इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, दिल्ली के चेयरमैन राम बहादुर राय की पहल पर भारत विद्या प्रयोजना सीरीज के अन्तर्गत 5 अक्टूबर 2016 को आयोजित व्याख्यानमाला के पहले भाषण में जब रविंद्र शर्मा 'गुरुजी' ने अचानक बोलना समाप्त किया तो सभागार में मौजूद लोग उनके भाषण में इस कदर डूब चुके थे कि तालियां बजाना तक भूल गए. संचालक ने जब तालियों की ओर लोगों को ध्यान खींचा तब लोगों को अहसास हुआ कि आखिर गुरुजी उन्हें जिस ग्रामीण भारत के स्वप्नलोक की यात्रा पर लेकर चले गए, उस भारत केंद्रित विकास यात्रा से भारत का तथाकथित अकादमिक जगत और हमारा खुद का मानस अभी कितना अंजान है.
रविंद्र शर्मा ऊर्फ गुरुजी दिल्ली पहली बार नहीं आए और ना हीं उन्होंने पहली बार देश में किसी ख्यातलब्ध प्लेटफार्म पर भाषण दिया. देश के अनेक तकनीकी संस्थानों मसलन आईआईटी, निफ्ट समेत अनेक विश्वविद्यालयों में भारतीय प्राचीन ग्राम जीवन का मर्म समझाने, भारतीय चिंतन के प्रति लोगों में विश्वास जगाने के लिए वो नियमित भाषण देने जाते हैं. तेलंगाना में आदिलाबाद के पास उनका कला-आश्रम भारत केंद्रित चिंतन और प्रयोगों को बड़ी आधार भूमि उपलब्ध करा रहा है. अपने इसी मिशन के तहत वो इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र भी पधारे, लंबा भाषण दिया लेकिन सवाल जब भाषण से जुड़ी बातों को जमीन पर उतारने का आया तो उनके चेहरे पर भी खामोशी छा गई.
आजतक ने उनसे चर्चा सत्र के आखिर में सवाल पूछा कि आपको अगर परिवर्तन का सूत्रधार बनने का मौका मिले तो आप मौजूदा समय में कहां से शुरू करेंगे या अगर सरकार के रणनीतिकारों को सुझाव देने का अवसर मिला तो क्या कहेंगे?
रविंद्र शर्मा ने साफ किया कि जब समाज ही संचार-जाति का हो गया है तो फिर सभ्यता और संस्कृति की बात ही कहां बचेगी? आगे न लोक बचेगा न संस्कृति बचेगी क्योंकि संचार-जाति वाले समाज का ही जब पता नहीं कि आज कहां और कल कहां बसेरा होगा? सभ्यता और संस्कृति स्थिर और समृद्ध समाज के लक्षण हैं, उसी में लोक कलाएं विकसित होती हैं और उसी में शास्त्रीय कला-संगीत समृद्ध बनते...
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, दिल्ली के चेयरमैन राम बहादुर राय की पहल पर भारत विद्या प्रयोजना सीरीज के अन्तर्गत 5 अक्टूबर 2016 को आयोजित व्याख्यानमाला के पहले भाषण में जब रविंद्र शर्मा 'गुरुजी' ने अचानक बोलना समाप्त किया तो सभागार में मौजूद लोग उनके भाषण में इस कदर डूब चुके थे कि तालियां बजाना तक भूल गए. संचालक ने जब तालियों की ओर लोगों को ध्यान खींचा तब लोगों को अहसास हुआ कि आखिर गुरुजी उन्हें जिस ग्रामीण भारत के स्वप्नलोक की यात्रा पर लेकर चले गए, उस भारत केंद्रित विकास यात्रा से भारत का तथाकथित अकादमिक जगत और हमारा खुद का मानस अभी कितना अंजान है.
