सत्य और ज्ञान की तलाश मिथकीय अवधारणा नहीं है अपितु मिट्टी और प्रकृति से जुड़ने की वास्तविक प्रक्रिया है. ज्ञान की तलाश के लिये यायावर होना पड़ता है. अगर ऐसा न होता तो गौतम बोधि वृक्ष के नीचे साधनारत हो कर बुद्ध न हो पाते अपितु अपने राजप्रासाद के ग्रंथागार में ही हो गये होते? भगवान महावीर के बारे में कहा जाता है कि वे बारह वर्षों तक कठिन साधनारत तथा खोजी रहे. तेरहवें वर्ष उन्हें जम्मियग्राम के निकट ऋतुपालिका नदी के तट पर कैवल्य अर्थात ज्ञान की प्राप्ति हुई.उनकी बलिष्ठ काया थी किंतु उससे बढ़ कर धैर्य और संकटों का सामना करने का संबल भी था. वे साधनारत रहे तो न कभी अपने घावों को मरहम लगाया, न कोई औषधि ली अपितु एक लक्ष्य केवल- ज्ञान. वे धीरजवान हैं इसीलिये तो महावीर हैं. मैं बूझने की कोशिश कर रहा हूं कि तलवारों-बंदूखों वाली वीरता कितनी खोखली है!! यथार्थ में अहिंसा ही नहीं पराक्रम की भी वास्तविक परिभाषा भगवान महावीर ही हैं. कैवल्य प्राप्ति के पश्चात भगवान महावीर क्रांति की राह पर चल निकले और उस समाज को बदलने का दायित्व अपनी शिक्षाओं में अंतर्निहित कर लिया जो कुंद था, जड़ हो गया था और रूढिवादिता नें जिसके पैरों में मजबूत बेडियां डाल दी थीं.
महावीर को केवल धर्म से नहीं अपितु राष्ट्र निर्माण से भी जोड़ कर देखना चाहिये और हमें नहीं भूलना चाहिये कि अहिंसा की सबसे बारीक और असाधारण परिभाषा महावीर ने ही दी थी. वे कहते हैं- जं किंचि सुहमुआरं पहुत्तणं पयइ सुन्दरम जं च.आरूग्गम सोहग्गम तं तमहिंसा फलं सव्वं॥ अर्थात- संसार में जो कुछ भी श्रेष्ठ सुख, प्रदीप्त, सहज सुन्दरता, आरोग्य एवं सौभाग्य दिखाई देते हैं वे सब अहिंसा के ही फल हैं (भक्त प्रतिज्ञा). इस बात को समझने में मेरी सहायता महावीर के एक अन्य उपदेश ने भी की जहां वे कहते हैं– सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं.तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं॥ अर्थात– संसार में सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरना नहीं चाहते, इसलिए प्राणिवध को घोर समझ कर निग्रन्ध उसका परित्याग करते हैं...
सत्य और ज्ञान की तलाश मिथकीय अवधारणा नहीं है अपितु मिट्टी और प्रकृति से जुड़ने की वास्तविक प्रक्रिया है. ज्ञान की तलाश के लिये यायावर होना पड़ता है. अगर ऐसा न होता तो गौतम बोधि वृक्ष के नीचे साधनारत हो कर बुद्ध न हो पाते अपितु अपने राजप्रासाद के ग्रंथागार में ही हो गये होते? भगवान महावीर के बारे में कहा जाता है कि वे बारह वर्षों तक कठिन साधनारत तथा खोजी रहे. तेरहवें वर्ष उन्हें जम्मियग्राम के निकट ऋतुपालिका नदी के तट पर कैवल्य अर्थात ज्ञान की प्राप्ति हुई.उनकी बलिष्ठ काया थी किंतु उससे बढ़ कर धैर्य और संकटों का सामना करने का संबल भी था. वे साधनारत रहे तो न कभी अपने घावों को मरहम लगाया, न कोई औषधि ली अपितु एक लक्ष्य केवल- ज्ञान. वे धीरजवान हैं इसीलिये तो महावीर हैं. मैं बूझने की कोशिश कर रहा हूं कि तलवारों-बंदूखों वाली वीरता कितनी खोखली है!! यथार्थ में अहिंसा ही नहीं पराक्रम की भी वास्तविक परिभाषा भगवान महावीर ही हैं. कैवल्य प्राप्ति के पश्चात भगवान महावीर क्रांति की राह पर चल निकले और उस समाज को बदलने का दायित्व अपनी शिक्षाओं में अंतर्निहित कर लिया जो कुंद था, जड़ हो गया था और रूढिवादिता नें जिसके पैरों में मजबूत बेडियां डाल दी थीं.
