यमुना जिंदा होती, तो यकीनन खुश होती. कोई उसके पास आ रहा है, खुशियां मनाने, उत्सव मनाने, जिंदगी का गीत गाने के लिए. तरस गई थी यमुना इस पत्थर दिल दिल्ली में अपनी अपनों का साथ पाने के लिए. अब भी जरा भी जान होती, तो यमुना आनंदित होती, प्रफुल्लित होती कि उसके तट पर कोई मेला लग रहा है, कोई उत्सव हो रहा है.
धन्यवाद दे रही होती आध्यात्म के पुजारी श्री श्री रविशंकर को, जिन्होंने विश्व सांस्कृतिक सम्मेलन के लिए यमुना की गोद को चुना. हो सकता है श्री श्री रविशंकर को दिल्ली में कहीं और इतनी बड़ी जगह नहीं मिली होगी और मजबूरी में यमुना तट का चयन किया होगा. या हो सकता है श्री श्री का स्वार्थ इसमें हो और यमुना से उन्हें कोई मतलब ही न हो. उनके लिए यमुना का तट सिर्फ आयोजन की एक जगह भर हो, लेकिन मुझे यकीन है यमुना अगर मैया है, तो उसे अच्छा लगा होगा. क्योंकि भीड़ से भरे शहर के बीचों बीच होते हुए भी यमुना अकेली है, एकाकीपन झेल रही है. कोई उसकी सुध लेने वाला नहीं है. कोई उसका हाल पूछने वाला नहीं है.
अब कोई तो उसकी गोद में खेलने के लिए आया. लेकिन यह क्या, हरियाली के नाम पर हल्ला मचाने वालों को यमुना की यह खुशी भी मंजूर नहीं. हर चीज में टांग अड़ाने वालों को यमुना किनारे का यह उत्सव भी खटक रहा है. कानूनी पेंच फंसाए जा रहे हैं, अड़ंगा डालने के बहाने तलाशे जा रहे हैं. क्यों नहीं ऐसे लोग नदियों की परंपरा को याद कर लेते, इतिहास को खंगाल लेते कि नदियों को जीवन का साथ चाहिेए. नदियों से ज्यादा उत्सवप्रिय इस सृष्टि में कोई नहीं रहा है. नदी क्या चाहती है, नदी को बचाने का दम भरने वालों एक बार उससे तो पूछ लो.
यमुना नदी की बदहाली पर घड़ियाली आंसू अब बंद होना चाहिए. हरियाली बचाने का ढोंग भी खत्म होना चाहिए. क्योंकि ये वो शहर है जिसने उस नदी को ही मार दिया जिसने कभी इस शहर को जिंदा किया था. बसाया था, आबाद किया था. आज मर चुकी नदी भी दिल्ली को अपनी हैसियत के हिसाब से जीवन दे रही है, लेकिन ये शहर उसे क्या दे रहा है, गंदगी, सड़ांध, मल-मूत्र का ढेर,...
यमुना जिंदा होती, तो यकीनन खुश होती. कोई उसके पास आ रहा है, खुशियां मनाने, उत्सव मनाने, जिंदगी का गीत गाने के लिए. तरस गई थी यमुना इस पत्थर दिल दिल्ली में अपनी अपनों का साथ पाने के लिए. अब भी जरा भी जान होती, तो यमुना आनंदित होती, प्रफुल्लित होती कि उसके तट पर कोई मेला लग रहा है, कोई उत्सव हो रहा है.
धन्यवाद दे रही होती आध्यात्म के पुजारी श्री श्री रविशंकर को, जिन्होंने विश्व सांस्कृतिक सम्मेलन के लिए यमुना की गोद को चुना. हो सकता है श्री श्री रविशंकर को दिल्ली में कहीं और इतनी बड़ी जगह नहीं मिली होगी और मजबूरी में यमुना तट का चयन किया होगा. या हो सकता है श्री श्री का स्वार्थ इसमें हो और यमुना से उन्हें कोई मतलब ही न हो. उनके लिए यमुना का तट सिर्फ आयोजन की एक जगह भर हो, लेकिन मुझे यकीन है यमुना अगर मैया है, तो उसे अच्छा लगा होगा. क्योंकि भीड़ से भरे शहर के बीचों बीच होते हुए भी यमुना अकेली है, एकाकीपन झेल रही है. कोई उसकी सुध लेने वाला नहीं है. कोई उसका हाल पूछने वाला नहीं है.
