बिहार हो, झारखंड हो, पूर्वी उत्तर प्रदेश हो या फिर बिहार-झारखंड से सटा पश्चिम बंगाल का इलाका, बल्कि अब तो देश के हर उस हिस्से में, जहां इस इलाके की आबादी बस गई है, छठ का त्योहार मनाया जाने लगा है. और हर उस इलाके में, जहां छठ पूजा (chhath puja) का त्योहार मनाया जाता है, वह अधूरा होता है जब तक कि बिहार कोकिला शारदा सिन्हा की हस्की आवाज़ में माटी का सोंधापन न फिजाओं में बिखर जाए. एक तरह से कहा जाए तो आधुनिक दौर में संगीत के मामले में छठ की प्रतिनिधि आवाज शारदा सिन्हा ही हैं.
रुनकी-झुनकी बेटी मांगीला, पढ़ल-पाण्डिवता दमाद
हे दीनानाथ, दर्शन दिहिं न अपन हे दीनानाथ!
शारदा सिन्हा की खासियत ही यही है कि वह अपनी कला, यानी बिहार की भाषाओं और लोकगीतों से इस तरह जुड़ गई हैं कि दोनों की पहचान एक-दूसरे के बिना अधूरी लगती है. शारदा सिन्हा को लोकगीतों से अलग नहीं किया जा सकता और खासतौर पर छठ के गीतों से तो कत्तई नहीं.
अगर आप इन इलाकों से जुड़े हैं तो जैसे ही शारदा सिन्हा की आवाज़ कानों में पड़ती है, आत्मा अपने गांव की गलियों में और वहां से गुज़रती हुई नदी की किनारों को छूने को मचल जाती है. लगता है सब छोड़कर पहुंच जाएं उस घाट पर, जहां गाय की गोबर से लीपा हुआ एक आंगन होगा. उस लिपे आंगन के बीचों-बीच लाल चुनरी, पीले कपड़ों से ढंकी बांस की टोकरियां होंगी, पके केले के घौद होंगे. पैदल, बिना चप्पलों के श्रद्धानत लोग माथे पर नारियलों का टोकरा, मूली-गन्ने-ठेकुओं और तमाम स्थानीय फल-कंद-मूलों से अंटे सूपों को गठ्ठर लिए नदी-तालाब-झीलों की तरफ बढ़ रहे होंगे. नेपथ्य में तबले, ढोलक और सारंगी की संगत में शारदा सिन्हा सुर में मैथिली गीत गा रही होंगीः
सोना सतकोनिया हो...
बिहार हो, झारखंड हो, पूर्वी उत्तर प्रदेश हो या फिर बिहार-झारखंड से सटा पश्चिम बंगाल का इलाका, बल्कि अब तो देश के हर उस हिस्से में, जहां इस इलाके की आबादी बस गई है, छठ का त्योहार मनाया जाने लगा है. और हर उस इलाके में, जहां छठ पूजा (chhath puja) का त्योहार मनाया जाता है, वह अधूरा होता है जब तक कि बिहार कोकिला शारदा सिन्हा की हस्की आवाज़ में माटी का सोंधापन न फिजाओं में बिखर जाए. एक तरह से कहा जाए तो आधुनिक दौर में संगीत के मामले में छठ की प्रतिनिधि आवाज शारदा सिन्हा ही हैं.
रुनकी-झुनकी बेटी मांगीला, पढ़ल-पाण्डिवता दमाद
हे दीनानाथ, दर्शन दिहिं न अपन हे दीनानाथ!
शारदा सिन्हा की खासियत ही यही है कि वह अपनी कला, यानी बिहार की भाषाओं और लोकगीतों से इस तरह जुड़ गई हैं कि दोनों की पहचान एक-दूसरे के बिना अधूरी लगती है. शारदा सिन्हा को लोकगीतों से अलग नहीं किया जा सकता और खासतौर पर छठ के गीतों से तो कत्तई नहीं.
