मई के पहले सप्ताह में जब मैं गुवाहाटी आया था तो सबसे ज्यादा ख़ुशी इस बात की हुई थी कि एक ऐसी जगह पर काम करने का अवसर मिल रहा है जहां मैं पहले न तो आया हूं और न यहां के बहुत से लोगों को जानता हूं. हां सेवन सिस्टर्स का यह इलाका जो न सिर्फ प्राकृतिक रूप से बेहद खूबसूरत है बल्कि यहां हर राज्य में एक अलग संस्कृति है जो आपको अपनी तरफ खींचती है. अब बनारस से होने के चलते जब हमारा तबादला उज्जैन हुआ था तो कई लोगो ने कहा था कि 'महादेव' की नगरी से महाकाल की नगरी जा रहे हो इसलिए ज्यादा फ़र्क़ नहीं महसूस होगा. उसके बाद जब गुवाहाटी आना हुआ तो लोगो ने कहा कि अब महाकाल की नगरी से मां कामाख्या की नगरी जा रहे हो इसलिए श्रद्धालुओं का आना जाना लगा रहेगा. मैंने भी सोचा कि इसी बहाने ही सही, लोग आएंगे तो और आएंगे तो फिर उनको अपनी निगाह से पूर्वोत्तर दिखाएंगे. खैर गुवाहाटी आते ही जिस तरह से गमछी और टोपी से स्वागत हुआ, बहुत अच्छा लगा. दरअसल सच कहूं तो हमारे तरफ यह प्रचलन नहीं देखने को मिलता है कि अगर कोई अतिथि आये तो उसका इस तरह से स्वागत किया जाए.
वैसे तो गमछा उत्तर प्रदेश और बिहार की संस्कृति में रचा बसा हुआ है लेकिन वहां किसी को आप इसे भेंट नहीं करते हैं, बल्कि खुद इसका इस्तेमाल करते हैं. वैसे तो गुवाहाटी ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसा हुआ है और हर वर्ष यहां इसके चलते बारिश के समय कुछ कठिनाईयां भी आती हैं (इसलिए इसे आसाम का शोक भी कहा जाता है जैसे कोशी को बिहार का शोक कहा जाता है).
यह चारो तरफ से पहाड़ों से घिरा हुआ है जो अलग अलग नाम से यथा नीलाचल पहाड़, चित्राचल पहाड़ और नरकासुर पहाड़ जाना जाता है. चारो तरह हरियाली है और पूर्वोत्तर का प्रवेश द्वार होने के चलते पिछले...
मई के पहले सप्ताह में जब मैं गुवाहाटी आया था तो सबसे ज्यादा ख़ुशी इस बात की हुई थी कि एक ऐसी जगह पर काम करने का अवसर मिल रहा है जहां मैं पहले न तो आया हूं और न यहां के बहुत से लोगों को जानता हूं. हां सेवन सिस्टर्स का यह इलाका जो न सिर्फ प्राकृतिक रूप से बेहद खूबसूरत है बल्कि यहां हर राज्य में एक अलग संस्कृति है जो आपको अपनी तरफ खींचती है. अब बनारस से होने के चलते जब हमारा तबादला उज्जैन हुआ था तो कई लोगो ने कहा था कि 'महादेव' की नगरी से महाकाल की नगरी जा रहे हो इसलिए ज्यादा फ़र्क़ नहीं महसूस होगा. उसके बाद जब गुवाहाटी आना हुआ तो लोगो ने कहा कि अब महाकाल की नगरी से मां कामाख्या की नगरी जा रहे हो इसलिए श्रद्धालुओं का आना जाना लगा रहेगा. मैंने भी सोचा कि इसी बहाने ही सही, लोग आएंगे तो और आएंगे तो फिर उनको अपनी निगाह से पूर्वोत्तर दिखाएंगे. खैर गुवाहाटी आते ही जिस तरह से गमछी और टोपी से स्वागत हुआ, बहुत अच्छा लगा. दरअसल सच कहूं तो हमारे तरफ यह प्रचलन नहीं देखने को मिलता है कि अगर कोई अतिथि आये तो उसका इस तरह से स्वागत किया जाए.
वैसे तो गमछा उत्तर प्रदेश और बिहार की संस्कृति में रचा बसा हुआ है लेकिन वहां किसी को आप इसे भेंट नहीं करते हैं, बल्कि खुद इसका इस्तेमाल करते हैं. वैसे तो गुवाहाटी ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसा हुआ है और हर वर्ष यहां इसके चलते बारिश के समय कुछ कठिनाईयां भी आती हैं (इसलिए इसे आसाम का शोक भी कहा जाता है जैसे कोशी को बिहार का शोक कहा जाता है).
यह चारो तरफ से पहाड़ों से घिरा हुआ है जो अलग अलग नाम से यथा नीलाचल पहाड़, चित्राचल पहाड़ और नरकासुर पहाड़ जाना जाता है. चारो तरह हरियाली है और पूर्वोत्तर का प्रवेश द्वार होने के चलते पिछले कुछ वर्षों से यहां पर विकास के कार्य बहुत तेजी से किये जा रहे हैं इस शहर में ट्रैफिक जाम की एक यह भी वजह है कि हर तरफ निर्माण कार्य चल रहा है).