रविंद्र शर्मा ऊर्फ गुरुजी दिल्ली पहली बार नहीं आए और ना हीं उन्होंने पहली बार देश में किसी ख्यातलब्ध प्लेटफार्म पर भाषण दिया. देश के अनेक तकनीकी संस्थानों मसलन आईआईटी, निफ्ट समेत अनेक विश्वविद्यालयों में भारतीय प्राचीन ग्राम जीवन का मर्म समझाने, भारतीय चिंतन के प्रति लोगों में विश्वास जगाने के लिए वो नियमित भाषण देने जाते हैं. तेलंगाना में आदिलाबाद के पास उनका कला-आश्रम भारत केंद्रित चिंतन और प्रयोगों को बड़ी आधार भूमि उपलब्ध करा रहा है. अपने इसी मिशन के तहत वो इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र भी पधारे, लंबा भाषण दिया लेकिन सवाल जब भाषण से जुड़ी बातों को जमीन पर उतारने का आया तो उनके चेहरे पर भी खामोशी छा गई.
आजतक ने उनसे चर्चा सत्र के आखिर में सवाल पूछा कि आपको अगर परिवर्तन का सूत्रधार बनने का मौका मिले तो आप मौजूदा समय में कहां से शुरू करेंगे या अगर सरकार के रणनीतिकारों को सुझाव देने का अवसर मिला तो क्या कहेंगे?
रविंद्र शर्मा ने साफ किया कि जब समाज ही संचार-जाति का हो गया है तो फिर सभ्यता और संस्कृति की बात ही कहां बचेगी? आगे न लोक बचेगा न संस्कृति बचेगी क्योंकि संचार-जाति वाले समाज का ही जब पता नहीं कि आज कहां और कल कहां बसेरा होगा? सभ्यता और संस्कृति स्थिर और समृद्ध समाज के लक्षण हैं, उसी में लोक कलाएं विकसित होती हैं और उसी में शास्त्रीय कला-संगीत समृद्ध बनते हैं. लेकिन अब तो लगता है कि सारे हिंदुस्तान के सामने ही जैसे अपनी कला, संस्कृति, सभ्यता को समझाने के लिए म्यूजियम के सहारे की जरुरत पड़ जाएगी. भविष्य के लिए आज के संकेत दुखदायी हैं क्योंकि आज समाज की प्रकृति संचारी है जिसमें न रोजी-रोटी सुरक्षित है और ना ही घर-परिवार का बसेरा.
व्याख्यान में बोलते रविंद्र शर्मा |
गुरुजी ने खुले तौर पर तो मौजूदा संवैधानिक और सरकारी-प्रशासनिक ढांचे पर कोई सवाल नहीं खड़ा किया. लेकिन समाज के बिखरते ढांचे से जुड़े सवालों को गिनाते हुए ये संकेत साफ कर दिया कि मौजूदा ब्रिटिश प्रेरित व्यवस्था भारतीय ग्राम और नगर व्यवस्था के लिए कहीं से भी शुभ नहीं है. मुगल भी जिस भारतीय ग्राम समाज जीवन की संजीवनी शक्ति को नष्ट नहीं कर पाए उसे अंग्रेजों की बनाई व्यवस्था ने पूरे तौर पर नष्ट कर दिया.
अंग्रेजों ने भारत केंद्रित व्यवस्था के तंबू की एक एक खूंटी उखाड़ दी, अब तंबू भरभरा कर कुछ खंभों पर आ टिका है. इन खंभों को संभालने से भी क्या होगा क्योंकि तंबू की बुनियादी खूंटियों पर तो किसी का ध्यान ही नहीं जा रहा है. अब भारत की पुनर्रचना होगी तो हमें बीज को सुरक्षित रखने की कोशिश करनी चाहिए. हमें समझना होगा कि आखिर भारत केंद्रित व्यवस्था के खंभे हमें कहां पकड़ने हैं, खूंटी को कहां फिर से जमाना है, हमें समझना होगा कि आखिर अंग्रेजों ने कैसे कहां क्या-क्या अमूल्य नष्ट कर दिया है?
