इंटेंशन,
यानी इरादा वह चीज है जो किसी की खुराफात और साजिशों को बेपर्दा कर देती है. किसी की सोच का सही-सही पता बताती है. उसकी असल भावना का पता इंटेशन से ही जाना जा सकता है. जो बड़े-बड़े मानकों को गढ़कर सुधारों की वकालत करते दिखते हैं, उनमें से किसी सुधार से उसका कोई वास्ता नहीं होता. क्योंकि उनका इंटेशन असल में सुधार है ही नहीं. आइए, कुछ खुराफाती इरादों को उदाहरण के साथ समझते हैं. क्या हैरानी की बात है कि कबिलाई तैमूर जो तलवार के अलावा कोई भाषा नहीं जानता था- आत्मकथा लिख देता है. बाबर लिखता है. खिलजी आत्मकथाएं लिखकर मरते हैं. सब लिखते हैं. यहां तक कि अकबर भी आत्मकथा लिखता है. वे तमाम सुल्तान बादशाह आत्मकथा लिखते हैं, जिनकी जिंदगी युद्ध के मैदानों में तम्बुओं में गुज़री. हमें कृतज्ञ होना चाहिए उन बादशाही लेखकों की सदाशयता, ईमानदारी और मेहनत का. दिनभर युद्ध, राजकाज और हरम की दर्जनों औरतों के साथ रतजगा और फिर किताबें लिखने का जरूरी काम. वे अपने लेखकों को बैठाकर डिक्टेट करते होंगे रात-रात भर. हमारे बादशाहों सुल्तानों ने कितना काम किया?
अफ़सोस इस बात का है कि चंद्रगुप्तों ने आत्मकथा क्यों नहीं लिखी? उन्हें पढ़ना नहीं आता था. उनके पास लेखक नहीं थे. या उनकी आत्मकथाएं प्रस्तरों पर लिखे जा रहे थे, जो अब किसी गजनी, लोदी, मुगलिया चौखट का हिस्सा होंगे या वो प्रस्तर उनके किलों की सुरक्षा दीवारों में चुनवा दिए गए हैं. जिन्होंने भाटों चारणों से लिखवाया उसे सत्य माना भी नहीं जाता देश में. माना भी कैसे जाए? सत्य सिर्फ विजेता का होता है. और मजेदार चीज तो यह है कि उन्हीं बादशाहों सुल्तानों के लिखे पर सैकड़ों किताबें लिखी गईं हैं अबतक. वही किताबें इतिहास का सबसे सटीक और जिम्मेदार स्रोत है. प्रस्तर पर लिखे शब्द नहीं, बावजूद कि बहुत मात्रा में यहां-वहां बचे रह गए हैं. किताबों की बजाय प्रस्तरों के शब्द बांचना ज्यादा मुश्किल काम रहा है इतिहासकारों के लिए हमेशा. उनकी रहस्यमयी लिपियां ज्यादा कठिन हैं.
यह भी कम दिलचस्प नहीं कि सारे...
इंटेंशन,
यानी इरादा वह चीज है जो किसी की खुराफात और साजिशों को बेपर्दा कर देती है. किसी की सोच का सही-सही पता बताती है. उसकी असल भावना का पता इंटेशन से ही जाना जा सकता है. जो बड़े-बड़े मानकों को गढ़कर सुधारों की वकालत करते दिखते हैं, उनमें से किसी सुधार से उसका कोई वास्ता नहीं होता. क्योंकि उनका इंटेशन असल में सुधार है ही नहीं. आइए, कुछ खुराफाती इरादों को उदाहरण के साथ समझते हैं. क्या हैरानी की बात है कि कबिलाई तैमूर जो तलवार के अलावा कोई भाषा नहीं जानता था- आत्मकथा लिख देता है. बाबर लिखता है. खिलजी आत्मकथाएं लिखकर मरते हैं. सब लिखते हैं. यहां तक कि अकबर भी आत्मकथा लिखता है. वे तमाम सुल्तान बादशाह आत्मकथा लिखते हैं, जिनकी जिंदगी युद्ध के मैदानों में तम्बुओं में गुज़री. हमें कृतज्ञ होना चाहिए उन बादशाही लेखकों की सदाशयता, ईमानदारी और मेहनत का. दिनभर युद्ध, राजकाज और हरम की दर्जनों औरतों के साथ रतजगा और फिर किताबें लिखने का जरूरी काम. वे अपने लेखकों को बैठाकर डिक्टेट करते होंगे रात-रात भर. हमारे बादशाहों सुल्तानों ने कितना काम किया?
