मैं चित्तौड़गढ़....
बलिदान की उन सैंकड़ों कहानियों का गवाह रहा हूं, जिन पर वर्तमान को मुझपर अभिमान है... कभी लहू देकर मेरा सम्मान किया गया... तो कभी उन जलती चिता को देखकर मैंने आंसू बहाए... जो मेरी बेटी थी... जो मेरा बेटा था... मेरी धरती पर उन बेटों ने जन्म लिया है.... उन बेटियों ने जन्म लिया है, जिनपर आज भी मुझे गर्व है... आज मैं अपनी कहानी सुना रहा हूं.. मैं चित्तौड़गढ़ हूं…
आज मैं अपने इतिहास..... वीरतापूर्ण लड़ाइयों.... राजपूत शूरता.... महिलाओं के अद्वितीय साहस की कई और कहानियां सुना रहा हूं... दुनिया में वीरता, बलिदान, त्याग, साहस के न जाने कितने किरदार आपने देखे होंगे और सुने होंगे. पर मुझे नाज है कि हिंदुस्तान की सरजमीं पर इतने सारे नायकों से भरी धरा कोई नही है.
मैं चित्तौड़गढ़ हूं.
चित्तौड़ की इस पावन धरा ने तो अन्याय और अत्याचार के खिलाफ ही लड़ना जाना. हमें क्या पता ये सियासत क्या होती है. हिंदू-मुसलमान के नाम पर हमें मत बांटो. हमने अपने बेटों को कभी धर्म और संप्रदाय की आंखों से नहीं देखा. जब मुगल बाबर ने हमें आंखें दिखाई थी, तो खन्वा के युद्ध में मेरे बेटे राणा सांगा का साथ देने के लिए हसन खान चिश्ती और महमूद लोदी ही तो आए थे. जब अत्याचारी अहमद शाह हमें लूटने पहुंचा, तो हमारी राजमाता कर्णावती ने रक्षा के लिए अपने मुगल भाई हुमायूं को ही तो राखी भेजी थी. जब मेरे प्रतापी बेटे महाराणा प्रताप के खिलाफ सभी सगे संबंधी मुगल अकबर के साथ हो गए, तो प्रताप का सेनापति बनकर पठान योद्धा हाकम खान सूर ने ही युद्ध में बलिदान दिया.
मुझे किसी करणी सेना के नाम पर किसी जाति में मत बांधो. जब खुद के एक मेरे नालायक बेटे बनबीर ने मेरे ऊपर अत्याचार किए, तो मेरे वारिस...
मैं चित्तौड़गढ़....
बलिदान की उन सैंकड़ों कहानियों का गवाह रहा हूं, जिन पर वर्तमान को मुझपर अभिमान है... कभी लहू देकर मेरा सम्मान किया गया... तो कभी उन जलती चिता को देखकर मैंने आंसू बहाए... जो मेरी बेटी थी... जो मेरा बेटा था... मेरी धरती पर उन बेटों ने जन्म लिया है.... उन बेटियों ने जन्म लिया है, जिनपर आज भी मुझे गर्व है... आज मैं अपनी कहानी सुना रहा हूं.. मैं चित्तौड़गढ़ हूं…
आज मैं अपने इतिहास..... वीरतापूर्ण लड़ाइयों.... राजपूत शूरता.... महिलाओं के अद्वितीय साहस की कई और कहानियां सुना रहा हूं... दुनिया में वीरता, बलिदान, त्याग, साहस के न जाने कितने किरदार आपने देखे होंगे और सुने होंगे. पर मुझे नाज है कि हिंदुस्तान की सरजमीं पर इतने सारे नायकों से भरी धरा कोई नही है.
मैं चित्तौड़गढ़ हूं.
