‘भारत की अवधारणा’ को समझाते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख डॉ. मनमोहन वैद्य कहते हैं कि भारत को समझने के लिए चार बिन्दुओं पर ध्यान देने की जरूरत है. सबसे पहले भारत को मानो, फिर भारत को जानो, उसके बाद भारत के बनो और सबसे आखिर में भारत को बनाओ. किंतु, देखने में आता है कि प्रगतिशील विद्वान और राजनीतिज्ञ भारत को पश्चिम के चश्मे से देखने का प्रयास करते हैं. यह सही है कि पश्चिम की परिभाषाओं, अवधारणाओं और मापदण्डों के आधार पर भारत को समझना मुश्किल है. पश्चिम में ‘राष्ट्रवाद’ के साथ हिंसा का इतिहास जुड़ा है, जबकि भारत में राष्ट्र के संबंध में अलग प्रकार से विचार किया गया है. भारत में ‘नेशन’ का पर्याय ‘राष्ट्र’ नहीं है.
भारत में यहाँ के लोग राष्ट्र हैं. भारत में राजनीतिक व्यवस्था को अधिक बल नहीं दिया गया. यहाँ समाज सत्ता प्रमुख रही. समाज अपनी व्यवस्थाएं स्वयं कर लेता था, वह राज्याश्रित नहीं था. इसलिए भारत का राष्ट्रवाद राजनीति से नहीं, बल्कि संस्कृति से जुड़ता है. इसलिए इसे राष्ट्रवाद नहीं अपितु राष्ट्रत्व कहना उचित होगा. यदि भारतीय राजनीति में सांस्कृतिक राष्ट्रत्व की अवधारणा का अनुपालन होता है, तो समाज स्वावलंबन की ओर बढ़ेगा. संकीर्ण राजनीति के माध्यम से यह जो आपसी संघर्ष पैदा किए गए हैं, सांस्कृतिक राष्ट्रत्व के आधार पर ही इन्हें समाप्त किया जा सकता है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की संस्कृति शक्तिशाली और जीवंत न होती तो यह संघर्ष दैत्याकार हो चुके होते. यह तो भारतीय संस्कृति की आंतरिक ताकत है कि वह सब कुछ झेल गई. इसलिए बार-बार दोहराया जा रहा है कि संस्कृति भारत की आत्मा है.
‘भारत की अवधारणा’ को समझाते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख डॉ. मनमोहन वैद्य कहते हैं कि भारत को समझने के लिए चार बिन्दुओं पर ध्यान देने की जरूरत है. सबसे पहले भारत को मानो, फिर भारत को जानो, उसके बाद भारत के बनो और सबसे आखिर में भारत को बनाओ. किंतु, देखने में आता है कि प्रगतिशील विद्वान और राजनीतिज्ञ भारत को पश्चिम के चश्मे से देखने का प्रयास करते हैं. यह सही है कि पश्चिम की परिभाषाओं, अवधारणाओं और मापदण्डों के आधार पर भारत को समझना मुश्किल है. पश्चिम में ‘राष्ट्रवाद’ के साथ हिंसा का इतिहास जुड़ा है, जबकि भारत में राष्ट्र के संबंध में अलग प्रकार से विचार किया गया है. भारत में ‘नेशन’ का पर्याय ‘राष्ट्र’ नहीं है.
भारत में यहाँ के लोग राष्ट्र हैं. भारत में राजनीतिक व्यवस्था को अधिक बल नहीं दिया गया. यहाँ समाज सत्ता प्रमुख रही. समाज अपनी व्यवस्थाएं स्वयं कर लेता था, वह राज्याश्रित नहीं था. इसलिए भारत का राष्ट्रवाद राजनीति से नहीं, बल्कि संस्कृति से जुड़ता है. इसलिए इसे राष्ट्रवाद नहीं अपितु राष्ट्रत्व कहना उचित होगा. यदि भारतीय राजनीति में सांस्कृतिक राष्ट्रत्व की अवधारणा का अनुपालन होता है, तो समाज स्वावलंबन की ओर बढ़ेगा. संकीर्ण राजनीति के माध्यम से यह जो आपसी संघर्ष पैदा किए गए हैं, सांस्कृतिक राष्ट्रत्व के आधार पर ही इन्हें समाप्त किया जा सकता है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की संस्कृति शक्तिशाली और जीवंत न होती तो यह संघर्ष दैत्याकार हो चुके होते. यह तो भारतीय संस्कृति की आंतरिक ताकत है कि वह सब कुछ झेल गई. इसलिए बार-बार दोहराया जा रहा है कि संस्कृति भारत की आत्मा है.
जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने भी अपने समय में देश को जोड़ने और एकात्म स्थापित करने के लिए सांस्कृतिक पक्ष पर ही काम किया. ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध देशभर में चल रहे आंदोलनों का प्राण भी संस्कृति थी. भारत भूमि के साथ उत्तर से दक्षिण एवं पूर्व से पश्चिम तक जो हमारा नाता है, उसका भी आधार संस्कृति है. दुनिया में भारत की संस्कृति ने ही सबसे पहले कहा था कि सबके मूल में एक ही तत्व है. जड़-चेतन में एक ही ब्रह्म है. इसलिए ही भारत में बाहरी तौर पर तो विविधता दिखाई देती है, किंतु अंदर से सब एक-दूसरे से जुड़े हैं. क्योंकि, सब मानते हैं कि सबमें एक ही तत्व है. भारत के बाहर से आए राजनीतिक विचारधारों और उनके प्रवर्तकों को यह दिखाई नहीं देगा, क्योंकि उसका संस्कार ऐसा नहीं है.
अभारतीय परंपरा में सबको खंड-खंड देखा जाता है. जबकि, एकात्म मानवदर्शन जैसा अद्भुत और पूर्ण विचार देने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय कहते हैं कि हमारे यहाँ खंड-खंड में विचार करने की परंपरा नहीं है. खंड-खंड में विचार करने से पूर्णता से साक्षात्कार नहीं हो पाता है. साम्यवाद में जो संघर्ष की थिअरी है, वह भारत में इसलिए असफल हुई, क्योंकि वह व्यक्ति, समाज, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं को बाँट कर देखती है. सामान्य-सा सिद्धांत है कि किसी भी प्रकार के संघर्ष के लिए कम से कम दो सत्ताओं की आवश्यकता होती है. जबकि भारत में भले ही हमें व्यवहार में भिन्नताएं दिखाई देती हैं, लेकिन सब कुछ एक ही हैं. एक ही सत्ता के अंश हैं. इसलिए यहाँ संघर्ष नहीं, समन्वय है.
फिर भी सवाल उठता है कि सब एक ही है तब हमें भारत भूमि पर संघर्ष क्यों दिखाई देते हैं? संघर्ष के कुछेक कारण तो ऊपर आ चुके हैं. सब एक हैं, इसलिए संघर्ष नहीं होना चाहिए. यह सही है. किंतु, संघर्ष न हो इस हेतु कुछ नियम बने, जिनसे इन दिखने वाली विविध सत्ताओं में पारस्परिक समन्वय होता है. हम उन नियमों से हट गए हैं, इसलिए कुछ संघर्ष आज दिखाई दे रहे हैं. यह स्थायी संघर्ष नहीं हैं. इन्हें समाप्त किया जा सकता है.
उसके लिए जरूरी है कि हम उन नियमों पर लौटें. उन्हें पुनः समाज जीवन में स्थापित करें. इन नियमों को परिभाषित कैसे करें? असल में, इन नियम समूहों को धर्म कहा गया. इनको सनातन कहा गया, क्योंकि ये नियम हर काल में सभी के लिए उपयोगी हैं. भारत में यह हिंदुत्व है. इसलिए भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रत्व को हिंदू राष्ट्रवाद भी कहा जाता है. जिस प्रकार कुछ लोग ' राष्ट्रत्व' को नहीं समझते, उसी प्रकार वह 'हिंदुत्व' को नहीं समझ पाते. वह हिंदुत्व को सांप्रदायिक, संकीर्ण और संकुचित मानते हैं. जबकि हिंदुत्व का विस्तार वृहद है. यह व्यापक अवधारणा है. यह नियमबद्ध वैज्ञानिक जीवनशैली है. दुनिया में मान्यता है कि हिंदू संस्कृति से उदार अन्य कोई संस्कृति नहीं है.