अफ़सोस इस बात का है कि चंद्रगुप्तों ने आत्मकथा क्यों नहीं लिखी? उन्हें पढ़ना नहीं आता था. उनके पास लेखक नहीं थे. या उनकी आत्मकथाएं प्रस्तरों पर लिखे जा रहे थे, जो अब किसी गजनी, लोदी, मुगलिया चौखट का हिस्सा होंगे या वो प्रस्तर उनके किलों की सुरक्षा दीवारों में चुनवा दिए गए हैं. जिन्होंने भाटों चारणों से लिखवाया उसे सत्य माना भी नहीं जाता देश में. माना भी कैसे जाए? सत्य सिर्फ विजेता का होता है. और मजेदार चीज तो यह है कि उन्हीं बादशाहों सुल्तानों के लिखे पर सैकड़ों किताबें लिखी गईं हैं अबतक. वही किताबें इतिहास का सबसे सटीक और जिम्मेदार स्रोत है. प्रस्तर पर लिखे शब्द नहीं, बावजूद कि बहुत मात्रा में यहां-वहां बचे रह गए हैं. किताबों की बजाय प्रस्तरों के शब्द बांचना ज्यादा मुश्किल काम रहा है इतिहासकारों के लिए हमेशा. उनकी रहस्यमयी लिपियां ज्यादा कठिन हैं.
यह भी कम दिलचस्प नहीं कि सारे बादशाह-सुल्तानों का हृदय कोमल था. उससे कविता फूटी. अकबर से बहादुरशाह जफ़र तक. बहादुरशाह जफ़र को युद्ध में नहीं जूझना पड़ा. स्वाभाविक था कि खलिहर बादशाह कविता ही लिखता. हमारे प्रधानमंत्रियों ने कविताई दिल्ली सल्तनतों से ही सीखा होगा शायद. नेहरू सबसे बड़े लेखक थे. और कौन साहित्यप्रेमी नहीं था? बताइए. विश्वनाथ प्रताप सिंह तो चित्रकार, लेखक कवि और ना जाने कितनी प्रतिभाओं से संपन्न थे. जो किन्हीं कारणवश नहीं लिख पाए उन्हें भी लिखा गया. और वैसा ही लिखा गया जैसा वे खुद लिखते. बावजूद कि कुछ कवि और चित्रकार नहीं थे. वैसे कवि तो नरेंद्र मोदी भी हैं.
मैनेजर पांडे जैसे लेखकों का इंटेंशन क्या था?
मैनेजर पांडे मूर्धन्य साहित्यकार थे, अभी हाल ही में उनका निधन हो गया. उन्होंने इधर-उधर बिखरी मुगलों की महान कविता को 'मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता' के जरिए दुनिया के सामने रखा और बताया कि हिंदी के विकास में मुगलों ने कितना योगदान दिया. पांडे जी ने यह स्पष्ट करने की कोशिश नहीं की कि हिंदी कल से होते हुए रंग बदल-बदल कर, कैसे गुरिल्ला तरीकों से आज तक पहुंची है, असल में वह पैदा कैसे हुई? जबकि एक साहित्यकार, एक नागरिक और हिंदी का प्रोफ़ेसर होने के नाते उनकी जिम्मेदारी थी हिंदी समाज को यह बताना. नहीं बताया तो नहीं बताया.
कोई सामने नहीं आना चाहता यह बताने के लिए कि जब मुगलों की भाषा फारसी नहीं थी जो असल में जेंद (ये उस फारस की प्राचीन भाषा है जिसकी बर्बादी का जिक्र आगे किया गया है) से उपजी थी, फिर फारसी को ही अकबर ने रातोंरात भारत के भाग्य की आधिकारिक भाषा कैसे और क्यों बना दिया, जिसे तब विदेशियों के अलावा कोई नहीं जानता था. उस 'गोलबंदी' पर इतिहास खामोश हो जाता है. मुगलों की मातृभाषा 'चगताई तुर्की' है जो अब लगभग विलुप्त हो चुकी है. मध्य एशिया और अरब की ना जाने कितनी भाषाएं अब तक विलुप्त हो चुकी हैं. तब फारसी एकमात्र भाषा थी जो भारत के सभी "लुटेरों" की संपर्क भाषा थी. इसे कुछ-कुछ उस जमाने की अंग्रेजी कह सकते हैं. अरब को फारस से जोड़ने वाली भाषा, फारस को तुर्क से जोड़ने वाली भाषा और तुर्क को अफगान से जोड़ने वाली भाषा. यह एक 'परिवार विशेष' की भाषा थी. बावजूद कि इसमें शत्रु थे. लेकिन परिवार तो परिवार है.