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रविंद्र शर्मा गुरुजी के भाषण के पहले विषय प्रवर्तन के दौरान कई अहम सवाल उठे. पवन कुमार ने कहा कि जिस बात को हिंद स्वराज में गांधी ने उल्लिखित किया था, आखिर वह चिंतन और वह व्यवस्था क्या थी जिसने हजारों सालों तक भारत को भारत बनाए रखा था? 17वीं सदी में भारत में विश्व की सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था थी, और तो और हमारा गैर कृषि उत्पादन भी दुनिया भर में सबसे ज्यादा था तो आखिर वह किसके बल पर था. उस व्यवस्था का डिजायन क्या था? इस समझे बगैर हम भारत की यात्रा को आखिर कैसे समझ सकते हैं?
रविंद्र शर्मा ने इन्हीं सवालों के जवाब के साथ भाषण शुरू किया. कहने लगे कि 'वर्तमान तेलंगाना के आदिलाबाद में हम पले-बढ़े, वहीं अपने निवास के 20 किलोमीटर के दायरे की दुनिया देखी. कुछ भी देखने निकलते थे तो हमें बहुत कुछ दिखने लगा. आजादी के बाद आज से 30-40 साल पहले की ये बात है, उस दौर में जब हम अपने दायरे को समझने निकले तभी ये बात भी समझ में आ गई कि पुराणों में वर्णित प्रलय का दौर जैसे आ गया है. नई सभ्यता जैसे भारत का सर्वस्व निगल जाएगी तो बीज को बचाना जरुरी है, हमने अपने गांव-देहात-कस्बों के ज्ञान को, पुरानी विद्याओं को, लोक-हुनर को संरक्षित करना शुरु किया क्योंकि पाश्चात्य प्रलय की आंधी में इसे बचाकर रखना ही सबसे बड़ी चुनौती हमारे सामने थी.'
रविंद्र शर्मा ने बात आगे बढ़ाई, भारत की आजादी के बाद आदिलाबाद के आस-पास के गांवों का ब्यौरा देना शुरु किया। 'क्या नहीं था उस वक्त के हमारे गांव में। लोहे से लेकर तमाम तरह के कागज-दफ्ती सब कुछ तो हम अपने गांव में ही अपने आंगन और घर के पिछवाड़े बनाने की कला में माहिर थे। उन दिनों भी भारत के गांवों में रौनक थी, सदियों की अंग्रेजी लूट के बावजूद गांव का स्वावलंबन मरा नहीं था। लेकिन आज आजादी के इतने साल बाद जब हम उन्हीं गांवों को देखने जाते हैं तो चारों ओर उदासी और निराशा दिखाई देती है, जैसे गांव की रौनक ही गायब हो गई, गांव की सारी कला और सारा उद्योग ही जैसे विलुप्त हो चुका है।’
रविंद्र शर्मा गुरुजी के भाषण में गंभीरता के बढ़ते इस पुट के साथ सभा में भी उन्हें सुनने की उत्सुकता बढ़ गई. रविंद्र शर्मा ने सवाल दागा- आखिर आप समझिए तो सही कि भारत में गांव क्यों बने थे? क्यों हमने गांव बसाए और गांव की कल्पना ही आखिर कहां से आई? क्यों हमने बड़े नगर बसाने में रुचि नहीं दिखाई, क्यों इंद्र का एक नाम हमारे ग्रंथों में पुरंदर यानी शहरों को नष्ट करने वाला भी पढ़ा-सुना गया.
और फिर एक एक सवाल का जवाब सामने आने लगा. 'चींटी, पशु-पक्षी अपना भोजन लेने आखिर कितनी दूर जाते हैं? परमात्मा ने सभी जीवों के आहार की व्यवस्था उनके निकट आखिर क्यों की है? इसी कुदरती-प्राकृतिक सत्य में भी ग्राम को बसाने की प्रेरणा छिपी है. प्राचीन समय में लोगों ने अपने अनुभवों से सीखा और तय किया कि सुबह से चलकर शाम को लौट आएं, बस वहीं तक हमारी दुनिया. जीवन जीने की दुनिया के इस फासले में गांव पैदा हुए लेकिन सीखने की ललक में शिक्षा के लिए सारी धरती में कहीं भी आने-जाने का फैसला पुरखों ने किया. सीखेंगे भले ही परदेश में लेकिन सीखी हुई चीज का जीवन में इस्तेमाल और प्रयोग तो अपने गांव और लोकमंगल के लिए ही करेंगे. तो इस तरह से गांव ही हमारी दुनिया थी जहां दुनिया भर में जो भी चीजें बन सकती हैं, उसे बनाने का केंद्र हमने खड़ा किया.
