भारत में अपनी ही भाषा और संस्कृति को लेकर अजीब सी भसड़ मची है. घृणा नजर आती है. संस्कृत को अछूत और पता नहीं क्या-क्या घोषित कर दिया गया. हाल ही में छठ पर्व, असल में किस धर्म का हिस्सा है- यह बताने की होड़ मची है. जातीय विभाजन तक किया जा रहा और उसी आधार पर सिद्ध कर दिया गया कि असल में यह बुद्ध परंपरा का त्योहार है. बावजूद कि बुद्ध किस परंपरा के हैं? यह जानने समझने में दिलचस्पी नहीं. छठ, का बुद्धिष्ट त्योहार घोषित हो जाना भर क्या उसके रूप रंग को बदल देगा. भारतीयता, ख़त्म हो जाएगी. वह तो उतना ही भारतीय रहेगा, जितना है. बावजूद विश्लेषण पर आगे बढ़ने से पहले छठ और हैलोवीन को लेकर फिलहाल क्या कुछ चल रहा है- यहां क्लिक कर पढ़ सकते हैं. असल में यह बहुत स्वाभाविक है कि जो देश हजार साल गुलामी में रहा हो और सिलसिलेवार युद्दों में जूझता ही रहा, छल-कपट से हमेशा लहू-लुहान होता रहा, जिसे घुट्टी में पिलाया गया कि भारत सांप-बिच्छुओं का देश है- स्वाभाविक है कि 75-100 साल की आजादी से वह यकीन नहीं करेगा कि वाकई में कभी आर्थिक, राजनीतिक, सामरिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक मामले में विश्वगुरु ही था.
यकीन करना ना करना अलग बात है. लेकिन दुनिया की प्राचीन भाषाओं संस्कृतियों में सबूत तो हैं. कुर्सी के हत्थे कसकर पकड़ लें. क्योंकि आगे हम संक्षिप्त रूप से छठ की जो कहानी रूस की जमीन पर खड़े होकर बताने जा रहे हैं, वह आपकी स्थापित मान्यता को तार-तार करने वाला है. छठ की पिछली स्टोरी में ही हम बता देते. मगर लगा कि चलो, जाने भी दो. बावजूद कुछ शोधार्थियों की चुल शांत नहीं हो रही तो हम जिस कहानी को यहां कहने आए हैं उससे पहले "छठ उवाच" हो जाए. सांप बिच्छुओं के देश ने दुनिया को उजाला दिखाया था. उनमें योग्यता थी. वे विश्वगुरु थे या नहीं, उसके भी सबूत मिल जाते हैं. बहुत प्रयास का काम नहीं है. कम से कम भारत...
भारत में अपनी ही भाषा और संस्कृति को लेकर अजीब सी भसड़ मची है. घृणा नजर आती है. संस्कृत को अछूत और पता नहीं क्या-क्या घोषित कर दिया गया. हाल ही में छठ पर्व, असल में किस धर्म का हिस्सा है- यह बताने की होड़ मची है. जातीय विभाजन तक किया जा रहा और उसी आधार पर सिद्ध कर दिया गया कि असल में यह बुद्ध परंपरा का त्योहार है. बावजूद कि बुद्ध किस परंपरा के हैं? यह जानने समझने में दिलचस्पी नहीं. छठ, का बुद्धिष्ट त्योहार घोषित हो जाना भर क्या उसके रूप रंग को बदल देगा. भारतीयता, ख़त्म हो जाएगी. वह तो उतना ही भारतीय रहेगा, जितना है. बावजूद विश्लेषण पर आगे बढ़ने से पहले छठ और हैलोवीन को लेकर फिलहाल क्या कुछ चल रहा है- यहां क्लिक कर पढ़ सकते हैं. असल में यह बहुत स्वाभाविक है कि जो देश हजार साल गुलामी में रहा हो और सिलसिलेवार युद्दों में जूझता ही रहा, छल-कपट से हमेशा लहू-लुहान होता रहा, जिसे घुट्टी में पिलाया गया कि भारत सांप-बिच्छुओं का देश है- स्वाभाविक है कि 75-100 साल की आजादी से वह यकीन नहीं करेगा कि वाकई में कभी आर्थिक, राजनीतिक, सामरिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक मामले में विश्वगुरु ही था.