अब जब यह किसी परिवार की ही भाषा थी तो भला इसे कोई दूसरा परिवार कैसे स्वीकार कर सकता था? नहीं स्वीकारा गया और हिंदी पैदा हो गई. नाजायज को "सभ्य समाज" ने कभी पसंद नहीं किया. सभ्य समाज उसे सुधारकर रास्ते पर लाने की कोशिश करने लगा. जो नाजायज भारतीय शब्द घुस गए थे, (बहुतायत भारतीय बोलियों के शब्द थे) उन्हें निकाला गया. शुद्धिकरण हुआ. बावजूद कि वह शुद्ध नहीं हो पाई. एक और नाजायज पैदाइश हुई- उर्दू. लेकिन यह परिवार के लायक लगी. चूंकी यह भी 'परिवार' की भाषा थी, समाज ने एक सीमा तक ही स्वीकार किया. और फिर हिंदी को अपने कंधे पर बिठाकर क्रांतिकारी यात्रा कराने वाला बादशाह पैदा होता है औरंगजेब. जो हिंदी को उसके दुर्भाग्य से निकालने की कोशिश में लगा. जी जान से लगा. उसने अपने बेटे को हिंदी (जो असल में स्थानीय क्षत्रीय बोली थी व्रज) सिखाने के लिए हिंदी का पहला शब्दकोष बनवा दिया.
अभी एक अंतरराष्ट्रीय हिंदी वेबसाइट ने इसके बारे में विस्तार से बताया. इस अंतरराष्ट्रीय वेबसाइट के पत्रकार इतने कमिटेड हैं कि वे भले कभी "सम्राट अशोकों" पर ना लिख पाएं, लेकिन मोहम्मद बिन कासिम से लेकर हाजी सुल्तान और करीम लाला जैसे 'माफियाओं' तक पर भी रूमानी लिखना नहीं भूलते. और मौका तलाश ही लेते हैं. उन्होंने एक विस्तृत रिपोर्ट में बताया कि औरंगजेब की वह मूल प्रति आज भी सुरक्षित है. जिन्हें भारत के इतिहास और औरंगजेब के योगदान को देखना हो वे जाकर उस रिपोर्ट और किताब के जरिए भी देख समझ सकते हैं. जेएनयू सर्टिफाइड मैनेजर पांडेयों, इरफ़ान हबीबों, रोमिला थापरों का ज्ञान इसलिए सार्वभौमिक है कि वह सच में "प्रामाणिक किताबों" के हवाले से ही बात करते हैं. प्रमाणिक मीडिया संस्थान उन्हें कोट करते हैं. भला वे असत्य कैसे हो सकते हैं. प्रमाणिकता तय करने के लिए मानक गढ़ना पड़ता है. उसके लिए ज्ञानी होना जरूरी नहीं. यह कभी भी भारत का विचार नहीं हो सकता.
भारत का विचार उलटा था. यहां एक मूर्ख और अपढ़ को भी विद्वान माना गया है. घाघ कम बड़ा कवि है. वह कौन था पता नहीं. कहते हैं वह अपढ़ था. उसकी किताबें नहीं छापी जाती, फिर भी उसके लोग उसे जानते हैं. गाते हैं और बार-बार दोहराते हैं. घाघ को शोध की जरूरत नहीं है.
निराला की जनेऊ से कैसा बैर?
एक सवाल आता है बार-बार. मनुष्य तो लाखों साल से है. पर ऐतिहासिक प्रमाण दो तीन हजार सालों के ही मिलते हैं. जबकि वह उस किताब को नहीं स्वीकार करते जिसमें शिव से प्रशिक्षित उनके सात शिष्य, सात महाद्वीपों में सभ्यता का प्रसार करने जाते हैं. हजारों हजार साल पहले. मैं लाख नहीं कह रहा.वे उतने ही महाद्वीपों की चर्चा कर रहे हैं जितने असल में आज भी हैं. धरती पर जीवन कैसे बना उसका भी जिक्र करते हैं. "हिरण्यगर्भा" पर लोग ध्यान ही नहीं देना चाहते.
कुछ लोग भारत के आदिवासियों को सभ्य बनाना चाहते हैं. क्योंकि वह जो है उसे असभ्य समझते हैं. उन्हें उत्तर-पूर्व के नागाओं की संस्कृति से दिक्कत है. सरनाओं की परंपरा से परेशानी है. उन्हें बाम्हनों से भी कम परेशानी थोड़े है. जबकि अफ्रीका के तमाम देशों के आदिवासी अपनी आदिम पहचान के साथ संयुक्त राष्ट्र में बैठे दिखते रहते हैं. उन्हें प्रशंसा हासिल होती है. उन्हें संरक्षित करने की कोशिशें की जाती हैं. दुनिया फंड जारी करती है इसके लिए. सब अपनी परंपरा में खुश हैं. अरब भी अपनी परंपरा में खुश है. आम पाखंडी बाम्हनों की बात क्या की जाए, उन्हें जब सूर्यकांत त्रिपाठी निराला भी जनेऊ में नंगे बदन दिख जाते हैं तो परेशानी होती है. निराला ने कौन सा पापवचन लिखा, समाज तोड़ा, जातीय धार्मिक घृणा फैलाई- जनेऊ पहनकर? "कुकुरमुत्ता" जैसी कविताओं में उन्होंने तो कुछ ऐसा लिखा है-
अब, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पाई खुशबु, रंग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!
