नवरात्रि में बंगाली समाज की महिलाएं जितना उत्साहित दिखती हैं, उतना कोई नहीं दिखता. उनका बन-ठन कर रहना, उनके चेहरे की चमक और ऊर्जा देखकर मन प्रसन्न हो जाता है. हो भी क्यों न, दुर्गा पूजा बंगाली हिंदुओं का सबसे बड़ा त्योहार जो है. मां दुर्गा का ये त्योहार मुझे इसलिए भी अच्छा लगता है क्योंकि इस त्योहार की कुछ बातें महिला सम्मान से जुड़ी हैं.
वेश्या: जिसका सम्मान किए बिना दुर्गा मां की मूर्ति अधूरी है
पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार देवी की मूर्ति बनाने के लिए कुछ चीजें बहुत जरूरी मानी गई हैं- गौमूत्र, गोबर, लकड़ी, जूट के ढांचे, सिंदूर, धान के छिलके, पवित्र नदियों की मिट्टी, विशेष वनस्पतियां और निषिद्धो पाली की रज. (निषिद्धो पाली, यानी वर्जित क्षेत्र और रज यानी मिट्टी.) इसका मतलब है बाकी चीजों से साथ-साथ उस जगह की मिट्टी भी जरूरी है जो वर्जित क्षेत्र है. यानी वेश्यालय. इस मिट्टी को यदि दुर्गा मां की मूर्ति बनाने के लिए उपयोग न किया जाए तो मां की मूर्ति अधूरी मानी जाती है और दुर्गा मां की प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती. इसलिए दुर्गा पूजा के दौरान वेश्यालय की मिट्टी का उपयोग दुर्गा की मूर्ति बनाने के लिए किया जाता है.
लेकिन दुर्गा पूजा जैसे पवित्र कार्य में वेश्यालय जैसी 'अपवित्र' जगह से मिट्टी लाना आश्चर्य की बात है. ये वो जगह है जिसके आस-पास से गुजरना भी अच्छा नहीं माना जाता, देह व्यापार करने वाली महिलाओं को घृणा की नजर से देखा जाता है. फिर दुर्गा पूजा पर ऐसा क्यों. तो जवाब प्रचलित पौराणिक कथाओं में ही मिल जाता है.
- कहा जाता है कि ये मिट्टी समाज की वो लालसाएं हैं जो कोठों पर जमा हो जाती हैं. इसे दुर्गा को अर्पित किया जाता है...
नवरात्रि में बंगाली समाज की महिलाएं जितना उत्साहित दिखती हैं, उतना कोई नहीं दिखता. उनका बन-ठन कर रहना, उनके चेहरे की चमक और ऊर्जा देखकर मन प्रसन्न हो जाता है. हो भी क्यों न, दुर्गा पूजा बंगाली हिंदुओं का सबसे बड़ा त्योहार जो है. मां दुर्गा का ये त्योहार मुझे इसलिए भी अच्छा लगता है क्योंकि इस त्योहार की कुछ बातें महिला सम्मान से जुड़ी हैं.
वेश्या: जिसका सम्मान किए बिना दुर्गा मां की मूर्ति अधूरी है
पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार देवी की मूर्ति बनाने के लिए कुछ चीजें बहुत जरूरी मानी गई हैं- गौमूत्र, गोबर, लकड़ी, जूट के ढांचे, सिंदूर, धान के छिलके, पवित्र नदियों की मिट्टी, विशेष वनस्पतियां और निषिद्धो पाली की रज. (निषिद्धो पाली, यानी वर्जित क्षेत्र और रज यानी मिट्टी.) इसका मतलब है बाकी चीजों से साथ-साथ उस जगह की मिट्टी भी जरूरी है जो वर्जित क्षेत्र है. यानी वेश्यालय. इस मिट्टी को यदि दुर्गा मां की मूर्ति बनाने के लिए उपयोग न किया जाए तो मां की मूर्ति अधूरी मानी जाती है और दुर्गा मां की प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती. इसलिए दुर्गा पूजा के दौरान वेश्यालय की मिट्टी का उपयोग दुर्गा की मूर्ति बनाने के लिए किया जाता है.
लेकिन दुर्गा पूजा जैसे पवित्र कार्य में वेश्यालय जैसी 'अपवित्र' जगह से मिट्टी लाना आश्चर्य की बात है. ये वो जगह है जिसके आस-पास से गुजरना भी अच्छा नहीं माना जाता, देह व्यापार करने वाली महिलाओं को घृणा की नजर से देखा जाता है. फिर दुर्गा पूजा पर ऐसा क्यों. तो जवाब प्रचलित पौराणिक कथाओं में ही मिल जाता है.
- कहा जाता है कि ये मिट्टी समाज की वो लालसाएं हैं जो कोठों पर जमा हो जाती हैं. इसे दुर्गा को अर्पित किया जाता है ताकि जिन्होंने ग़लतियां की हैं, उन्हें पापों से मुक्ति मिल जाए.
