एक खत 2000 रु. के नोट के नाम : 'बेटा, टिके रहना!'
नोटबंदी हुए आज एक साल हो गए हैं, और 2000 के नोट को भी एक साल हो गया है. ऐसे में एक बाप ने अपने बेटे को खत लिखा है. वो खत जो न सिर्फ बेटे को बल्कि पूरे समाज को कुछ बातें सोचने पर मजबूर कर देगा.
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मेरे प्यारे दुई हजारू
आज तुम पूरे एक बरस के हुए. तुम्हारे जन्म की खुशी तो बहुत थी पर उस समय हालात कुछ ऐसे बन गए थे कि मैं तुम्हें ठीक से किस्सू भी न कर सका. ये अलग बात है कि तुम पिंक अवतार में और मरघिल्ले-से पैदा हुए थे. तुम्हें ठीक से थामने में डर भी लगता था कि कहीं मेरे खुरदुरे हाथ तुम्हारी नाजुक, गुलाबी त्वचा को नुकसान न पहुंचा दें. उस पर कुछ असामाजिक तत्त्वों ने रायते की तरह यह अफवाह भी फैला दी थी कि तुम कैमरा लेकर पैदा हुए हो. मुझे तो cctv के सामने खाना खाने में भी डर लगता है.
मैं तुम्हें कंगारू की तरह सीने से लगाए रखता, निहारता, पुचकारता पर कहीं दे ही न पाता था क्योंकि तुम्हारे जन्म के वक्त हमारी इस नन्ही-सी बगिया के दो मासूम फूल पंसू और हजरू शहीद हो गए थे. सो, हम समझ ही न पाते थे कि उनके गम में छाती कूटें या तुम्हारी खुशी में राग मल्हार गाएं. हम ही नहीं बचुआ, पूरा देश ही कन्फ्युजियाता रहा. आह! कैसा मिश्रित माहौल था. कोई अमीर दहाड़ें मार रो रहा था, कोई गरीब चादर खींच चैन से अब भी सो रहा था. संवेदनाओं की खिचड़ीनुमा ऐसी सामूहिक अभिव्यक्ति, कभी न हुई थी.
और इस तरह ग़म और खुशी के बीच आज 2000 के नोट का पहला जन्मदिन हैं
यह पहली बार था कि खिलखिलाती धूप और बेतहाशा बारिश के बीच कहीं किसी उम्मीद का इंद्रधनुष जन्म ले रहा था. इतिहास की यह पहली घटना थी, जहां बड़े बच्चे का जन्म बाद में हुआ था. तुम्हारी प्रतिष्ठा और पद पर कोई आंच न आए, यही सोच पंसू और हजरू ने अपने अनमोल जीवन का त्याग कर दिया था. ईश्वर की असीम अनुकम्पा से पंसू का पुनर्जन्म हुआ और अब एक बार फिर वो तुम्हारा अनुज बन किलकारियों से घर रौशन कर रहा है. पर हजारू की सोच अब भी आंखें भीग जातीं हैं. उसपे जग्गू भैया का यह गीत बारम्बार दिल के माहौल को सावन बना जाता है, "चिट्ठी न कोई संदेस, जाने वो कौन सा देश जहां तुम चले गए.'
पता है, इन दोनों के चले जाने के बाद मैं एकदमै तनहा हो गया था. घर सायं-सायं कर खाने को दौड़ता. मैं तकिये, गद्दे, उलटे घड़े और अलमारी में बिछे अखबारों की तहों में अपने नाती-पोतों दस्सू, बिस्सू को ढूंढता और एक नजर पड़ते ही चीख मारकर गले लगा लेता. उस समय ये कहावत बड़ी याद आती कि 'कोई भी इंसान छोटा नहीं होता'. तुम्हें कैसे बताऊँ, उन दिनों यही हमारे माई-बाप थे.
चाहे अमीर हो या गरीब गुजरे वर्ष नोटबंदी ने सबको खून के आंसू रुलाया था
तुम्हें कहां याद होगा कि तुम जब आये तो क्रांति भी तुम्हारे साथ ही चली आई थी. सड़कों पर मारामारी थी, गृहिणियों की तमाम पंचवर्षीय योजनाओं का ग्लेशियर पिघल चुका था, कुछ पुरुष सकते में थे तो कुछ अभिनंदन, आभार की मुद्रा में आसमान की ओर मुंह करके वीभत्स अट्टहास करते दिखाई दे रहे थे. बेईमानों का भट्टा बैठ गया था पर सामने-सामने वो भी हंसने की ओवरएक्टिंग करते. कसम से, बहुत परेशानी थी भई! पर इस सबके बीच अगर कोई बात कॉमन थी, तो वो थी तुम्हारे दिव्य दर्शन की ललक.
रोज टीवी पर एक आदमी आता और ढांढस बंधा चले जाता. वो चाहे कुछ भी बोलता पर अपने अमित के जबर फैन होने के कारण मुझे बस ये तीन ही शब्द सुनाई देते... रतिष्ठा, परम्परा, अनुशासन, और मैं पूरी निष्ठा से मन मसोसकर नतमस्तक रह जाता. खैर,बहुत किस्से हैं, तुम्हारे जन्म से जुड़े हुए. थोड़ी लिखा, बहुत समझना और अपना ख्याल रखना. क्या कहूं, अब तो ये कांपते हुए हाथ बस एक ही दुआ को उठते हैं बेटा, टिके रहना. हैप्पी वाला बड्डे मुन्ना.
आशीष
तोहार पप्पा
रुपैया
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