अब कोई तो उसकी गोद में खेलने के लिए आया. लेकिन यह क्या, हरियाली के नाम पर हल्ला मचाने वालों को यमुना की यह खुशी भी मंजूर नहीं. हर चीज में टांग अड़ाने वालों को यमुना किनारे का यह उत्सव भी खटक रहा है. कानूनी पेंच फंसाए जा रहे हैं, अड़ंगा डालने के बहाने तलाशे जा रहे हैं. क्यों नहीं ऐसे लोग नदियों की परंपरा को याद कर लेते, इतिहास को खंगाल लेते कि नदियों को जीवन का साथ चाहिेए. नदियों से ज्यादा उत्सवप्रिय इस सृष्टि में कोई नहीं रहा है. नदी क्या चाहती है, नदी को बचाने का दम भरने वालों एक बार उससे तो पूछ लो.
यमुना नदी की बदहाली पर घड़ियाली आंसू अब बंद होना चाहिए. हरियाली बचाने का ढोंग भी खत्म होना चाहिए. क्योंकि ये वो शहर है जिसने उस नदी को ही मार दिया जिसने कभी इस शहर को जिंदा किया था. बसाया था, आबाद किया था. आज मर चुकी नदी भी दिल्ली को अपनी हैसियत के हिसाब से जीवन दे रही है, लेकिन ये शहर उसे क्या दे रहा है, गंदगी, सड़ांध, मल-मूत्र का ढेर, फैक्ट्रियों का जानलेवा जहर. मार दिया है यमुना को उसकी अपनी संतानों की बेरुखी ने, अपने किनारे बैठी सत्ताओं के नाकारापन ने, उसके अपने शहर के लोगों ने, उन दुकानदारों ने जो यमुना को बचाने का दम भरते हैं और उन कानूनों ने जो सिर्फ टांग अड़ाने के लिए बने हैं.
दिल्ली में यमुना की बदलहाली की कहानी सुनेंगे? यमुनोत्री से इलाहाबाद के संगम तक 1300 किलोमीटर लंबी यमुना का सफर दिल्ली में सिर्फ 22 किलोमीटर का है. लेकिन पल्ला से चिल्ला तक इस शहर ने इस नदी को इतना गहरा घाव दिया है कि वो नासूर बन गया है. अपने पूरे सफर में यमुना में जितना प्रदूषण होता है उसमें से 70 फीसदी सिर्फ दिल्ली में है. दिल्ली के हर किलोमीटर पर एक नाला यमुना में गिरता है. 22 किलोमीटर में 22 नाले पूरे शहर का मल-मूत्र, फेक्ट्रियों का कैमिकल और कूड़ा कचरा यमुना में बहा देते हैं.
ये भी जान लीजिए यमुना किनारे जहां बसाहट नहीं होनी चाहिए थी, दिल्ली की तीस फीसदी आबादी बसती है. इन बस्तियों में सीवेज सिस्टम नहीं है. सोलिड वेस्ट निकासी का कोई जरिया नहीं है. मतलब सारी की सारी गंदगी सीधे नदी में गिरती है. सरकार अगर दावा करती है कि वो सीवेज का ट्रीटमेंट करती है या फिर गंदे पानी को यमुना में मिलने से रोकती है तो उसे भी इस आंकड़े की सनद रहे.
सरकारी रिपोर्ट ही बताती है कि दिल्ली में बहने वाली यमुना के पानी में आक्सीजन का स्तर शून्य है. मतलब प्राण पखेरू उड़ चुके हैं. अब तो बरसात में भी आक्सीजन इतनी नहीं होती जितनी की पानी में नहाने के लिए जरूरी है (नहाने योग्य पानी में आक्सीजन का लेवल 5 मिलिग्राम प्रति लीटर होती है, जबकि युमना में यह स्तर बरसात के ठीक बाद भी 2.5 से ऊपर नहीं जाता). अरे किस नदी को बचाने की बात कर रहे हो, जो मर चुकी है. प्राण बाकी नहीं है. हां! जब नदी को मां कहते हैं, नदी की महिमा को जानते हैं तो एक उम्मीद है दवा के साथ दुआ भी करो.
