इश्क़ इसलिए कि Kiss और Hug मिलता रहे, शादी तो मां बाप की मर्जी से ही करनी है...
अब मुहब्बत में कौन भला चांद तारे तोड़ता है? मजनू,रोमियो, फरहाद बनता है. आधों को तो मुहब्बत इसलिए करनी होती है कि किस और हग मिलती रहे बाद में वो शादी तो मां बाप की मर्जी से हो ही जाएगी.
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हफ्ता-ए-मुहब्बत के मद्देनजर सब कुछ तो हो गया. मतलब रेड रोज़ भी दे दिए. प्रोपोज़ वाली रस्म भी निभा ली गई. चॉकलेट खिलाकर इश्क़ में मिठास भी घोल दी. जानू को क्यूट सा टेडी भेजकर दिलबर की तरफ़ से ये मैसेज भी दे दिया गया कि इश्क़ हर पल उसके करीब रहेगा. वैलेंटाइन वीक के कई अहम दिन बीत चुके हैं मगर बिना 12 फरवरी और 13 फरवरी के जिक्र के तमाम बातें अधूरी रहेंगी. मुहब्बतों के हफ़्ते में ये दो दिन किस डे और हग डे के रूप में अपनी पहचान रखते हैं. भले ही ये दो दिन किस और हग को समर्पित हों लेकिन वो बिरादरी जो सच्ची मुहब्बत की गिरफ्त में होती है उनके लिए ये दिन कोई हव्वा नहीं बल्कि एक आम दिन होता है. वहीं जिनकी मुहब्बत सिर्फ शारीरिक सुख के लिए होती है उनके लिए क्या मंडे क्या संडे और क्या वैलेंटाइन डे उन्होंने मुहब्बत की ही इसलिए है कि उनकी फिजिकल नीड्स पूरी होती रहें. इस बिरादरी का एजेंडा एकदम क्लियर है. इन्हें दुनिया की परवाह नहीं. दुनिया का क्या है? दुनिया का तो काम ही बात करना है. दुनिया जाए तेल लेने.
अब के ज़माने में इश्क़ और मुहब्बत सिर्फ दिखावे की चीज है
OTT के इस दौर में जब एंटरटेनमेंट के नाम पर धड़ल्ले से सेक्स परोसा जा रहा हो और लोग भी पूरे मजे से उसे देख रहे हों. पूरी ईमानदारी से बताइये क्या कोई है दुनिया में ऐसा जो निष्काम प्रेम करता हो? आप कितना भी क्यों न छिपा लें मगर आप भी सच्चाई से उतना ही वाकिफ हैं जितना कि हम.
मौजूदा वक्त में मुहब्बत का मयार कैसा है? एक उदाहरण से समझिए. याद करिये 1978 में आई राजकपूर की वो फ़िल्म 'सत्यम शिवम सुंदरम.' फ़िल्म में भले ही प्रेम पर बल दिया गया हो लेकिन उस फिल्म में भी निष्काम प्रेम के कॉन्सेप्ट को खारिज कर सारा फोकस सुंदरता पर ही रखा गया.
याद है न कि कैसे उस फ़िल्म में शशि कपूर तब दीवाने हो जाते थे जब रोज सुबह वो फ़िल्म की नायिका ज़ीनत अमान की आवाज़ सुनते थे मगर जब फ़िल्म में शशि ने अपनी प्रेमिका या ये कहें कि सपनों की रानी का असली रूप देखा तो सारा इश्क़ काफूर हो गया.
बात थोड़ी अटपटी ज़रूर है. मगर सच्चाई यही है कि मौजूदा वक्त में इश्क़ का पैमाना पहले हग फिर किस और बाद में 'ज़रुरत' है. और हां जैसा माहौल है इश्क़ के मद्देनजर निष्काम प्रेम के कॉन्सेप्ट में गहरा विरोधाभास है. एक ऐसे समय में जब हमारे पास फेसबुक, व्हाट्सएप, टिंडर, इंस्टाग्राम जैसी चीजें हों और हम उनका भरपूर इस्तेमाल कर रहे हों विरले ही होंगे वो आशिक और माशूका जिनका इश्क़ टेक्नोलॉजी के इस दौर में टेलीपैथी पर चलता होगा.
देखिये साहब ज़माना बहुत बदल चुका है. अब न तो मुहब्बत में कोई चांद तारे तोड़ता है न ही किसी के पास मजनू, रोमियो,फरहाद बनने का वक़्त है. आदमी गर्ल फ्रेंड बना रहा है और एक साथ कई बना रहा है और अपनी 'ज़रूरतें'पूरी कर रहा है.
आहत होने की कोई ज़रूरत नहीं है लेकिन एक बड़ी आबादी ऐसी है जिसे इश्क़ के नाम पर सिर्फ किस और हग से मतलब है. जानते तो ये भी हैं कि आज नहीं तो कल. कल नहीं तो परसों इन लोगों की शादी मम्मी डैडी की पसंद से हो जाएगी. फिर वही दफ्तर, रोजाना की शॉपिंग, बच्चों की फीस, अस्पताल, चूल्हा चौका और रोजाना की जिम्मेदारियां. इश्क़ फ़साना है साहब कहने बताने में बहुत अच्छा मगर जब बात निभाने की आती है तो बड़े से बड़े तुर्रम खां ढीले पड़ जाते हैं और हाथ पैर ठंडे कर लेते हैं.
कुल मिलाकर इक्कीसवीं सदी में इश्क़ होना चार दिन का चोचला है बाकि शाहरुख खान ने तो अपने गाने के जरिये पहले ही बता दिया है दो पल की थी दिलों की दास्तां फिर हम कहां तुम कहां ?
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