कितनों को तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम,
हाथ जिसके तू लगा,
पैर सर रखकर वो पीछे को भागा
औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर,
तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर,
शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा
तभी साधारणों से तू रहा न्यारा.
वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तू
कांटो ही से भरा है यह सोच तू
कली जो चटकी अभी
सूखकर कांटा हुई होती कभी.
रोज पड़ता रहा पानी,
तू हरामी खानदानी.
चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसा
जो निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशा
बहाकर ले चले लोगो को, नही कोई किनारा
जहाँ अपना नहीं कोई भी सहारा
ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा
पेट में डंड पेले हों चूहे, जबां पर लफ़्ज प्यारा.
(कुकुरमुत्ता को पढ़िए. यह बहुत व्यापक है और समय से परे है.)
निराला, मुक्तिबोध और धूमिल से बड़ा कवि कोई नहीं हुआ है हिंदी में. और उनकी कविता और जिंदगी में कोई फर्क नहीं था. जो बड़े कवि, आलोचक आज की तारीख में निराला (असल में उनकी जनेऊ) को देखकर हैरान हो रहे हैं उन्हें दारागंज (प्रयागराज) के मल्लाह भी बता देंगे कि औघड़ कवि का रूप रंग, रहन सहन कैसा था? उनकी कविता क्या थी? तो क्या दिक्कत निराला नहीं, उनकी जनेऊ है? जनेऊ जिसे कुछ लोग पीठ पर पहनते हैं, कुछ लोग कमर में. मेरे दद्दा जब खेत में खुद को बैलों के साथ जोत देते थे, तब जनेऊ कमर में बांध लेते थे. और मैंने तमाम लोगों को देखा है जो आजकी समाज व्यवस्था में 'जनरल' नहीं हैं- जनेऊ भी पहनते हैं. बाम्हनों से ज्यादा नियम कायदे से. उल्टा जनेऊ पहनने वाले बाम्हनों को मुर्गे की टांग नोचते देखा है मैंने. बावजूद कि खानपान संस्कृति है और उसमें भूगोल जिम्मेदार है. और यह लोगों का अपना चयन है.
बाम्हनों को उनकी जनेऊ पर गंदे कमेंट भी करते देखा है, पर यह नहीं देखा कि वे जनेऊ उतरवा रहे हों. हो सकता है कि मुझ तक जनेऊ पर जातीय संघर्ष, हत्याओं और धरना प्रदर्शन की खबरें ना पहुंची हों और मेरे बाहर के भूगोल में जरूर हुआ हो ऐसा. मैं तय नहीं हूं. आप चेक करके मुझे बता सकते हैं. किसी की मर्जी है, जनेऊ पहने या ना पहने. अपनी सुविधा के अनुसार पीठ पर पहने या कमर पर पहने. दद्दा काम के वक्त इसलिए कमर में जनेऊ बांध लेते थे कि वह फावड़ा, हल चलाते वक्त उसमें फंसी घास को बाहर निकालने के दौरान उलझ जाता था. असुविधा होती थी. दुर्घटना भी हो सकती थी.
फारसी बहुत कुशल थे. कामगार थे. मेहनतकश थे. आविष्कारक थे. यूरोप, मध्य एशिया और अरब में हजारों साल पहले उनके योगदान को देखिए. फारसी भी कमर में ही धागा लपेटते हैं. मुझे नहीं मालूम कि वह जनेऊ ही है क्या? कोई पीठ पर पहनता है, कोई कमर में, कोई गले में- और कुछ वक्त के साथ भूल गए. बात बस इतनी है. यह भी संरक्षण के योग्य है. आदिम संस्कृतिक पहचान है.