उसे हौसला दो, खुशी दो, उसके पास जाओ, जगाओ उसे, कानून के अड़ियलपन से नहीं, प्यार भरे अपनेपन से. अरे कहां थे आप और आपका कानून जब यमुना की गोद में कांक्रीट का जंगल बस गया. वैध-अवैध सब तरह की इमारतें और बस्तियां भी तो नदी के बीचों बीच बन गईं और बस गईं. खेलगांव, अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली सरकार का सचिवालय सब इसी ग्रीन बेल्ट पर बने हैं. दुनियाभर में नदियों के किनारे क्यों सभ्यताएं पैदा हुईं..क्यों नदियों की गोद में नगर, गांव, शहर बसे क्योंकि नदी सिर्फ एक पानी की बहती हुई धार नहीं होती. उसमें जीवन होता है, जिंदगी की रवानी होती है.
लेकिन आज हम भूल गए हैं कि नदी को भी सहारा चाहिए होता है. ठीक वैसे ही जैसे किसी बूढे बीमार व्यक्ति को अपनो का साथ चाहिए होता है. उसे दवा के साथ उस अपनेपन, उस सामीप्य की जरूरत होती है जो उसके मन में जीने की जिजीविषा को बनाए रखे. इसीलिए तो नदियों के तटों पर उत्सव मनाए जाते थे. घाटों पर मेले लगते थे. आनंद होता था. लोग नदी से जीवन पाते थे और नदी लोगों से अपनापन. लेकिन अब क्या है? नदियां सिकुड़ रही हैं. क्योंकि शहर और शहरवाले पत्थर दिल हो रहे हैं जिसमें नदियों का दम घुट गया है. यही हाल रहा तो बंद हो जाएंगे कुंभ मेला भी, सिंहस्थ भी नहीं होगा, नदियां अकेली रह जाएंगीं. सूख जाएंगी, कोई सुध लेने वाला भी नहीं रहेगा.
अरे, यह तो मौका है यमुना को नया जीवन देने का. इसका फायदा उठाइये. क्योंकि यह हकीकत है कि श्री श्री रविशंकर बहुत रसूखवाले बाबा हैं. यकीन न हो तो आयोजन का आमंत्रण पत्र देख लीजिए. उद्घाटन में प्रधानमंत्री और समापन में देश के राष्ट्रपति का नाम है. बाकि देशों से कौन कौन आ रहा है इसकी फेहरिस्त भी लंबी है. श्री श्री के लिए अपने रसूख के दम पर सरकार से और दलील के दम पर कानून से अपनी बात मनवाना मुश्किल काम नहीं है. यमुना के रक्षको आप इस मौके फायदा उठाइये क्योंकि श्री श्री रविशंकर बड़े आदमी है. पैसे और रसूख में ही नहीं उनके पास अनुयायियों की भी बड़ी फौज है और एक सांसद भी है, जिसके वोटर यमुना के किनारे ही बसते हैं.
एक बार यमुना के लिए 2010 में आर्ट आफ लिविंग के लिए श्रीश्री का अभियान भी चल चुका है. अब फिर उनसे वादा लीजिए कि आप यमुना की गोद में उत्सव कर रहे हैं, तो इस 22 किलोमीटर के घाव के इलाज में भी मदद कीजिए. आप 35 लाख लोगों को सम्मेलन में बुला रहे हैं तो अपने लाखों भक्तों को यमुना की सफाई से भी जो़ड़िए. करोड़ों रुपए खर्च कर रहे हैं तो यमुना के लिए भी धन जुटाइये. श्री श्री ही क्यों, जिस भी बाबा के पास भक्त और पैसा दोनों है सबको जोड़िए. कड़ी से कड़ी जोड़िए. सरकार को भी जोड़िए और दिल्ली वालों को भी. दिल्ली के बाहर वालों को भी जोड़िए फिर देखिए यमुना कैसे जी उठेगी, खिल उठेगी, बहने लगेगी. आमीन....
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.