स्वामी विवेकानंद के शिकागो व्याख्यान का संदेश यही था कि दुनिया में जितने संघर्ष हैं, जो धरती को बार-बार खून से रंग रहे हैं, उनका समाधान भारतीय संस्कृति में है. हमने ही दुनिया को सहनशीलता के साथ दूसरे धर्मों के सत्य को स्वीकार करने की सीख दी है. जिन्हें 'हिंदुत्व' हिंसक नजर आता है, उन्हें स्वामी विवेकानंद के उस भाषण को सुनना या फिर पढऩा चाहिए. स्वामी स्पष्ट कह रहे हैं कि विश्व में विकराल हो चुकी समस्याओं का समाधान कहीं है, तो वह भारतीय संस्कृति में है. इसलिए कम से कम भारत में तो राजनीति की दिशा और दशा सांस्कृतिक राष्ट्रत्व के अनुरूप होनी चाहिए. सांस्कृतिक राष्ट्रत्व से हटने के कारण ही आज भारत के कुछ शिक्षा संस्थानों में देश को तोडऩे के नारे बुलंद हो पाते हैं.
अंत में, हमें समझना चाहिए कि भारतीय राष्ट्र के उत्थान और पतन का वास्तविक कारण संस्कृति का प्रकाश अथवा उसका अभाव है. आज भारत उन्नति की आकांक्षा कर रहा है. संसार में बलशाली एवं वैभवशाली राष्ट्र के नाते खड़ा होना चाहता है. सब ओर से समर्थन भी मिल रहा है. ऐसी दशा में भारत की राजनीति को सांस्कृतिक राष्ट्रत्व के पथ पर आगे बढ़ना चाहिए. संस्कृति से परिपूर्ण राजनीति को हमारे महान राजनीतिज्ञों और उनके आचार्यों ने श्रेष्ठ माना है. शुक्राचार्य और चाणक्य धर्मविहीन राजनीति के पोषक नहीं थे. धर्महीन राजनीति का कोई अर्थ ही नहीं है. बहरहाल, हमारे देश की एकता का मुख्य आधार हमारी संस्कृति है. जिस प्रकार शरीर बिना आत्मा के निरर्थक है, उसी प्रकार संस्कृति से रहित देश निष्प्राण हो जाता है. भारत देश मूलत: संस्कृति प्रधान देश है.
हमारे यहाँ जीवन मूल्यों का महत्त्व है. इसलिए हमारा राष्ट्रत्व राजनीति से नहीं, अपितु संस्कृति से जुड़ता है. हमारे राष्ट्र की मूल अवधारणा का केंद्र-बिंदु ही सांस्कृतिक राष्ट्रत्व है. हमारी संस्कृति विश्व को जोड़ने का कार्य करती है. भारतीय आत्मा की सृजनात्मक अभिव्यक्ति सबसे पहले दर्शन, धर्म व संस्कृति के क्षेत्रों में हुई. भारत को 'भारतमाता' कहना ही हमारे 'सांस्कृतिक राष्ट्रत्व' के संस्कार को दर्शाता है.
हमारी सांस्कृतिक राष्ट्रत्व की ही यह देन है कि हम अपने देश में पत्थर, नदियाँ, पहाड़, पेड़-पौधे, पक्षी और संस्कृति पोषक को सदैव पूजते हैं. हमारी उदारता, संवदेनशीलता, मानवता के साथ-साथ सहिष्णुता का मूल कारण हमारी सांस्कृतिक विरासत ही है. वर्तमान चुनौतियों को देखते हुए और गौरवमयी भविष्य के लिए भारत और भारतीयता के हित में आज की राजनीति के केंद्र में सांस्कृतिक राष्ट्रत्व को लाने की आवश्यकता है. पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कहा है कि आज की प्रमुख आवश्यकता है कि एक-संस्कृतिवादियों के साथ पूर्ण सहयोग किया जाए. तभी हम गौरव और वैभव से खड़े हो सकेंगे तथा राष्ट्र-विघटन जैसी भावी दुर्घटनाओं को रोक सकेंगे.
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