोचने पर मजबूर कर दिया है. इन कंपनियों ने अपने अधिकारियों को ये कहा है कि वे खर्चे में कटौती करें.
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क्या भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी का असर आने लगा है? क्या भारतीय कॉरपोरेट घराने और कंपनियां इसके असर से अछूते अब नहीं रह गए हैं? अगर हाल-फ़िलहाल के दिनों में, खास तौर पर बिज़नेस अखबारों की रिपोर्ट पढ़ें तो बिल्कुल साफ हो जाएगा कि भारतीय कंपनियां इस मंदी से निपटने के लिए कई तरह के उपाय इस्तेमाल में लाने लगी हैं. एक ताज़ा अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी ने कंपनियों को सोचने पर मजबूर कर दिया है. इन कंपनियों ने अपने अधिकारियों को ये कहा है कि वे खर्चे में कटौती करें. हालांकि, उस रिपोर्ट के अनुसार कर्मचारियों की भर्ती पर कोई रोक तो नहीं लगी है, फिर भी केवल रिप्लेसमेंट के तौर पर भर्तियां हो रही हैं. स्थिति तो गंभीर है, लेकिन साथ ही साथ इस रिपोर्ट में बताया गया है कि उन कंपनियों का मानना है कि इस मंदी से वे जल्द ही पार हो जायेंगे.
हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक के गर्वनर शक्तिकांत दास ने दिल्ली में एक किताब के विमोचन के मौके पर भारतीय अर्थव्यवस्था की चुनौतियों पर अपना पक्ष रक्षा था. उन्होंने कहा था कि वर्तमान में वैश्विक अर्थव्यवस्था लगातार तनावपूर्ण व्यापारिक वार्ता के वातावरण में अनिश्चितता की ओर जा रही है. यही कारण है कि कुछ मसलों का समाधान निकालना कठिन होता जा रहा है. उनके इस पूर्वानुमान या कहें कि इस लक्षण के पीछे कई तथ्य सोचने पर मजबूर करते हैं. कुछ दिन पहले ही अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) ने भारत की वृद्धि दर का अनुमान घटाया है. आईएमएफ की रिपोर्ट के अनुसार 2019 में भारत की वृद्धि दर सात प्रतिशत और 2020 में 7.2 प्रतिशत रहेगी. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में घेरलू मांग कम रह सकती है और इसलिए विकास दर अनुमान में कमी की गयी है.
एक ताज़ा अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी ने कंपनियों को सोचने पर मजबूर कर दिया है.
पिछले साल तो विकास दर घटकर 6.8 फीसदी ही रह गई. इस लिहाज से देखें तो दुनिया की सबसे तेज इकोनॉमी के रूप में बढ़ने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था अपने पांच साल के निचले स्तर पर आ गई है. साथ ही वित्त वर्ष 2018-19 की चौथी तिमाही में विकास दर गिरकर 5.8 फीसदी पर आ गई है. लोकसभा चुनाव में बीजेपी का भारी बहुमत से जीतने के बाद और फिर से नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सेंसेक्स जून में 40 हज़ार का आंकड़ा पार कर गया था, लेकिन अब इसमें करीब 2500 अंकों की गिरावट देखने को मिली है. इस बजट के बाद तो निवेशकों के विश्वास में कमी आई है. नए टैक्स और टैरिफ के कारण विदेशी निवेशक अब दूर जाते दिख रहे हैं. साथ ही साथ पहले से चले आ रहे घरेलू निवेश में मंदी को दूर करने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है. सबसे बड़ी बात ये है कि अभी तक जो हमारी अर्थव्यवस्था के लिए इंजन के रूप में काम कर रही थी, डिमांड यानी मांग अब घट रही है. उदहारण के तौर में ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री में देखें तो गाड़ियों की बिक्री में गिरावट देखने को मिली है.
पूरे विश्व में अर्थव्यवस्था की दशा बहुत ही ख़राब दौर से गुजर रही है. भारत अब बिल्कुल भी उससे अछूता नहीं है. जरूरत है तात्कालिक एक्शन लेने की. इस अनिश्चित माहौल से निपटने के लिए स्थिरता और कड़े सुधारों की जरूरत है. इस बजट में तथाकथित सुपर रिच टैक्स लगाने के निर्णय ने कुछ स्थिर विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों जैसे पेंशन फंड को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है.
देश में कई सेक्टर जैसे ऑटोमोबाइल, हाउसिंग, फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स (एफएमसीजी ) में गिरावट देखने को मिल रही है. बेरोजगारी उच्चतम स्तर पर है, नौकरियों में कमी आई है. विदेशी निवेश में कमी आई है. मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर और उपभोक्ता बाज़ार में सुस्ती भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए चिंताजनक. मोदी सरकार के लिए अब संकट के बादल मंडराने लगे हैं. डिमांड में कमी के साथ-साथ भारतीय कंपनियों की उदासीनता आने वाले दिनों में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही हानिकारक सिद्ध हो सकती है. कई का तो मानना है कि जो वैश्विक मंदी की आहट दिख रही है वो 2008 जैसी तबाही ना ला दे.
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