साहित्य बदलता है. आपके पढ़ने के आखिरी लफ्ज से लिखने के पहले हर्फ के दरमियां साहित्य बदलता है. जब आप लिखी हुई कहानी, नज्म, कविता या शेर को पढ़ने से पहले लेखक को पढ़ने लगते हैं, तब साहित्य बदलता है. जैसे दूध जब फटता है, तो वो बदलता है, बदलकर पनीर बनता है, भले ही दूध से महंगा हो, लेकिन बच्चों को पनीर नहीं दूध ही पिलाना पड़ता है. इस बात को कुछ ऐसे समझें की प्रेमचंद जी के बैल आज के साहित्य में किस तबेले में रखे जाएंगे? लेकिन गोबर लिखने से पहले, बैल पढ़ना जरूरी है.
और अगर बैल पढ़ने के बाद भी गोबर लिखना ही है, ये जानना जरूरी है कि आदमी के मल को गोबर नहीं कहते. गालिब, फराज, प्रेमचंद, मीर, निराला, दिनकर, साहिर, कैफी, गुलजार, जावेद, और तमाम लोगों को हमने पढ़ा और सुना है. कुछ को स्कूल के समय में, और कुछ को बाद में या साथ ही कह लें. अब जिनको हमने स्कूल में पढ़ा है, उनकी कविताएं हम परखते नहीं. क्योंकि वह स्कूल में पढ़ाया है तो उसे परखकर ही किताबों में डाला गया है.
किसने परखा होगा? जिसने बहुत पढ़ा होगा. साहित्य का ज्ञान होगा उसे. लेकिन अगर उसने स्कूल की किताब में निराला की दो कविताएं रखी हैं तो बाकियों को कमतर माना. मतलब वहां वह साहित्य का जानकर होकर निराला, दिनकर, बच्चन कि कुछ कविताओं को उनकी बाकी कविताओं से बेहतर बताते हुए, स्कूल की किताब में रखता है. और वह बड़े होने पर हमारे लिए साहित्य का आधार बन जाता है. जिससे हम आगे कुछ भी पढ़ें तो पढ़े हुए साहित्य से उसको मापें, फिर अच्छा-खराब परखें.
तो क्या लगता है आपको? कि निराला, बच्चन, दिनकर, गालिब, मीर की सबसे कम अच्छी या खराब रचनाएं कौन सी हैं? आप कान पकड़ेंगे कि उनको परखने वाले हम कौन...
साहित्य बदलता है. आपके पढ़ने के आखिरी लफ्ज से लिखने के पहले हर्फ के दरमियां साहित्य बदलता है. जब आप लिखी हुई कहानी, नज्म, कविता या शेर को पढ़ने से पहले लेखक को पढ़ने लगते हैं, तब साहित्य बदलता है. जैसे दूध जब फटता है, तो वो बदलता है, बदलकर पनीर बनता है, भले ही दूध से महंगा हो, लेकिन बच्चों को पनीर नहीं दूध ही पिलाना पड़ता है. इस बात को कुछ ऐसे समझें की प्रेमचंद जी के बैल आज के साहित्य में किस तबेले में रखे जाएंगे? लेकिन गोबर लिखने से पहले, बैल पढ़ना जरूरी है.
और अगर बैल पढ़ने के बाद भी गोबर लिखना ही है, ये जानना जरूरी है कि आदमी के मल को गोबर नहीं कहते. गालिब, फराज, प्रेमचंद, मीर, निराला, दिनकर, साहिर, कैफी, गुलजार, जावेद, और तमाम लोगों को हमने पढ़ा और सुना है. कुछ को स्कूल के समय में, और कुछ को बाद में या साथ ही कह लें. अब जिनको हमने स्कूल में पढ़ा है, उनकी कविताएं हम परखते नहीं. क्योंकि वह स्कूल में पढ़ाया है तो उसे परखकर ही किताबों में डाला गया है.
किसने परखा होगा? जिसने बहुत पढ़ा होगा. साहित्य का ज्ञान होगा उसे. लेकिन अगर उसने स्कूल की किताब में निराला की दो कविताएं रखी हैं तो बाकियों को कमतर माना. मतलब वहां वह साहित्य का जानकर होकर निराला, दिनकर, बच्चन कि कुछ कविताओं को उनकी बाकी कविताओं से बेहतर बताते हुए, स्कूल की किताब में रखता है. और वह बड़े होने पर हमारे लिए साहित्य का आधार बन जाता है. जिससे हम आगे कुछ भी पढ़ें तो पढ़े हुए साहित्य से उसको मापें, फिर अच्छा-खराब परखें.
तो क्या लगता है आपको? कि निराला, बच्चन, दिनकर, गालिब, मीर की सबसे कम अच्छी या खराब रचनाएं कौन सी हैं? आप कान पकड़ेंगे कि उनको परखने वाले हम कौन हैं. खैर, इस बात को यहीं खत्म करके आजकल की रचनाओं पर आते हैं, क्योंकि लिखे हुए को खराब बताने के लिए उससे अच्छा लिखना पड़ता है.
तो ये जो कुछ नयी वाली भाषा का चलन है, जिसमें 'आला', 'स्थेतोस्कोप' बन गया, 'मुस्कान', 'स्माइल' बन गयी है लिखायी में, और नए साहित्य की शक्ल लिए पाउट कर रही है, उसे परखना होगा. उसे आंख बंद करके अच्छा या खराब कहने से काम नहीं चलेगा. उसे पढ़कर, परखना होगा. क्योंकि अगर आप सिर्फ पढ़ते हैं, तो आप की जिम्मेदारी है कि भाषा को नुकसान पहुंचाने वाली आज की कुछ रचनाएं बिलकुल भी साहित्य में न गिनी जाएं.
अगर आप सिर्फ लिखते हैं, पढ़ते नहीं, तो बेशक बिना रंग के होली खेल रहे हैं. और अगर आप पढ़ते-लिखते दोनो हैं तो आपकी जिम्मेदारी ज्यादा है, कि साहित्य को साहित्य बने रहने देने के लिए आप अपना लिखा हुआ भी परखें. मैं जानता हूँ आज की नस्ल में ज्यादातर लोग साहित्य में दूसरी भाषा की मिलावट को खराब नहीं समझते, क्योंकि उनके लिए ये महज अपने ख्यालों को बयां करने का जरिया है, लेकिन भाषा को मारकर कोई ख्याल ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहता.
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