- एक पौराणिक कथा के अनुसार, एक वेश्या दुर्गा मां की बहुत बड़ी भक्त थी. लेकिन वेश्या होने की वजह से समाज उसका तिरस्कार करता था. तब मां ने अपनी इस भक्त को तिरस्कार से बचाने के लिए उसे वरदान दिया था कि उसके हाथ से दी हुई मिट्टी से ही देवी की मूर्ति बनेगी और इस मिट्टी के उपयोग के बिना प्रतिमाएं पूरी नहीं होंगी. जानकारों के मुताबिक शारदा तिलकम, महामंत्र महार्णव, मंत्रमहोदधि आदि ग्रंथों में इसकी पुष्टि की गई है.
- एक मान्यता ये भी है कि जब कोई व्यक्ति किसी वेश्यालय के अंदर जाता है तो वह अपनी सारी पवित्रता वेश्यालय की चौखट के बाहर ही छोड़ देता है और इसलिए चौखट के बाहर की मिट्टी पवित्र हो जाती है.
इन सारी मान्यताओं को हर कोई अपने-अपने तरीके से समझता है. लेकिन जो मैंने समझा उसमें मुझे इस प्रथा में सिर्फ महिला का सम्मान नजर आया. एक तरफ ये समाज देवी को पूजता है, उसे महाशक्ति कहता है, लेकिन वही समाज एक वेश्या को सिर्फ इसलिए सम्मान नहीं देता क्योंकि वो देह व्यापार करती है. कहीं न कहीं इस प्रथा के जरिए पितृसत्तामक समाज को ये संदेश भी दिया जाता है कि देह व्यापार महिलाओं ने अपनी मर्जी से नहीं चुना, ये पेशा उन्हें पुरुषों की लालसाओं की वजह से चुनना पड़ा. तो इसके लिए उनका तिरस्कार क्यों. ये महिलाएं भी किसी की मां और बहन हैं. वो तिरस्कार करने योग्य नहीं हैं. वो भी बाकी महिलाओं की तरह सम्मान की बराबर की भागीदार हैं. इस प्रथा के जरिए साल में एक बार ही सही वेश्याओं के आगे पंडितों को भी हाथ फैलाने पड़ते हैं. महिला सम्मान और महिला सशक्तिकरण का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है.
दुर्गा: हर घर की बेटी
नवरात्र के छठे दिन, यानी षष्ठी को मां दुर्गा की मूर्ति को पंडाल में स्थापित किया जाता है. और शाम को उनके मुख से आवरण हटाया जाता है. कहा गया है कि दुर्गा मां गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती के साथ 10 दिनों के लिए अपने मायके आती हैं. हर पंडाल में देवी की पूजा की जाती है और खुशियां मनाई जाती हैं. नाचना गाना, सजना संवरना सबकुछ. यानी बेटी मायके आती है तो परिवार में जैसी खुशी होती है वैसी. ये 4 दिन बहुत मुख्य माने गए हैं. और दशमी को सुबह महिलाएं मां दुर्गा की प्रतिमा को सिंदूर लगाने पंडाल आती हैं और वहां सिंदूर की होली खेलती हैं. इसे 'सिंदूर खेला' कहा जाता है. और इसके बाद देवी की प्रतिमा को विदाई दी जाती है, उन्हें विसर्जित कर दिया जाता है.
इस दिन हर महिला मां दुर्गा को बेटी की तरह विदाई देती है. यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि दुर्गा जो पूरे संसार की मां हैं, वो इस दिन बेटी की तरह विदा होती हैं. और उन्हें हंसी खुशी विदा करने की ही परंपरा है, कोई रोता नहीं क्योंकि अगले साल मां को फिर आना ही है. यानी हर महिला के दिल में मां दुर्गा के लिए बेटी जैसा प्यार और सम्मान है.
यहां ये भी बताने की कोशिश की गई है कि जिस तरह मायके आई बेटी को मान सम्मान दिया जाता है उसी मान सम्मान की हकदार दुनिया की हर बेटी है. समाज में बेटी और बहू दोनों का अपना अलग-अलग महत्व है. लेकिन दोनों की तुलना की जाए तो प्यार और सम्मान बेटियों को ज्यादा मिलता है. इस त्योहार के जरिए समाज को ये संदेश जाता है कि हर महिला का सम्मान बेटी की ही तरह किया जाना चाहिए.
हमारी संस्कृति में नारी को पूजनीय माना जाता रहा है. लेकिन ये सम्मान आज सिर्फ प्रथा और त्योहारों में दिखता है. लोग दुर्गा मां के 10 हाथों और ममतामयी मुख को देखकर भावविभोर होते हैं लेकिन वो ये नहीं देखते कि जो महिला उनके घर में है वो भी देवी का ही रूप है. वो भी अलग अलग रिशतें में बंधी है और घर और बाहर के सैकड़ों काम करती है. लेकिन उसके 10 हाथ किसी को नजर नहीं आते. दुर्गापूजा पर जितनी श्रद्धा जरूरी है, उससे ज्यादा जरूरी है इसके मूल्यों को समझना.
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