समाजवाद जनेऊ की निंदा करने से नहीं आता कॉमरेड. जनेऊधारी समाज के लिए खतरा है- योग्य नहीं है तो उसका सार्वजनिक बहिष्कार करें. अगर योग्य है तो साथ रखें- समाजवाद तब आएगा. जनेऊ भी आदिम परंपरा ही है. उन्हीं सप्तऋषियों के जमाने से जिन्हें आप एक जगह खारिज करते हैं और दूसरी जगह विवश होकर स्वीकार करना पड़ता है. प्राचीन इतिहास पर विद्वान लोग जब जातियों के विकास का सूत्र खोजते हैं तो अंगीरा/अभीरा जैसे आदिपुरुषों का ही जिक्र करते हैं. कुछ तो कहते हैं कि भारत में तमाम जातियां बाहर से आईं. पता नहीं क्यों वे यह बताना नहीं चाहते कि यहां से बाहर गए भी. मूर्खों- जो जहां से जाता हैं- आधुनिकता में खुद को सहज नहीं पाने पर, संक्रमण से बचने के लिए भागकर वहीं लौटता है जहां से वह गया होता है- "जहाज के पंछी की तरह."
तमाम यूरोपीय जनजातियाँ भारतवंशी हैं और अब उसे स्वीकार भी किया जा रहा है. लिथुआनिया में भारतीयों से संपर्क के बाद कुछ ट्राइब्स अस्तित्व में आई. अभी हाल में पढ़ते हुए पता चला. बावजूद कि हम जैसे आम लोगों की पढ़ने की एक सीमा है और समाज की यह जिम्मेदारी हमारे संबंधित क्षेत्रों के विद्वानों की है. भारत विरोधी और तमाम विध्वंसक स्थापनाओं से समझ में आता है कि वे कितने जिम्मेदार हैं? निराला, दिनकर, धूमिल, ने अपने हिस्से का बखूबी काम किया है. जिम्मेदारी के साथ. एक की पीठ का जनेऊ मैं देख सकता हूं.
छठ और तुलसी विवाह को लेकर इंटेंशन
तो समस्या बाम्हन नहीं. निराला की जनेऊ नहीं. समस्या भारत और इतिहास में लुप्त ना होने का उसका हठ है. समस्या जनेऊ होती तो भला दशहरा, दिवाली, छठ, शबरीमाला, कामाख्या से भला क्या परेशानी होती. त्योहारों के जरिए घृणा का इतिहास स्थापित किया जा रहा है. छठ में जातीय बंटवारा किया जा रहा है. शबरीमाला पर उनके प्रपंच को छोड़ दीजिए जिसे आगे साईं दीपक के वीडियो में देख सकते हैं. उन्हें तुलसी विवाह तक से दिक्कत है. जो कि एक बेहद निजी स्पेस का मामला है. राजद के बुजुर्ग समाजवादी नेता हैं- शिवानंद तिवारी. उन्होंने घर में पत्नी बहू की पूजा के बहाने सवाल पूछा कि सब ठीक है- ये बताइए तुलसी जी का विवाह होता किससे है?
क्या शिवानंद और तुलसी पूजकों को नहीं मालूम. लेकिन उनका इंटेंशन जानकारी लेना नहीं है. इसे ख़त्म करना है. क्योंकि एक कमेंट में वे इसे पाखंड भी बताते हैं और कहते हैं कि आप बंद करेंगे तो हम दूसरों (मजहबों) के भी पाखंड पर हमला कर सकते हैं. तुलसी पूजा भी छठ की ही तरह पुरोहित, पाखंड से अलग त्योहार है. कृषि पर्व है और लोकपर्व भी है. सामूहिकता का भी त्योहार नहीं है. लोग अपने आँगन में तुलसी को पूजते हैं. क्या अब कोई अपने आँगन में भी अपनी शुभ परंपरा को निभाने का हकदार नहीं है? और तुलसी पूजकों ने कब कहा कि दूसरों को बदलने की जरूरत है. लोग अपने चयन के साथ स्वतंत्र हैं. फिर एक को चयन की स्वतंत्रता क्यों नहीं, जबकि भूगोल ने उसे ऐतिहासिक जिम्मेदारी दी है. मैंने उनसे पूछा भी कि आपके घर में जबरदस्त लोकतंत्र है. आप पत्नी बहू को बदल नहीं पाए ऐसे में समाज को बदलने की कोशिश कितना जायज है? मैंने सवाल पूछा पर उन्होंने जवाब नहीं दिया.
शिवानंद संभवत: दूसरी तीसरी चौथी पीढ़ी के संपन्न हैं. ऐसे संपन्न हर जाति समाज और धर्म में होते हैं. उनसे बचना चाहिए. क्योंकि परंपरा, आस्था, संस्कृति, धर्म, जाति, जेंडर भाषा और भूगोल को राजनीति की एक डंडी से नहीं हांका जा सकता. हमने आदिम सभ्यता के दौरान ही तलवार यानी राजनीति को 'ज्ञान' से अलग कर दिया है.