महावीर को केवल धर्म से नहीं अपितु राष्ट्र निर्माण से भी जोड़ कर देखना चाहिये और हमें नहीं भूलना चाहिये कि अहिंसा की सबसे बारीक और असाधारण परिभाषा महावीर ने ही दी थी. वे कहते हैं- जं किंचि सुहमुआरं पहुत्तणं पयइ सुन्दरम जं च.आरूग्गम सोहग्गम तं तमहिंसा फलं सव्वं॥ अर्थात- संसार में जो कुछ भी श्रेष्ठ सुख, प्रदीप्त, सहज सुन्दरता, आरोग्य एवं सौभाग्य दिखाई देते हैं वे सब अहिंसा के ही फल हैं (भक्त प्रतिज्ञा). इस बात को समझने में मेरी सहायता महावीर के एक अन्य उपदेश ने भी की जहां वे कहते हैं– सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं.तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं॥ अर्थात– संसार में सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरना नहीं चाहते, इसलिए प्राणिवध को घोर समझ कर निग्रन्ध उसका परित्याग करते हैं (दशवैकालिक). मुझे लगता है कि महावीर समय शास्वत हैं और उन्होंने जो मार्ग बताया है वह संभवत: आज भी परिवर्तन, वीरता और क्रांति का ही मार्ग है, यही मार्ग जिसे महात्मा गाँधी नें जन आन्दोलन बनाया.
भगवान महावीर बारह वर्षों तक कठिन साधना में रहे |
स्वयं महावीर नें कम मुश्किल हालातों का सामना नहीं किया अपितु जब वे अपने सिद्धांतो के प्रचार में निकलने लगे तो लोगों नें उन्हें पागल समझा, किसी नें पत्थर फेंके तो किसी नें डंडे से मारा, किसी नें उन पर कुत्ते छोड़ दिये. महावीर नें स्वयं अपना रास्ता बनाया जिस पर लाखों लोग चले और बहुत बड़ा बदलाव एक कट्टर युग नें देखा था. आज देश में कई जगहों पर क्रांति और जन सरोकारों के नाम पर हिंसा का जो तांडव चल रहा है उसे मैं भगवान महावीर के दिखाये रास्तों के आईने में समझने की कोशिश करता हूँ तो पाता हूं कि हिंसक क्रांतियां एक क्रूर उद्बोधन हैं न तो इससे कोई बदलाव आयेगा न ही कोई ऐसी सुबह आयेगी जिससे सामाजिक समरसता स्थापित हो सके बल्कि लाशों के अम्बार लगते जायेंगे जिनपर बैठ कर एक सत्ता से दूसरी सत्ता हटाने-बदलने का खेल चलता रहेगा.व्यवस्था कैसे सुधारी अथवा बदली जा सकती है उसके लिये बंदूक दिखाती किताबों से पहले कोई महावीर को समझने का ही यत्न कर ले?
इस सोच तक पहुँचने में मेरी एक जैन कथा नें बहुत सहायता की.“जैन इतिहास की प्रसिद्ध कथायें” शीर्षक के केवल डेढ़ रुपये की यह पुस्तक मुझे नालंदा में मिली थी जिसका प्रकाशन समय है 1974, इसी से कथा उद्धरित कर रहा हूं. कहते हैं मगध जनपद की राजधानी राजगृह में एक समय पुष्पाराम नाम का बागीचा था जिसमें अर्जुन नाम का माली कार्य करता था. इसी बागीचे के निकट एक यक्ष का मंदिर भी था जिसपर अर्जुन को आस्था थी. एक दिन वह यक्ष के मंदिर में प्रार्थना कर रहा था तथा वहीं निकट उसकी पत्नी बन्धुमती फूल तोड़ रही थी तभी कुछ लोगों नें बदनीयती से वहं धावा बोल दिया. माली को यक्ष के मंदिर में ही एक स्तम्भ से बांध दिया गया और उसके सामने ही उसकी पत्नी के साथ दुराचार किया जाने लगा. एक निरीह, दुर्बल तथा असहाय माली के सामने पहला रास्ता यक्ष ही था जिससे उसने गुहार लगाई किंतु पत्नी की आर्तनाद असह्य होते ही उसके भीतर एसी कसमसाहट नें जन्म लिया जिससे वह अपरिचित था. गुस्से से पागल माली ने स्वयं को बंधन से आजाद करने के लिये हाथ पांव मारे और वह रस्सियों को तोड़ने में सफल हो गया. पास ही यक्ष का मुद्गर रखा था, किसी अनजान शक्ति के वशीभूत उसनें मुद्गर उठाया और अत्याचारियों पर टूट पड़ा. कुछ धराशाही हो गये कुछ भाग गये.