अगर आप इन इलाकों से जुड़े हैं तो जैसे ही शारदा सिन्हा की आवाज़ कानों में पड़ती है, आत्मा अपने गांव की गलियों में और वहां से गुज़रती हुई नदी की किनारों को छूने को मचल जाती है. लगता है सब छोड़कर पहुंच जाएं उस घाट पर, जहां गाय की गोबर से लीपा हुआ एक आंगन होगा. उस लिपे आंगन के बीचों-बीच लाल चुनरी, पीले कपड़ों से ढंकी बांस की टोकरियां होंगी, पके केले के घौद होंगे. पैदल, बिना चप्पलों के श्रद्धानत लोग माथे पर नारियलों का टोकरा, मूली-गन्ने-ठेकुओं और तमाम स्थानीय फल-कंद-मूलों से अंटे सूपों को गठ्ठर लिए नदी-तालाब-झीलों की तरफ बढ़ रहे होंगे. नेपथ्य में तबले, ढोलक और सारंगी की संगत में शारदा सिन्हा सुर में मैथिली गीत गा रही होंगीः
सोना सतकोनिया हो दीनानाथ...हे घुमैछअ संसार.
आन दिन उगै छअ हो दीनानाथ...आ हो भोर भिनसार
एक आम छठ व्रती को तो यही लगता है कि अगर घाट पर मुंहअंधेरे यह गीत न बजे तो शायद सूर्योदय ही न हो. शारदा सिन्हा के गीतों के साथ ऐसा जुड़ाव है माटी का, वहां के लोगों का. साथ ही यह भी लगता है कि अगर यह गीत न बजें तो शायद लोगों के भीतर सूर्य भगवान का इतना इंतजार करने का धैर्य भी कम हो जाए.
शारदा सिन्हा की देसी आवाज का ही कमाल है कि ठीक सूर्योदय के वक्त बाल सूर्य की कल्पना करता हुआ उनका गीत एक-एक पल को सुरों में ढाल देता है.
केलवा के पात पर उगेलन सुरूजमल झांके-झूके
हे करेलू छठ वरतिया से झांके झूके.
हम तोसे पूछी वरतिया ऐ वरतिया से ककरा लागी
हे करेलू छठ वरतिया से केकरा लागी
छठ की पवनैतिनों (यानी व्रत करने वाली महिलाओं) के इंतजार को उकेरता एक और गीत है, जिसमें ठंडे पानी में खड़ी महिलाएं ठिठुरती हुई सूर्य भगवान का इंतजार कर रही होती हैं,
आठ ही काठ के कोठरिया हो दीनानाथ
रुपे छन लागे ल किवाड़
चदरे उघाड़ी जब देखलें हे दीनानाथ
कौन संकट परले तोहार
इन छठ गीतों को सात मात्राओं में गाया जाता है. शारदा सिन्हा की आवाज़ में यह छट गीत पूर्वांचल और बिहार में तब से लोकप्रिय है जब उनका पहला एलबम एलपी रिकॉर्ड के रूप में आया था. बाद में, मैग्नेटिक टेप के चलन में आने से ये गीत और सुलभ हुए और अब नए जमाने में, जब गाने डिजिटल फॉर्मेट में है शारदा सिन्हा के सारे गीतों को देश-विदेश में रहने वाले लोगों ने सुना है और यूट्यूब पर कई प्लेटफॉर्म्स पर उपलब्ध उनके गीतों को लाखों की संख्या में देखा और सुना जाता है.