चित्तौड़ की इस पावन धरा ने तो अन्याय और अत्याचार के खिलाफ ही लड़ना जाना. हमें क्या पता ये सियासत क्या होती है. हिंदू-मुसलमान के नाम पर हमें मत बांटो. हमने अपने बेटों को कभी धर्म और संप्रदाय की आंखों से नहीं देखा. जब मुगल बाबर ने हमें आंखें दिखाई थी, तो खन्वा के युद्ध में मेरे बेटे राणा सांगा का साथ देने के लिए हसन खान चिश्ती और महमूद लोदी ही तो आए थे. जब अत्याचारी अहमद शाह हमें लूटने पहुंचा, तो हमारी राजमाता कर्णावती ने रक्षा के लिए अपने मुगल भाई हुमायूं को ही तो राखी भेजी थी. जब मेरे प्रतापी बेटे महाराणा प्रताप के खिलाफ सभी सगे संबंधी मुगल अकबर के साथ हो गए, तो प्रताप का सेनापति बनकर पठान योद्धा हाकम खान सूर ने ही युद्ध में बलिदान दिया.
मुझे किसी करणी सेना के नाम पर किसी जाति में मत बांधो. जब खुद के एक मेरे नालायक बेटे बनबीर ने मेरे ऊपर अत्याचार किए, तो मेरे वारिस उदय सिंह को बचाने के लिए गुर्जर जाति की पन्नाधाय ने अपने बेटे चंदन का बलिदान कर मेरे वारिस को बचाया था. जब महराणा प्रताप की मदद किसी ने नहीं की, तो एक वैश्य ने सबकुछ बेचकर मेरी 12,000 सेनाओं का खर्च उठाया. जब राजपूत राजा हमारे लिए लड़ रहे प्रताप के खिलाफ अकबर से जा मिले, तो प्रताप की सेना में लड़ने के लिए घूमंतु आदिवासी गड़रिया लुहार ही साथ आए थे. जब अकबर ने हमला किया तो किसी रानी ने नहीं बल्कि फूलकंवर के नेतृत्व में मेरे गोद में चित्तौड़ की सभी महिलाओं ने आखिरी जौहर किया था.
आज मैं तुझे अपनी पूरी कहानी सुना रहा हूं...
पांचवी सदी में मौर्यवंश के शासक चित्तरांगन मौरी ने जब 7 मील यानी 13 कि.मी की लंबाई, 180 मी. ऊंचाई और 692 एकड़ में फैले इस पहाड़ी पर मुझे बसाया था. तब किसी को कहां पता था कि दुनिया का सबसे बुजुर्ग गढ़ मैं, यानी चित्तौड़गढ़, हिंदुस्तान की माटी का तिलक बन जाउंगा.
मोरी वंश के अंतिम शासक मान सिंह मोरी के बाद मेरे पास 728 ईसवीं में गोहिल वंश के शासक आए. गोहिलों के शासन के बाद रावल वंश का शामन चला. कहते हैं गोहिलों ने दहेज में राजकुमारी को ये किला भेंट किया. रानी, राजकुमारी से रावल वंश के वंशज बप्पा रावल की शादी हुई थी. सातवीं से 13वीं सदी तक मेरे वैभव का काल था. जब हमारी सुचिता, वैभव और पराक्रम की कहानियां दूर-दूर तक कही जाने लगी.
लेकिन चौदहवीं सदी से लेकर 16 वीं सदी तक हमने सबसे बुरा दौर देखा. जाने किसकी नजर हमारे चित्तौड़गढ़ पर लग गई और रावल वंश के शासक रतन सिंह के शासन के दौरान 1303 में अलाउद्दीन खिलजी ने मेरे उपर हमला कर दिया. हिंदुस्तान के सबसे सुरक्षित माना जाने वाला अभेद्य दुर्ग सबसे कमजोर भी हो सकता है ये खिलजी की युद्धनीति ने पहली बार सामने ला दिया. फिर यहीं से हम हमेशा के लिए कमजोर बनते चले गए.