यकीन करना ना करना अलग बात है. लेकिन दुनिया की प्राचीन भाषाओं संस्कृतियों में सबूत तो हैं. कुर्सी के हत्थे कसकर पकड़ लें. क्योंकि आगे हम संक्षिप्त रूप से छठ की जो कहानी रूस की जमीन पर खड़े होकर बताने जा रहे हैं, वह आपकी स्थापित मान्यता को तार-तार करने वाला है. छठ की पिछली स्टोरी में ही हम बता देते. मगर लगा कि चलो, जाने भी दो. बावजूद कुछ शोधार्थियों की चुल शांत नहीं हो रही तो हम जिस कहानी को यहां कहने आए हैं उससे पहले "छठ उवाच" हो जाए. सांप बिच्छुओं के देश ने दुनिया को उजाला दिखाया था. उनमें योग्यता थी. वे विश्वगुरु थे या नहीं, उसके भी सबूत मिल जाते हैं. बहुत प्रयास का काम नहीं है. कम से कम भारत के मामले में. अब यूपी के फर्रुखाबाद की वजह से आप काम्पिल्य को पहचान ना पाए तो यह भूल आपकी है? प्राचीन भाषाओं और प्राचीन शहरों के नाम में बहुत कुछ छिपा रहता है. भारत से बाहर दूसरे क्षेत्रों में भी सूर्यवंशियों का राज था. लोग कहेंगे- पागल हो गया, या फिर वाट्सएप यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया है क्या?
आप चाहे जो समझें, ऐतिहासिक साक्ष्य हैं कि जापान, पेरू और मिस्र आदि देशों में इंका राजा सूर्यवंशी थे. भारतीय ज्योतिष को एक बार फिर गौर से चेक करिए. भारतीय ज्योतिष पर गौर करिए. वहां सूर्य को "इन" भी कहा गया है. पर्यायवाची असल में मनुष्य के साथ शब्दों की विकास यात्रा और उनका इतिहास भी हैं. सूर्य की पूजा सिर्फ बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश भर में नहीं थी, बल्कि एक जमाने में भारत के तमाम केन्द्रों समेत दुनिया के कई देशों में सूर्य पूजा होती थी. 1987 में एक खोज हुई जिससे निष्कर्ष निकला कि रूस के आर्काइम में भी एक प्राचीन सूर्य पीठ है. कहते यह भी हैं कि इस सूर्य पीठ को "यम" ने बनवाया था. भारत के भी अलग-अलग शहरों में सूर्य को समर्पित पीठ हैं. ग्रीक और रोमन सभ्यता में भी सूर्य के पीठ थे. आप उनका इतिहास उठाकर देख लीजिए. ताज्जुब होगा कि आर्काइम (रूस) के सूर्यपीठ की खोज से कई दशक पहले भारत में एक किताब आई थी संस्कृत में- इंद्रविजय. इस किताब में आर्काइम सूर्य पीठ का बिल्कुल सटीक विवरण प्रस्तुत किया गया था. यह किताब मधुसूदन ओझा ने लिखी थी और यह अमेजन पर भी उपलब्ध है.
रूस में सूर्य मंदिर खोजे जाने से सालों पहले भारतीय लेखक ने उसकी घोषणा कर दी थी
एशिया और यूरोप की सीमा जहां मिलती है, वहां एक जगह है हेलेसपौंट. कई शोधों में निष्कर्ष निकला है कि यह क्षेत्र भी सूर्यपूजा का बहुत बड़ा केंद्र था. 1931 में माधुरी पत्रिका में चंद्रशेखर उपाध्याय ने "रूसी भाषा और भारत" को लेकर एक लेख लिखा था. इसमें उन्होंने 3000 शब्दों की एक सूची भी बताई थी. मजेदार यह है कि आज की तारीख में भी रूस और बाल्टिक के तमाम क्षेत्रों में उन शब्दों का अर्थ वही है जो वेदों में है. उसी में एक टिप्पणी है कि रूस में भी सूर्यपूजा के लिए ठेकुआ बनाया जाता था. तो छठ पर्व को व्यर्थ की बहसों में उलझाने और उसके आसपास विभाजन की राजनीति तैयार करने वालों को सूर्यपूजा, उनके केन्द्रों और परंपराओं की हकीकत जानकर धक्का लग सकता है. बावजूद कि हकीकत से उनका दूर-दूर तक कोई वास्ता नजर नहीं आता. रूस या बाल्टिक क्षेत्रों, जिसमें अधिकांश यूरोपीय देश हैं- वहां भी सभ्यता भारत से ही होकर पहुंची. भारत यूरोपीय भाषा परिवार में भारतीय शब्दों की साम्यताएं आज भी कोई समझना चाहे तो समझ सकता है.