गजब हिप्पोक्रेसी है. दुनिया के तमाम क्षेत्रों में आदिवासियों के चेहरे पर अगर रंग बिरंगी रेखाएं खींच दी जाएं तो वह आदिम है, संरक्षण योग्य है और शिव का त्रिपुंड पाखंड नजर आता है. बिंदी पिछड़ेपन की निशानी. क्या शिव का आदिम त्रिपुंड संरक्षण के योग्य नहीं है? वह भी तो ट्राइब ही है. अब पूरे चेहरे पर रंग पोत ले, कृष्ण की तरह सिर पर मोर पंख लगा ले और बॉलीवुड फिल्मों के आदिवासियों की तरह हू हा, चिल्लाएं तभी आप उसे ट्राइब मानेंगे. खप्पर में खून पिएं, उसका आदिम इतिहास तभी समझ पाएंगे. देवी काली की तस्वीर पर्याप्त नहीं है उसके आदिम इतिहास को समझने के लिए? कभी गिना कि वह कितने सालों से "हिरण्यगर्भा" शब्द चिल्ला रहा है. अवतारों की कहानी अबतक समझ नहीं पाए. वह ईश्वर पैदा करता है. वह हिंदू है, सिख है, जैन है, बौद्ध है, मुसलमान है, ईसाई है- अगर परंपरा, संस्कृति और सहजता में अपने भूगोल को तय नहीं कर पा रहा तो उसका नष्ट होना निश्चित है. इसकी गारंटी दे सकता हूं.
भारत का आदिम इतिहास हत्याओं का इतिहास भी है यह कोई छिपी बात नहीं है. और जो जिंदा हैं आज की तारीख में उनके आदि पुरखों ने ही मिलकर उन हत्याओं को उस देशकाल में अंजाम दिया. कृष्ण ने महाभारत रचकर हर तरह का अन्याय साफ़ किया. दुर्योधन का कोई बंधु-बांधव, मित्र जिंदा नहीं बचा था कुरुक्षेत्र में. द्रोण जैसे महाप्रतापियों का वंश भी नहीं बचा. सबने कुरुक्षेत्र में ही अपने पाप भोगे.और कुरुक्षेत्र में कृष्ण सबको खींच लाए थे. भारत की धरती पर जो जिंदा हैं, उनका दुर्योधन के पक्ष से कोई संबंध नहीं. उन्हें यह ख्याल होना चाहिए. और जो दुर्योधन से संबंध रख रहे हैं- अपना भूगोल जान जाएंगे तो पैर रखने की भी जमीन नहीं मिलेगी. अमीश त्रिपाठी के एक इंटरव्यू में देव और असुरों के बारे में टिप्पणी है. भाई थे दोनों. और भाइयों की भूमि कहां-कहां थी रोमिला थापर उसका प्रमाण देने में असमर्थ हैं. उनके ज्ञान की एक सीमा है. ठीक है- न्यूट्रल ज्ञान (सत्य) बाहर ही मिल सकता है तो मेगस्थनीज की इंडिका देखें. फाह्यान के शब्दों में मिलेगा. शब्द बदले जा सकते हैं- भाषा ख़त्म की जा सकती है- इसका मतलब यह नहीं कि उसके मायने ख़त्म हो जाते हैं. बावजूद भारत का एक इतिहास उन शब्दों में भी यात्रा कर रहा है जिसे कई व्यक्तियों ने कई सदियों में मिलकर लिखा है.
इंटेंशन कैसा होना चाहिए?
अमीश त्रिपाठी ने हाल ही में एक इंटरव्यू के दौरान इंटेंशन शब्द को बहुत सहज और सोदाहरण समझाया कि असल में इंटेंशन होता क्या है. उन्होंने बताया कि बाहुबली में निर्माताओं का इंटेंशन निर्दोष था. जिस तरीके शिव के लिंगम को खोदकर अभिषेक का अद्भुत प्रभावशाली दृश्य रचा गया, यह निर्दोष इंटेंशन ही था कि लोगों ने उसे बेशुमार प्यार दिया. घृणा नहीं की. खराब इंटेशन में लोग शिव की शास्त्रीय पूजा भी बर्दाश्त नहीं करते. यही भारत है.
परंपरा, आस्था, संस्कृति, धर्म, जाति, जेंडर और भूगोल - सब राजनीति की एक डंडी से नहीं हांके जा सकते हैं. सबकी जरूरतें और चिंताएं अलग-अलग हैं. किसी भी समाज में हांका जा रहा या कोशिश हो रही- तय मानिए वह विध्वंसक है. भाई मेरा घर है. कौन आएगा, किस तरह आएगा. कैसे आएगा- तय करने का अधिकार, घर मालिक का है या पड़ोसी और मोहल्ले वालों का? और उसे तय करने का अधिकार क्यों हो? नीचे वीडियो में साईं दीपक के हवाले से सुन सकते हैं विस्तार से-
अगर कोई आदिम परंपरा में खुश है. ऐसी आदिम परंपरा जिसमें किसी को विवश नहीं किया जा रहा, किसी परंपरा को चुनौती नहीं दी जा रही है, संप्रभुता पर खतरा नहीं पैदा किया जा रहा और अहिंसक भी है तो फिर परेशानी किस बात पर है? जिसे आप आधुनिक (बावजूद कि आधुनिक जैसा कुछ होता नहीं असल में) समझते हैं- उस आधुनिकता से मिले लाभ से वंचित है, अज्ञानी है, पिछड़ा हुआ है- तो इसमें दूसरों की तकलीफ जैसी बात कहां है. आधुनिकतावादियों को उसे बर्बाद समझकर उसकी हालत पे छोड़ देना चाहिए.