दूसरी जगह जीवन जीने के लिए जाने का मतलब या तो किसी की गुलामी करना या फिर कब्जा और कलह को आमंत्रण देना. प्राचीन भारतीय समाज ने दूसरों की चीज पर कब्जे की प्रवृत्ति और किसी की गुलामी करने की बात को सिरे से खारिज कर गांव को लोकमंगलकारी वरदान दिया. इस गांव की बुनियाद में जो चार चीजें सबसे अहम थीं उनमें विज्ञान, आध्यात्मिकता, कला और सामाजिक अर्थशास्त्र शामिल था. गांव की बुनियाद से जुड़े यही वो स्तंभ थे जिस पर समृद्धि की मंजिलें गांव ने तय की. जैसे प्रकृति परिपूर्ण वैसे ही परिपूर्ण बने हमारा जीवन. किसी के पास ज्यादा है तो दिखे नहीं, कम है तो कमी महसूस ना हो और भौतिक चीजों को लेकर मानसिक तनाव तो पैदा ही ना हो, यही है गांव व्यवस्था का मूल मंत्र.'
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रविंद्र शर्मा ने जाति व्यवस्था पर भी नए सिरे से रोशनी डाली. उन्होंने बताया कि आदिलाबाद के आस-पास के गांवों में 18 कलाओं से जुड़े कारीगर होते थे, हर कारीगर से जुड़ी 12 उपजातियां. एक गांव में 360 तक जातियों-उपजातियों का ब्यौरा हमने एकत्रित किया. लेकिन ये जाति आज सियासी तौर पर चर्चित जाति नहीं थीं. जाति यानी एक गांव में बहुत से विषयों के ज्ञाता. जो ज्ञाता है तो उसकी जानकारी को ज्ञाति कहा, जिसे बाद में जाति शब्द मिला. यानी जाति उसी की जिसे कुछ ज्ञात है, जिसे कुछ आता है, जो काबिल और स्वावलंबी है, उसे ज्ञाति कहा गया.
तो ज्ञाति के जरिए जाति पर नई रोशनी डाली रविंद्र शर्मा ने. संस्कृत ग्रंथों में वर्णित जाति पर भी उन्होंने सवाल उठाया और कहा कि भारतीय चिंतन जाति की कल्पना आज के अर्थों में नहीं करता था. हमारे लिए जाति का उद्भोधन विशिष्ट अर्थों में मानव जाति, राक्षस जाति के साथ वनस्पति समूह और पशुओं तक फैला हुआ था.
भारत किस कदर कला-संस्कृति और सभ्यता में समृद्ध और विविधतापूर्ण था तो रविंद्र शर्मा के अनुसार, भाषा-भोजन-भेष-भवन के डिजायन के हिसाब से ही भारत में 108 मॉडल मौजूद थे. देश में कही भी चले जाइए, हर निश्चित दूरी के बाद खान-पान, परिधान, मकानों के नक्शे और वास्तु में बदलाव साफ नजर आता था. इसके जरिए मनुष्य की पहचान आसान थी. कौन व्यक्ति समूह किस इलाके और प्रांत का रहने वाला है, इसे लोग आसानी से पहचान जाते थे. इसी में से भारतीय कला विकसित और समृद्ध हुई. हर ज्ञाति का अपना वाद्य था, अपना संगीत था, और अपनी नृत्य शैली थी.