जो बीत गई, वह बात गई. फिलहाल यहां हमारी बातचीत का मकसद छठ या उसके क्षेत्रों का पता लगाना या कुछ स्थापित करना नहीं है. छठ कहां का है, किसका है- इसे मनाने वालों ने कभी ध्यान नहीं दिया. असल में फर्क उनपर पड़ रहा है जो पहले इसे खारिज करते थे. खारिज नहीं हुआ तो अब उसमें स्टेक लेना चाहते हैं. खुशी खुशी उन्हें वाजिब स्टेक दिया जाए. कुछ देने में टैक्स थोड़े लगता है. हम तो यहां एक अलग और दिलचस्प कहानी साझा करने आए हैं. उसमें बाल्टिक क्षेत्र भी अहम पड़ाव था तो लगे हाथ छठ और ठेकुआ डिबेट की बहस पर कुछ शब्द लिख दिया गया.
बाल्टिक क्षेत्र में एक देश है लिथुआनिया. यह कभी यूरोप का सबसे बड़ा देश हुआ करता था. और भारत की तरह ही प्राचीन संस्कृति से संपन्न देश था. कुछ निष्कर्षों में दावा किया जाता है कि ईसा से बहुत पहले भारतीय जनजातियाँ वहां पहुंची थीं. स्थानीय जनजातियों के साथ घुलमिल गए और इस तरह वहां कई बाल्टिक जनजातियों का जन्म हुआ, जिसने सभ्यता का निर्माण किया. यह इलाका प्रमुख केंद्र था. दुनिया की दूसरी प्राचीन सभ्यताओं के साथ भी इनके गहरे संबंध थे. जिसमें ग्रीक और रोमन तक शामिल थे. हालांकि 1100 के आसपास ईसाई मिशनरीज के पहुंचने और व्यापक धर्मांतरण के बाद लिथुआनिया की संस्कृति यूरोप के अन्य देशों की तरह बहुत ज्यादा संक्रमित हुई और उसका मूल स्वरुप बदल गया. उनकी अपनी संस्कृति आज की तारीख में वैसी नहीं है जिस तरह हमारी है. मगर उनकी लिथुआनियाई भाषा दुनिया की सबसे प्राचीन जीवित भाषाओं में से एक है और आज भी उसका वजूद बना हुआ है. इस भाषा का भारतीय भाषाओं खासकर संस्कृत से जबरदस्त संबंध है. जिसका जिक्र ऊपर चंद्रशेखर उपाध्याय के शोधपरक लेख के साथ किया गया है.
सती जिन्होंने मन्त्रों को पॉप म्यूजिक में आत्मसात किया, नंगे पैर पर फॉर्म करती हैं
तो बात ऐसी है कि लिथुआनिया में जन्मी एक पॉप सिंगर और म्यूजिशियन हैं जिनके बारे में भारत के लोग नहीं जानते होंगे. वे सती के नाम से मशहूर हैं. दुनिया उन्हें सती एथनिका के नाम से जानती है. हालांकि उनका जन्म नाम "वायोलेटा" है. सती ने भारतीय धर्मशास्त्रों और पुराणों के श्लोकों को संगीत के जरिए ब्रांड बना दिया है. यूट्यूब पर सती एथनिका के नाम से उनका चैनल है और उस पर उनके तमाम गानों को सुना जा सकता है. सती लिथुआनिया और रूस समेत यूरोप और दुनिया के कई हिस्सों में लाइव कॉन्सर्ट कर चुकी हैं. उनका बैंड जबरदस्त है. स्टेज पर जब वे शिव, काली, राम, गायत्री और गणेश से जुड़े वैदिक श्लोकों को गाकर सुनाती हैं तो उनकी आवाज और म्यूजिक बीट्स सुनकर रौंगटे खड़े हो जाते हैं. लाइव कॉन्सर्ट में हजारों हजार लोग उनके साथ गाने लगते हैं और अनंत में झूमते दिखते हैं. वेस्टर्न इंस्ट्रूमेंट को भारतीय वाद्ययंत्रों और वैदिक श्लोकों के जरिए सती, संगीत का अनोखा जादू रचती हैं. उसे सुनकर शब्दों के मायने ना समझने वाले भी खुद को थिरकने से नहीं रोक पाते.