तब जबकि वह यह भी नहीं कह रहा कि वही श्रेष्ठ है. वह 'वसुधैव कुटुम्बकम' रटता है और इसलिए नहीं रटता कि वह डरता है किसी से. उसकी ताकत से. वह इसलिए कहता है क्योंकि वह जानता है कि सब एक ही शरीर के हिस्से हैं. आगे पता चल जाएगा कि वह क्यों और कैसे जानता है? अब भला शरीर का एक हिस्सा श्रेष्ठ और दूसरा अश्रेष्ठ कैसे हो सकता है? हां, वह अपंग जरूर हो सकता. उसमें कुशलता की कमी हो सकती है. या दाएं हाथ की तुलना में बायां ज्यादा अमीर और सुखी हो सकता है.
मुझे बताइए, अगर अरब ने फारस को जीता तो फारस के हार की वजह सहमति रही होगी या फिर साहस की कमी. संघर्ष की क्षमता नहीं होगी, धैर्य नहीं होगा, और खोने का बहुत डर रहा होगा. नहीं भागे. अरब से सीरिया, तुर्की तक फारस ने सदियों राज किया. लेकिन अरब ने जब हमले किए तो जो लड़ने में सक्षम नहीं थे और 'आधुनिकता' से प्रभावित भी नहीं होना चाहते थे- अपनी परंपरा बचाने के लिए भागने के विकल्प का चयन किया. भारत और तमाम जगहों पर पहुंचे. कम ही सही. कम से कम अपने इतिहास के साथ वे आज भी हैं और ठसक के साथ हैं. कोई मुकाबला है क्या उनका और बहुरंगी दुनिया के लिए क्या यह कम बड़ी बात नहीं है?
और जो नहीं भागे थे उसके पीछे क्या था? उनमें साहस नहीं था. संघर्ष की क्षमता नहीं थी, धैर्य नहीं था और खोने का डर बहुत था या वे सहमत ही रहे हों. लेकिन भारत आकर भी उन्होंने क्या किया? वे वही थे- लखनऊ से जुड़ा वो किस्सा शायद आपने सुना ही होगा. नौकर नहीं था कि नवाब साहेब के पैरों में जूती या चप्पल डाल सके. ताकि वे जूती पहनकर अपने फूल जैसे पैरों पर भाग सकें. क्या हुआ? अंग्रेजों के गुलाम हुए. अच्छा ही हुआ. ये वो लोग हैं जो पता नहीं किसकी सुरक्षा के नाम पर अनाप-शनाप का टैक्स वसूलते मिलते हैं इतिहास में. पर सुरक्षा किसकी करते थे यह दिखा नहीं कभी.
और बंगाल वाले को गिडगिडाते सुना है कि नहीं. माफ़ करें आपने उनके शहादत की एक रूमानी कहानी सुनी है. मैं गिडगिडाना शब्द इस्तेमाल कर रहा हूं. वह जान की भीख मांग रहे थे असल में. बावजूद कि उन्हें पता चल चुका था कि क्लाइव एंड टीम ने खेल ख़त्म कर दिया है. नाक रगड़ रहे थे. मिन्नतें कर रहे थे. रो-रोकर जान की भीख मांग रहे थे. बुरी तरह, कायरों के जैसे मारे गए. और आज उसको शहादत के किस्से की शक्ल में रूमानी होकर सुनाया जाता है. लगातार लिखा जाता है. आप उन्हें पढ़कर रो देंगे. यह बोझ साजिशन थोपा गया है. उतार फेंकिए. दोनों काबिल नहीं थे. इसलिए मारे गए. भारत के लिए यही अच्छा था- "वीर भोग्या वसुंधरा." वे वीर नहीं, खैरात पर जीने वाले और मुफ्तखोर थे. मुफ्त की खाने वालों से चौकन्ना रहिए हमेशा. जय श्रम की होनी चाहिए. हमारी परंपरा में "श्रमेव जयते" है. खैरात और एहसान नहीं.