सवाल है कि इतनी कलाएं पनपीं कैसें? ये फली-फूली किस आधार पर? रविंद्र शर्मा गुरुजी के अनुसार, हर गांव में फसल का एक हिस्सा हर परिवार गांवसभा या महाजन के पास सुरक्षित रखता था. ये हिस्सा विकलांगों, विद्वानों, जरुरतमंदों, कलाकारों के पालन-पोषण और उनके योगक्षेम के लिए रखा जाता था. ग्रामीण भारत में समय के तीन हिस्से थे. 8 घंटे सोना, 8 घंटे पेशागत कार्य, 8 घंटे निजी-पारिवारिक-आध्यात्मिक-सामाजिक जीवन के लिए. गांव में बेचने के लिए चीजें नहीं बनती थीं. कारीगर-कलाकार देने के लिए चीजें बनाते थे, वस्तु-विनिमय से समाज अन्योन्याश्रित था. पूरे ग्राम-समाज-जीवन का उद्देश्य ही सामाजिक और पारिवारिक जीवन को सुखी रखना और स्थिरता प्रदान करना था कुछ इस तरह से जैसे नदी मंद मंद बहती है तो उसके किनारों पर पशु-पक्षी-वन-फसलें और सृजन सबसे सुंदर होता है, हवा मंद-मंद बहती है तो वह लोगों को सुख देती है, सृजन और सुहाने मौसम का कारण मंद हवा बनती है.
भारतीय ग्राम जीवन शैली इस मंद गति की नदी और मंद हवा की तरह सुहावनी व्यवस्था का मूल थी जहां सृजन और कलाओँ की समृद्धि थी, लोगों के पास चिंतन-सृजन और सोचने का भरपूर अवकाश था. इसके उलट जैसे जैसे जीवन शैली तेज रफ्तार पकड़ती गई, इसका रूप नदी की बाढ़ विभीषका की तरह विकराल होता चला गया. जैसे तेज हवाएं-अंधड़ में विनाश लीला पैदा होती है, ठीक उसी तरह तेज रफ्तार जीवन शैली ने भारतीय जीवन से जुड़ी कलाओं-सृजन को जड़-मूल से ध्वस्त करने की प्रक्रिया भी तेज कर दी.
बहस...कैसे लौटेगी भारत की वो गांव की खुशबू |
रविंद्र शर्मा ने बिजली-पेट्रोल जनित बड़े कारखाने आधारित व्यवस्था पर सवाल भी खड़े किए. उदाहण देकर पूछा कि आखिर जब जीवन में सुविधाएं बढ़ीं हैं तो मूल्यों का क्षरण क्यों बढ़ गया? 30-40 साल पहले कोई अतिथि घर आता था तो लोग उसे बगैर खाए घर से नहीं जाने देते थे जबकि घर पर खाना बनाना उस दौर में आज की तुलना में कठिन था. 30-40 साल पहले गांव में कोई मृत्यु होती थी तो पूरा गांव हर जाति के प्रतिनिधि मृतक के पास एकत्रित होते थे और श्मशान घाट पर दाह संस्कार तक उसका साथ नहीं छोड़ते थे जबकि आज मोटर साइकिल, कार आदि के युग में लोग मृतक के पास दो मिनट आते हैं, दाह संस्कार पहुंचने का वक्त पूछकर चले जाते हैं. फिर दो मिनट संस्कार के वक्त उपस्थित रहकर अपने काम पर निकल जाते हैं.
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सवाल है कि जब गाड़ियां, मोटर आदि सुविधाएं बढ़ गईं फिर मानवीय गरिमा से जुड़े प्रश्नों के लिए समय मिलना कम क्यों हो गया?
रविंद्र शर्मा के मुताबिक, भारत में मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा ग्राम रचना ने बढ़ाई. ग्रामजीवन आध्यात्मिकता प्रेरित था. अध्यात्म की पहली सीढ़ी है कला. कला जिससे सौंदर्य दृष्टि मिलती है. इस दृष्टि का जागरण जब जीवन में होता है तो दूसरे को देखकर जीवन जीने का भाव खत्म हो जाता है. तब सौंदर्य दृष्टि से प्रेरित व्यक्ति आत्मतत्व के आधार पर जीता है और ईर्ष्या, द्वेष से वह दूर हो जाता है.