भारत "सामवेद" की जन्मभूमि है. कृष्ण ने गीता में सामवेद को लेकर कहा था- "सामवेदश्च वेदानां यजुषां शतरुद्रीयम्". भारतीय परंपरा में इसे ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग का संगम कहा गया है. हजारों साल पहले ऋषियों ने सामवेद में मंत्रों को संकलित किया और गायन की कला और प्रकार बताया. स्वर, ताल, लय, छंद, गति, मंत्र, राग, नृत्य मुद्रा, भाव सामवेद से ही निकले हैं. बावजूद सामवेद की धरती पर पॉप कल्चर में प्राचीन मंत्रों के नए प्रयोग को लेकर कितनों ने विचार किया? लेकिन सती और उनके बैंड की पहचान आज की तारीख में उसी वजह से है. सती की खूबी यह भी है कि उन्होंने इसे सिर्फ पेशेवर तौर पर आत्मसात नहीं किया बल्कि इसके प्रति उनका समर्पण भी दिखता है. अपने बैंड के साथ जब वे लाइव परफॉर्म करती हैं तो नंगे पैर ही रहती हैं. निश्चित ही वह ऐसा श्लोकों की पवित्रता की वजह से करती हों. परफॉर्म के दौरान उनकी एनर्जी देखने लायक होती है. दुनिया के तमाम पार्टी सॉन्ग उनके पॉप म्यूजिक के आगे कुछ भी नहीं हैं. और वे क्या गाती हैं? धार्मिक श्लोक.
नीचे शिव मंत्रों को लेकर सती और उनके बैंड की ताकत का एहसास करिए.
चर्चों में भी श्लोक गाती हैं, मोदी के सामने कर चुकी हैं कॉन्सर्ट
सती चर्चों में भी श्लोकों पर ही परफॉर्म करती हैं. उनके यूट्यूब चैनल पर सेंट पीट्सबर्ग के चर्च में उनकी परफॉर्म देख सकते हैं. यह भी जान लीजिए कि उन्होंने एक कॉन्सर्ट पीएम नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में भी किया है. सती को भारत और उसकी संस्कृति से बेपनाह मोहब्बत है और वे इसी में जीती मरती हैं. जबकि संगीत सती को संगीत पारिवारिक विरासत में नहीं मिली थी. उनका जन्म लिथुआनिया के एक सामान्य वकील और पत्रकार दंपति के घर हुआ था. सात साल की उम्र में उन्हें एक म्यूजिक स्कूल में भेज दिया गया. उनके अध्यापकों में से एक लिथुआनिया ओपेरा के मशहूर गायक थे. उन्होंने सती की दमदार आवाज को पहचाना और पॉप म्यूजिक में उन्हें प्रोत्साहित किया. शुरू में वह मूलनाम से ही गाती थीं. लेकिन भारतीय संगीत और धर्मशास्त्रों से संपर्क होने के साथ वह उसमें रचती बसती गईं और पूरा जीवन दुनिया को एक नया संगीत देने में लगा दिया है. सती की उम्र फिलहाल 46 साल है. वे शादीशुदा हैं. उनके तीन बच्चे हैं. अजुओलस, अरिजास और इंद्र. वे नशीली दवाओं और अल्कोहल की घोर निंदा करती है और पूरी तरह से शाकाहारी हैं.
सती की आवाज का नशा अलग ही है.
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