कुछ दिन पहले मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी का बयान सुना, आईआईटी मे संस्कृत मे पढ़ाने को लेकर. थोड़ा डर भी लगा और आश्चर्य भी हुआ. डर इसलिये क्योंकि जिस सरकारी स्कूल में मैं पढ़ता था वहाँ छठी कक्षा से लेकर आठवीं तक अंग्रेजी और हिन्दी के साथ संस्कृत पढ़ना अनिवार्य था. सच कहूँ तो इस विषय से बहुत डर लगता था क्योंकि कभी भी 5-6 नंबर से ज्यादा नहीं मिले थे. जैसे तैसे संस्कृत के अध्यापक लतियाते-जुतियाते पास कर देते थे. सिर्फ मैं ही नहीं, ऐसे बहुत से विद्यार्थी थे जो हिन्दी और अंग्रेजी में अच्छे थे लेकिन संस्कृत में लाचार थे. इस माह जब मेरी बेटी पाँचवी कक्षा में गई तब उसको फ्रेंच या संस्कृत में से कोई एक विषय चुनना था. उसने खुद फ्रेंच को चुना. मैंने पूछा फ्रेंच क्यो, संस्कृत क्यों नहीं? उसका सीधा सा जवाब था कि क्या मुझे मंदिर में पंडितजी बनना है या संस्कृत का टीचर. वह साइंटिस्ट या एस्ट्रोनॉट बनना चाहती है.
संस्कृत को आईआईटी पर थोपने जा रही हैं स्मृति ईरानी |
खैर मुद्दे पर आते हैं. एक जमाने मे पाली भाषा की तूती बोलती थी. भारत में ये विद्वानो की भाषा थी लेकिन इतनी क्लिष्ट थी और आम लोगों से इतनी दूर थी कि इस भाषा ने खुद बख़ुद दम तोड़ दिया. कोई भी भाषा हो, वो सिर्फ लोगों के बीच संवाद कायम करती है लेकिन अगर उसे खुद को विद्वान साबित करने का माध्यम बना दिया जाये तो वो आत्ममुग्धा की अवस्था होती है. दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी भी कालेज में एक जमाने में किसी को कहीं दाखिला नहीं मिलता था, तब संस्कृत की सुरक्षित सीट बचती थी. आज भी हालात ऐसे ही हैं तो कुछ कहा नहीं जा सकता. बिहार में दर्जनों संस्कृत महाविध्यालय हैं, जो 1 या 2 कमरों में चलते है. विद्यार्थी सिर्फ रजिस्टरों पर उपस्थित मिलते हैं या अगर कभी औचक निरीक्षण हो तो आसपास के लोगों को बैठा दिया जाता है. यहाँ तक कि वहाँ के प्राध्यापक प्रथमा-मध्यमा करने के लिए छात्रों की मान मुन्नवल करते हैं.