गुवाहाटी शहर में शुरुआत में ऐसा लगा कि मानो सुबह बहुत जल्द हो जाती है, फिर याद आया कि हिन्दुस्तान में सूर्य सबसे पहले पूर्वोत्तर से ही प्रवेश करता है इसलिए यह स्वाभाविक ही है. कुछ दिनों में ही कामाख्या देवी के मंदिर भी जाना हुआ और उस नीलाचल पहाड़ी से पूरा शहर देखने का मौका मिला. यहां के लोगों से बात करने पर लगभग सभी ने बताया कि जून के महीने में यहां पर इस राज्य के सबसे बड़े मेलों में से एक 'अंबुबाची मेला ' लगता है जो हर वर्ष 22 जून से 26 जून तक चलता है.
उस मेले में उमड़ने वाली भीड़ और आस्था के सैलाब के बारे में सुनकर लगा कि इस बार इस मेले में जाना चाहिए. फिर हमारे बैंक ने भी कहा कि इस मेले में हमारी तरफ से भी कुछ किया जाना चाहिए तो श्रद्धालुओं के लिए पानी, जूस और चुनरी इत्यादि को एक पैकेट में रखकर बांटने का इंतज़ाम किया गया. 22 जून को सुबह श्रद्धालुओं के लिए पैकेट बांटने के बाद हम लोग वापस आ गए और उस दिन ही चारो तरफ जिस तरह से भक्तों का सैलाब उमड़ रहा था उससे अंदाजा हो गया कि अगले चार दिन तक गुवाहाटी में लोगों का रेला रहेगा.
इस मेले में न सिर्फ पूर्वोत्तर के लोग पूरी श्रद्धा से आते हैं बल्कि बंगाल, बिहार, ओडिशा और उत्तर प्रदेश से भी खूब लोग आते हैं. इस बार मेले में दक्षिण भारत से भी आये हुए काफी लोग दिखाई दे रहे थे. आस पास के देश नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और म्यांमार से भी श्रद्धालु इस मेले में शरीक होने के लिए आते हैं. अब अगर इससे जुड़े इतिहास पर नजर डाले तो शास्त्रों के अनुसार जब भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से देवी सती के विभिन्न अंग काटकर विभिन्न स्थानों पर गिरे तो वहां एक एक शक्ति और एक एक भैरव विराजमान हो गए.
कामाख्या मंदिर में देवी की योनि गिरी थी इसलिए वहां इसी की पूजा की जाती है. 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ मां कामाख्या का भी है और इसे तांत्रिक सिद्धियों के लिए भी बहुत उपयुक्त माना जाता है. ऐसा माना जाता है कि यह मेला तब होता है जब जून के महीने में देवी कामाख्या रजस्वला रहती हैं. इस समय गर्भगृह के कपाट बंद हो जाते हैं जो चार दिन बाद ही खुलते हैं.
इस दौरान देवी के दर्शन भी बंद रहते हैं और देवी की निवृत्ति के बाद यह मेला समाप्त हो जाता है और गर्भगृह के कपाट मंदिर की सफाई और मंदिर के पंडा द्वारा पूजा कराने के बाद खुलते हैं. गुवाहाटी वासियों के लिए यह मेला न सिर्फ गौरव का प्रतीक है बल्कि यह उनके द्वारा किये जाने वाली सेवा भाव के लिए भी जाना जाता है. पूरे शहर के लोग इस मेले के दौरान जगह जगह पर खाने, पीने इत्यादि की व्यवस्था खुले दिल से करते हैं और यहां आने वाला कोई भी श्रद्धालु इन चीजों की कमी महसूस नहीं करता है.
आज मैंने भी इस मेले में जाकर यह महसूस किया कि लोगों का हुजूम जिस तरह से बिना किसी तकलीफ के पहाड़ी पर चढ़ रहा था उससे यह लगा ही नहीं कि इनमें बच्चे बुजुर्ग महिलाएं और दिव्यांग लोग भी हैं जो देवी का जयकारा लगाते हुए ऊपर जा रहे थे. देश के विभिन्न हिस्सों से आये हुए साधू संत जगह जगह दिखायी दे रहे थे और सड़क के दोनों तरफ छोटी छोटी दुकाने लगी हुई थीं जो ग्रामीण मेले का दृश्य दर्शा रही थीं.
कहीं कोई पंखा बेच रहा था तो कहीं रुद्राक्ष, श्रृंगार का सामान भी बिक रहा था तो बच्चों के खिलौने भी बिक रहे थे. पिछले हफ्ते जो बरसात लगातार हो रही थी वह इस समय रुकी हुई है और इसके चलते गर्मी अपने शबाब पर है. लेकिन लोगों के उत्साह में कोई कमी नजर नहीं आ रही है, जिधर देखिये उधर लोगों का हुजूम ही नजर आ रहा है और इसमें आपसी भाईचारा और शौहार्द खूब नजर आता है.
कुछ भी कहिये, ऐसे मेले न सिर्फ लोगों को श्रद्धा से भर देते हैं बल्कि कुछ दुकानदारों की आजीविका भी चल जाती है. और अपनी लोक संस्कृति को बचाकर रखने के लिए ऐसे स्थानीय पर्व, जो अब ग्लोबल होते जा रहे हैं, बहुत आवश्यक हैं.
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