'काले कोट' को लेकर SC आई याचिका ने डॉक्टर्स, टीचर्स पुलिस को बगावत की हरी झंडी दिखा दी है!
गर्मी में काले कोट से राहत मिले इसलिए एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में डाली गयी है. वकीलों के बाद कल पुलिस वाले वर्दी के लिए, शिक्षक फॉर्मल के लिए और डॉक्टर एप्रन के लिए यदि याचिका डाल दें तो काहे की हैरत। खुलकर जीने का अधिकार तो सबको है.
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कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कहीं ज़मीन कहीं आसमां नहीं मिलता
तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहां उम्मीद हो इस की वहां नहीं मिलता
कहां चराग़ जलाएं कहां गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकां नहीं मिलता
पंक्तियां मशहूर शायर निदा फाजली ने लिखी हैं और जैसा कि लास्ट में हम देख रहे हैं मुकम्मल जहां के बाद उन्हें चराग जलाने, गुलाब रखने के लिए मकां नहीं मिल रहा है. मिल तो वकीलों को गर्मी से निजात भी नहीं रही है. मगर क्या कीजियेगा? आदमी जी ही रहा है. लेकिन क्या वो हर बार हालात के आगे घुटने टेक देगा ? क्या वो हर बार घुट घुट के जी सकेगा? जवाब है नहीं. बात क्योंकि वकीलों को लगने वाली गर्मी से शुरू हुई है तो सबसे पहले इससे मिलती जुलती एक खबर सुन ली जाए. मैटर ये है कि देश की सुप्रीम कोर्ट में एक पीआईएल दायर की गई है. याचिका में देश भर के हाई कोर्ट्स में वकीलों को गर्मियों के दौरान काला कोट और गाउन पहनने से छूट देने की मांग की गई है.
सुप्रीम कोर्ट में काले कोट को लेकर जो याचिका आई है उसपर सुनवाई जरूर होनी चाहिए
मामले में दिलचस्प ये है कि याचिका में राज्य विधिज्ञ परिषदों को यह निर्देश देने का अनुरोध किया गया है कि वे नियमों में संशोधन करें और वह समयावधि निर्धारित करें, जब वकीलों को काला कोट और गाउन पहनने से छूट रहेगी. बात सुप्रीम कोर्ट पहुंची इस पीआईएल की हो तो इसमें कहा गया कि इस अवधि का निर्धारण उस राज्य विशेष में इस तथ्य से हो सकता है कि गर्मी वहां कब सबसे ज्यादा पड़ती है.
बताते चलें कि इस याचिका को एक वकील शैलेंद्र मणि त्रिपाठी द्वारा दायर किया गया है. याचिका में कहा गया कि भीषण गर्मी में कोट पहनकर एक अदालत से दूसरी अदालत जाना वकीलों के लिए काफी मुश्किल भरा होता है.
वकील यूं ही नहीं पहनते काला कोट!
हो सकता है काले कोट वाले वकीलों को देखकर अपना कोई भाई बंधू ये सोच बैठे कि वकीलों द्वारा चौपाल में भौकाल के लिए काला कोट डाला जाता है तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. इसके लिए हमें अधिवक्ता अधिनियम, 1961 को समझना पड़ेगा. भारतीय विधिज्ञ परिषद के कुछ नियम कानून हैं और उसी में ड्रेस कोड का जिक्र है. ध्यान रहे कि वकीलों के लिए सफेद शर्ट, काला कोट और सफेद नेकबैंड लगाना अनिवार्य है.
नियम ये भी कहते हैं बतौर वकील जब भी व्यक्ति पेशी पर हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट आए तो उसे एडवोकेट का गाउन पहनना है बाकी जगहों पर ये ऑप्शनल है. चूंकि याचिका में गर्मी वाले मौसम का हवाला दिया गया है और काले कोट को न धारण करने की बात की गई है तो प्रकृति के लिहाज से देखा जाए तो ये बात सही है लेकिन रूल के अनुसार अब जो है, सो है.
ड्रेस चाहे स्कूल के बच्चों की हो या किसी और की एक बहुत बड़ा तबका है जो उस बात को लेकर एकमत है कि ड्रेस में इंसान भले ही एक बराबर लगे लेकिन सच्चाई यही है कि वो खुद में बंधा बंधा महसूस करता है और घुटता है. कभी गौर करियेगा अपने आस पास. बात कीजियेगा लोगों से कई मिलेंगे जिन्हें अपनी यूनिफार्म अच्छी नहीं लगती नहीं लगती, ऐसी एक बड़ी आबादी का मानना है कि यूनिफार्म में इंसान 'स्मार्ट' नहीं लगता.
बहरहाल बात वकीलों के काले कोट की हुई है तो कल यदि पुलिस वाले वर्दी न पहनने की बात कह दें, टीचर बिरादरी ये कह दे कि उसे फॉर्मल में कंफर्ट फील नहीं होता या फिर डॉक्टर ही ये कह दें कि एप्रेन नहीं पहनना तो हमें न तो बुरा मानने की जरूरत है ना ही आहत होने की. वकीलों की इस याचिका ने एक नया ट्रेंड सेट किया है और अब जबकि बात निकल चुकी है तो इसका दूर तक, बड़ी दूर तक जाना लाजमी है.
बाकी बात बस इतनी है कि कपड़ों में क्या रखा है. कपड़ा नहीं, बल्कि काम इंसान की पहचान होता है तो वकील हों या कोई और उन्हें फोकस अपने काम पर ही करना चाहिए लेकिन हां हम इस बात के पक्षधर जरूर हैं कि खुलकर जीने का अधिकार सबको है. यदि वकीलों को लगता है कि गर्मी के दौरान काले कोट में वो खुलकर जी नहीं पा रहे हैं तो देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट को इस बात का संज्ञान जरूर लेना चाहिए.
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