यहां तक कहानी उचित है और अन्याय का प्रतिकार करने के वैकल्पिक मार्ग की अनुपस्थिति में एक असहाय व्यक्ति के भीतर के संबल का जगना बताती है. इसके बाद संभवत: अर्जुन में मनोवैज्ञानिक बदलाव हुए उसे अपने भीतर एक अनोखी ताकत का आभास हुआ और लगा कि इस शक्ति से वह कुछ भी कर सकता है. अर्जुन नें आतंक प्रसारित करने का रास्ता चुना. उसे हत्या अथवा प्रताड़ना में आनंदानुभूति होने लगी. वह मुद्गर उठाये जंगल में भटकता और राहगीर को लूट लेता अथवा उनकी हत्या कर देता. उसे लोगों की आँखों में अपने लिये भय तथा नाम सुन कर थर थर कांपते लोग प्रिय थे. हरा भरा पुष्पाराम बागीचा रक्तरंजित और लाल हो गया था.इसी दौरान महावीर की शिक्षाओं से प्रभावित एक युवक सुदर्शन पुष्पाराम से गुजरा. तभी उसके सामने क्रूर अर्जुन आ गया. अर्जुन आश्चर्य चकित था कि सुदर्शन की आँखों में मृत्यु का भय नहीं था.उसनें मुद्गर दिखाया, धमकाया लेकिन व्यर्थ? यह कैसा व्यक्ति है जो मरने को प्रस्तुत है और भागता नहीं डटा हुआ है? यह कैसा व्यक्ति है जो कहता है शस्त्र छोड़ो अहिंसा एक सुन्दर रास्ता है? यह कैसा व्यक्ति है जिसे अपने रास्ते पर इतना भरोसा है जिसके लिये स्वयं कुर्बान होने को तो प्रस्तुत है किंतु अन्य किसी की कुर्बानी अथवा नुकसान पहुँचाने की चेष्टा नहीं? कहते हैं अर्जुन के भीतर का दैत्य उसी क्षण परास्त हो गया और विचार की एक लहर दौड़ पड़ी. वह बदल गया था और बदलाव के रास्ते पर चलना चाहता था. निकल पड़ा महावीर की खोज में उसी राह पर जिस ओर सुदर्शन नें इशारा किया था. महावीर नें अपने चरणों पर गिर पड़े अर्जुन को क्षमा-अहिंसा और प्रेम का बोध थमा दिया. कहानी यहां समाप्त नहीं होती अपितु गंभीर हो जाती है. बदला हुआ अर्जुन राजगृह पहुंचता है तो वही लोग जिन पर उसने अत्याचार किये पत्थर मारने लगते हैं, गालियाँ देते हैं….अर्जुन महावीर के पथ का अब अनुगामी है वह बदलाव का रास्ता जान गया है इसलिये सब धर्य से सहता है. वह स्वयं बदलने के बाद फिर सबसे पहले बदलता है अपने उस बागीचे को जिसका कभी वह माली हुआ करता था. उद्यान सुन्दर फूलों से महक उठता है. शनै: शनै: माली की सौम्यता और क्षमा की खुशबू फैलती है राजगृह में और उसके अपराध भुला दिये जाते हैं. बदल जाता है एक पूरा परिवेश. बदलाव हो-हल्ला नहीं है, बदलाव सोच और प्रतिपादन की लम्बी प्रक्रिया है.
भगवान महावीर की शिक्षायें इतनी गूढ़ और दार्शनिक हैं कि संभवत: उन्हें आत्मसात करने में जीवन छोटा पड़े. इसका अर्थ यह भी है कि वे इतने पक्के दार्शनिक विचार हैं कि यदि ठहर कर उन्हें सोचा भर जाये तो कितनी ही वर्तमान की समस्याओं का विश्लेषण उपलब्ध हो जाता है. मैं उपसंहार में जैन मतानुसार सृष्टि की नित्यता, अनीश्वरवाद, आत्मवाद, कर्मवाद, ज्ञानवाद, उल्लेखित पाँच महाव्रतों अथवा अठारह पापों आदि की चर्चा नहीं करूंगा अपितु स्याद्वाद से अपनी बात पूरी करना चाहता हूं. वर्तमान में हम किसी भी समस्या का विश्लेषण केवल दो बातों को सामने रख कर करते हैं– पक्ष अथवा विपक्ष; जिन्दाबाद अथवा मुर्दाबाद; हार अथवा जीत. महावीर किसी विषय के विश्लेषण का मार्ग बताते हैं कि उस पर ज्ञान अथवा न्याय सात प्रकारो से हो सकता है– शायदहै; शायदनहीं है; शायदहै और नहीं है; शायदकहा नहीं जा सकता; शायदहै किंतु कहा नहीं जा सकता; शायदनहीं है और कहा नहीं जा सकता; शायद है, नहीं है और कहा नहीं जा सकता. न्याय के सात क्रमिक पद के कारण यह सप्तभंगीनय कहलाता है. एक की समस्या, विषय अथवा वस्तु को इन सात पैमानों में तौल कर देखने के कई मंथन अवश्यम्भावी हैं तभी सही चिंतन संभव है. महावीर आपकी इस सोच में तो विचारधाराओं को ही विचार थमा देने की क्षमता है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.