भारत में कला-संस्कृति और सभ्यता की इसी बुनियाद पर गांव का विकास हुआ. मनुष्य तो मनुष्य भारतीय चिंतकों ने पशु-पक्षियों के लिए मधुर संगीत और नाद-यंत्रों की रचना की क्योंकि नाद-सुर-आवाज और गंध का शरीर-मन-मष्तिष्क पर असर होता है. इसी को देखकर बैलों, गाय-भैंसों, बकरी तक के लिए अलग अलग घंटे और घुंघरू बनाए जाते थे. बैलों के गले में अलग अलग समय पर अलग अलग घंटे और घुंघरू बंधते थे. घोड़े और गधे तक के जीवन में भारतीय समाज ने संगीत का असर समझा था और तद्नुरूप व्यवस्थाएं की थीं.
भारतीय मानस ने बहुत पहले समझ लिया था कि जब पंचमहाभूत मिलते हैं तो नटराज का नृत्य और नाद का सृजन होता है. नाद यानी परम चैतन्य का प्रतीक. नाद से लय उत्पन्न होता है, इस लय के आधार पर गीत-संगीत की रचना होती है और इसी में उत्सवी संस्कृति और सदाचारी मनुष्य जीवन का विकास होता है.
और बात सिर्फ संगीत की नहीं थी। दर्जी-कारीगर-जुलाहे 360 तरह की साड़ी और कपड़ों की डिजायन गांव में ही बनाते थे और रंगरेज उसे उतने ही शानदार तरीकों से रंगता था. स्वर्णकार भी सैकड़ों प्रकार से गहने बनाते थे, सिर्फ मंगलसूत्र की ही बात करें तो 360 तरह के मंगलसूत्र बनाने की कलाएं स्वर्णकारों के पास थीं. हर व्यक्ति की जरुरत, रुचि, संदर्भ, जरुरत और समय के लिए कलाकार डिजायन बनाते थे और कारीगर उसमें खूबसूरती से अपनी कला उतार देते थे. सवाल वर्ण व्यवस्था का भी आया और सियासत के साथ महिलाओं के अधिकार का भी.
रविंद्र शर्मा ने नई थ्योरी पेश की. उन्होंने कहा कि भारत में हर जाति की अपनी वर्ण व्यवस्था थी. वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत जातियां नहीं पली-बढ़ीं. जातियों मतलब ज्ञातियों के अन्तर्गत वर्ण व्यवस्था को जगह मिली. हर जाति का अपना ब्राह्मण था, हर जाति के अपने ज्योतिषी, क्षत्रिय और वैश्य थे. हर जाति के अपने कामागार शूद्र थे. हर वर्ण और हर जाति के व्यक्ति को राजा बनने का अधिकार था. राजा प्रसेनजीत चर्मकार जाति के थे तो नंद साम्राज्य नाई वंश से जुड़ा था. सातवाहन शासक कुम्हार थे, राजा सुहेलदेव, लाखन, सातन पासी और राजभर जातियों की वंशावली से जुड़े थे. पालवंश का शासन भारत के बड़े हिस्से पर रहा तो आदिवासी गोंड, मुंडा, निषाद जाति के लोग भी भारत के बड़े भूभाग पर शासन करते रहे. ऐसे उदाहरण अनगिनत हैं.
राजा बनने के लिए जातिगत स्पर्धा नहीं थी क्योंकि कोई भी राजा हो, व्यक्ति-परिवार-ज्ञाति की आजीविका सुरक्षित थी. दक्षिण भारत में अनेक स्थानों पर ऐसे लोग भी राजा बनाए गए जिनके गले में हाथी ने माला डाल दी. कलाकार-विद्वान का सिंहासन राजा के सिंहासन से हमेशा ऊपर रखा जाता था ताकि समाज का मानस और बौद्धिक स्तर ऊंचा रहे और समाज में सियासत का स्थान नीचे रहे. तब समाज में आहार की यानी रोजी-रोटी की हर ज्ञाति के युवक को सुरक्षा हासिल थी. तब आहार के लिए पढ़ने का रिवाज नहीं था. अपनी ज्ञाति और समाज के हित के लिए आवश्यकता और इच्छा होने पर गहन-गंभीर अध्ययन के लिए लोग निकलते थे, इससे समाज को मजबूती मिलती थी लेकिन जब आहार के लिए पढ़ाई की जाने लगी तो फिर समाज में विघटन की प्रक्रिया शुरु हो गई.