उन्हें नवाबी कैसे मिली थी, कभी उसके किस्से सुनाए गए? मुफ्त में मिली थी. जुमा-जुमा आए. और दो चार दस साल बाद उनके अपाइंटमेंट लेटर टाइप हो गए मुग़ल दरबार से. वह लूट का अपाइंटमेंट लेटर था. और वह एक दूसरे लूटतंत्र के सामने ही ख़त्म हुआ. लूटतंत्र को तो ख़त्म ही होना है. ठीक ही हुआ.
माफ़ करें- भारत अपने साहस, संघर्ष, धैर्य, त्याग, करुणा, बलिदान, योग्यता और परंपरा के लिए कोई भी कीमत चुकाने की वजह से जिंदा रहा. अकबर जैसे महान शासकों के दौर में भी जजिया भरा है हमने, पर टूटे नहीं हैं. यह धार्मिक टैक्स उन लोगों के लिए पहाड़ की तरह था जो सामाजिक/आर्थिक पायदान में सबसे नीचे थे. और जो तलवारों की चोट से भी नहीं झुके उन्हें तोड़ने के लिए था. वे हैं आज भी. कल भे एग्ठे. हमेशा रहेंगे.और उस साहस, उम्मीद के भरोसे हैं जिसे हमारे लड़ाकों ने अनवरत संघर्ष की वजह से जिंदा रखा. जरूर हारते रहे हैं, लेकिन वे हारकर भी बहादुर हैं. हंसते-हंसते सिर कटा दिया, झुके और टूटे नहीं हैं. गिडगिड़ाया नहीं. रोए नहीं. आगे जिंदा भी रहेंगे. हजारों हजार साल तक क्योंकि अब उन्हें झुकाना-तोड़ना असंभव है. बावजूद कि युद्ध के तरीके बदल चुके हैं.
दासता के खिलाफ जो पहला क्रांतिकारी खड़ा हुआ वह कौन था- उनके दर्शन क्या थे? वह शत्रु की सुविधा वाली जमीन पर नहीं लड़ता था. वह उस जमीन पर और उस तरीके लड़ता था जहां तय होता था कि जीत उसी की होगी. भले शत्रु कितना ही ताकतवर क्यों ना हो. और वह जीता क्योंकि उसकी प्रेरणा महाराणा प्रताप थे. वह अजेय मरा. वह शिवाजी महाराज थे.
लेकिन...
अब लोकतंत्र की प्रक्रियाओं के तहत गुंजाइश तलाशी जा रही है. बावजूद कि जब तलवार के जरिए प्रभुत्व बनाने की कोशिशें हो रही थीं उसके साथ-साथ किताबों के जरिए भी सांस्थानिक रूप से (बादशाहों की आत्मकथाओं के जिक्र पर ध्यान दें) भ्रम और मायाजाल तलाशा जाने लगा था. और ये किताबें मजहबी बिल्कुल नहीं थीं. हमारी धरती पर ज्ञान के मायने तलवार चलाने वालों की बुद्धि ने बदल दिए. भगवान बुद्ध से भी बहुत पहले उस धरती पर मायने बदले गए, जहां ज्ञान और तलवार हजारों-हजार साल पहले ही पृथक हो चुके थे. दोनों के रास्ते जुदा हो चुके थे. क्या हमारी परंपरा में तलवार और ज्ञान अलग नहीं होते तो यहां जैनियों का बोलबाला रहता. क्यों भूलते हैं कि जैन धर्म के सभी तीर्थंकर क्षत्रिय कुल से थे.
और गौतम तलवार लेकर नहीं निकले थे. गौतम को पूजने वाले भी चक्रवर्ती थे. पर वे भी देश-दुनिया में कहां-कहां नहीं गए, एक उदाहरण नहीं मिलेगा कि वे तलवार लेकर पहुंचे कहीं. सिखों की बात नहीं करता क्योंकि वे मध्यकाल में हैं. उन्हें एक विशेष आधुनिकता से प्रभावित बताया जाता है. बावजूद कि गुरुनानक महाराज भी तलवार लेकर नहीं निकले थे. सबसे बड़ी बात कि हमने आदिम परंपरा में ही तलवार और ज्ञान को पृथक नहीं किया होता तो कम से कम जैन और बुद्ध पनप नहीं पाते? और बुद्ध के बाद आदि शंकर की व्यापकता नहीं होती. हम हजारों साल पहले दुनिया से बहुत अलग थे. क्योंकि हमने समूचे समाज को सामरिक युद्धों में नहीं घसीटा. उसे ज्ञान और वैचारिक चयन के दायरे में रहने दिया. भारत अपने चयन के साथ ही है आज तक.
भला पुरखों का चयन खराब कैसे हो सकता है. पिता गलत फैसला नहीं लेता है कभी.
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