जरा एक गीत को गौर से सुनिए:
केरवा जे फरेला घवद से ओह पर सुगा मेड़राय
उ जे खबरी जनइबो अदित (सूरज) से, सुगा देले जुठियाए
उ जे मरबो रे सुगवा धनुक से सुगा गिरे मुरछाये
उ जे सुगनी जे रोये ले वियोग से आदित होइ ना सहाय देव होइ ना सहाय
इस गीत में एक ऐसे सुग्गे (तोते) का जिक्र है जो केले के एक घौद (गुच्छे) के पास मंडरा रहा है. तोते को डराया जाता है कि अगर तुम इस पर चोंच मारोगे तो तुम्हारी शिकायत भगवान सूर्य से कर दी जाएगी, जो तुम्हें माफ नहीं करेंगे, फिर भी तोता केले को जूठा कर देता है और सूर्य के कोप का भागी बनता है. सूर्य के धनुष से निकले तीर से वह मूर्छित हो जाता है. पर उसकी पत्नी सुगनी अब क्या करे बेचारी? कैसे सहे इस वियोग को? अब तो सूर्यदेव उसकी कोई सहायता नहीं कर सकते, उसने आखिर पूजा की पवित्रता जो नष्ट की है.
शारदा सिन्हा का जन्म साल 1953 में बिहार के सुपौल के हुलास गांव में हुआ था, और वो पिछले 40 सालों से गायन कर रहीं हैं. उनके पिता बिहार सरकार के शिक्षा विभाग में अधिकारी थे और उन्होंने उनमें गायकी के गुण देखने के बाद उसे सींचने का फैसला किया.
पिता सुखदेव ठाकुर ने उन्हें बाकायदा नृत्य और संगीत की शिक्षा दिलवानी शुरु कर दी और घर पर ही एक शिक्षक आकर शारदा सिन्हा को शास्त्रीय संगीत की शिक्षा देने लगे. शारदा सिन्हा ने सुगम संगीत की हर विधा में गायन किया, इसमें गीत, भजन, गज़ल सब शामिल थे लेकिन उन्हें लोक संगीत गाना काफी चुनौतीपूर्ण लगा और धीरे-धीरे वो इसमें विभिन्न प्रयोग करने लगीं.
असल में शारदा सिन्हा के रिकॉर्ड्स आऩे से पहले छठ के गीतों का कोई रिकॉर्डेड वर्जन मौजूद नहीं था. जो भी था, वह छठ का व्रत करने वाली महिलाएं गाती थीं. पर शारदा सिन्हा के गाए गीतों ने परिदृश्य बदल दिया. हालांकि, शारदा सिन्हा के बाद भी कई लोकगायिकाएं आईं लेकिन किसी को वो पहचान नहीं मिल सकी जो शारदा जी को मिली और इसकी एक वजह इनकी ख़ास तरह की आवाज है जिसमें इतने सालों के बाद भी कोई बदलाव नहीं आया है.
शारदा सिन्हा से पहले भी एकाध छठ गीत उनकी की पूर्ववर्ती गायिका विंध्यवासिनी जी ने जरूर गाए थे पर वे उतने लोकप्रिय नहीं हो पाए थे. असल में विंध्यवासिनी जी के गीत रेडियो पर आते थे और उनका कोई एलपी रिकॉर्ड संभवतया मौजूद नहीं है.
शारदा सिन्हा ने छठ गीतों का पहला एलपी रिकॉर्ड किया था 1980 में और म्युजिक कंपनी थी एचएमवी. 1986 में उन्होंने केलवा के पात पर वाला गाना रिकॉर्ड कराया था. उसके बाद से शारदा सिन्हा का सफर कभी रुका नहीं. अपने एक इंटरव्यू में खुद शारदा सिन्हा मानती हैं कि अकेले उन्होंने ही कम से कम एक सौ छठ गीत जरूर रिकॉर्ड कराएं है.
दरअसल, चार दिनों तक चलने वाला सफाई और पवित्रता का त्योहार छठ न केवल आस्था के साथ लोगों को जोड़ता है, बल्कि अपनी संस्कृति और परंपरा से लोगों को अवगत कराता है. पर अपने गांव-घर से बाहर रह रहे प्रवासियों के लिए छठ के साथ एक सुर भी जोड़ता है और निस्संदेह वह शारदा सिन्हा ही हैं.
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