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रविंद्र शर्मा के मुताबिक, भारतीय ग्रामीण व्यवस्था में धान्य और घर में रखी जाने वाली उपज पर महिलाओं का नियत्रण ही रहता था, इसलिए आर्थिक व्यवस्था की कुंजी उनके हाथ में रहने के कारण भारतीय ग्राम व्यवस्था में किसी भी व्यक्ति के भूखे सोने का उदाहरण नहीं मिलता. यहां तक कि हर ज्ञाति की महिला को पढ़ने-लिखने का भी पूरा अधिकार था. वडाली नामक चांडाल कुल की महिला के बारे में 3000 साल पहले ज्योतिष विद्या में निष्णात होने और ग्रंथ लिखने का ब्यौरा पुराणों में सामने आता है.
तो महिलाओं के साथ ज्यादती कब शुरु हुई? रविंद्र शर्मा के अनुसार, जब नोट का प्रचलन आया और धन नोट के तौर पर पुरुषों के नियंत्रण में आया तो महिलाओं के अधिकारों का भी हनन शुरु हुआ, देश में गरीबी, भूखमरी, बेकारी और गहराते आर्थिक असंतुलन के पीछे इस नोट से संचालित आर्थिक व्यवस्था ने सबसे बुरा असर डाला.
राम बहादुर राय- हम भूल चुके हैं कि हम वास्तव में कौन हैं, और अतीत में क्या थे? |
रविंद्र शर्मा गुरुजी के अनुसार, भारतीय ग्राम व्यवस्था में शोषणकारी प्रवृत्तियां विदेशी हमलों के पहले दिखाई नहीं देतीं. शोषण तब होता है जबकि एक सामर्थ्यशाली हो और दूसरा सामर्थ्यहीन हो. भारतीय ग्राम रचना ने किसी ज्ञाति विशेष में सामर्थ्य और शक्ति को केंद्रीकृत नहीं रखा. यही कारण है कि यहां पर किसी जाति को किसी जाति के शोषण की अनुमति नहीं थी. मुगल आक्रमणों और विदेशी शासन में पैदा हुई ज़मींदारी प्रथा ने उन शोषणमूलक प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया जिनका भारतीय समाज में कोई स्थान नहीं था.
जाहिर तौर पर रविंद्र शर्मा गुरुजी ने अपने भाषण में भारतीय ग्राम जीवन की कला-संस्कृति और सभ्यतापरक बातों का गंभीर विश्लेषण किया हालांकि उनके भाषण के बाद ये सवाल सबसे ज्यादा चर्चित रहा कि मौजूदा विश्व व्यवस्था के नाकाम होने पर क्या भारत की ग्राम व्यवस्था देश को बचा पाएगी? क्या बगैर बिजली और बगैर पेट्रोल के कोई आर्थिक विकल्प भारत के किसी हिस्से में साकार किया जा सकता है? और सबसे अहम कि भारतीय ग्राम जीवन को फिर से समृद्धि और वैभवशाली बनाने का वैकल्पिक प्रयोगसूत्र आखिर देश में कहां कहां साकार रूप में दिखाई देता है.
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यही नहीं, इस सूत्र को क्रियान्वित करने की कामना रखने वाले प्रयोगधर्मी युवक कहां हैं? क्या कोई है जो उनका प्रशिक्षण कर रहा है? इन सवालों का जवाब राम बहादुर राय ने देते हुए कहा कि सवाल भी बने रहने चाहिए और जिज्ञासा भी ताकि बार-बार ऐसे आयोजन राजधानी में बौद्धिक तौर पर लोगों को मथते रहें और विस्मृति से जगाते रहें. हम भूल चुके हैं कि हम वास्तव में कौन हैं, और अतीत में क्या थे? गुरुजी ने उसी विस्मृति को मिटाकर हमें जगाने के लिए आज झकझोरा है.
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