सात दरवाजों से घिरे मेरे अंदर सात विशाल दुर्ग दरवाजे हैं, जिसे कोई पार नही कर सकता. लेकिन 1303 में खिलजी ने जाड़े में चारो तरफ से मुझे घेरकर मैदान में डेरा डाल दिया. वो मेरे अंदर नहीं आ सकता था. लेकिन दुर्ग के अंदर हमारे राशन-पानी को बंद कर दिया. सात महीने में हम बेबस होकर युद्ध के लिए मैदान में आए और हमारे रावल रतन सिंह और उनके दो बहादुर सेनापति गोरा-बादल शहीद हुए.
हमारी रुपवती रानी पद्मिनी को 16000 रानियों के साथ जौहर करना प़ड़ा. ये पहली बार था, जब हमारी वीरता और साहस-बलिदान की अमर कहानी दुनिया ने देखी. कहते हैं अलाउद्दीन लंपट स्वभाव का था और पद्मिनी को पाने के लिए युद्ध किया था. लेकिन हिंदुस्तान की सबसे ताकतवर सेना के होते हुए भी वो हमारी महरानी को नही पा सका.
रावलों के शासन का यहीं अंत हुआ. 13 साल तक अलाउद्दीन खिलजी और उसके बेटे खेजर ने मेरे ऊपर राज किया. इस दौरान पूरे महल को तोड़ दिया गया और 1000 हजार से भी ज्यादा मंदिर भी तोड़ दिए. ये हमारे ऊपर हुए अत्याचार की इंतहा थी. लेकिन हमने उम्मीद नहीं छोड़ी थी. उसके बाद गोहिल वंश के ही भाई राणा वंश के सिसोदियाओं ने हमारे ऊपर राज किया. 1325 में राणा हमीर ने इसे अपना किला बनाया और राणा वंश यानी सिसोदिया वंश का शासन चलना शुरु हुआ. और आखिरी तक मेरे ऊपर सिसोदिया वंश का ही शासन रहा. मेरे उपर सबसे ज्यादा सिसोदिया वंश ने ही राज्य किया. और इस वंश में कई प्रतापी राजा हुए. राजा रतन सिंह से लेकर महराणा प्रताप ने चित्तौड़गढ़ पर शासन किया. महाराणा सांगा. महाराणा कुंभा भी चित्तौड़गढ़ के महान राजाओं में से एक हुए. इन राजाओं ने चित्तौड़गढ़ को एक अलग पहचान दिलवाई.
मैं यानी चितौड़गढ़ किला अभेद्य था. पहाड़ी के किनारे-किनारे खड़े चट्टानों की पंक्ति थी. साथ ही साथ दुर्ग में अंदर जाने के लिए लगातार सात दरवाजे बनाए गये थे. लिहाजा, दुश्मनों के लिए किले के अंदर जाना नामुमकिन था. लेकिन, विशाल मैदान के बीच में पहाड़ी पर ये किला बना था. जिसकी वजह से दुश्मन विशाल मैदान में डेरा डाल देते थे. और किले के अंदर खाने की सप्लाई रोक देते थे. नतीजा किले के दरवाजों को खोलने के लिए राजाओं को विवश होना पड़ता था. और शत्रुओं की विशाल सेना होने की वजह से उन्हें हार का मुंह देखना पड़ता था.
रानी कर्णावती
रामी पद्मावती की कहानी तो आपने सुनी लेकिन राणा सांगा की पत्नी कर्णावती का भी बलिदान भी हमारे गर्भ में छिपा है. जब गुजरात के शासक अहमद शाह ने 1535 ई.वी में चित्तौड़ पर हमला किया, तब बाबर के साथ खानवा के युद्ध में घायल राणा सांगा की मौत हो चुकी थी. राणा सांगा के पुत्र विक्रमादित्य के व्यवहार से परेशान किसी राजा ने हमारी मदद नहीं की. तो कर्णावती ने हूमायूं को राखी भेजते हुए लूटेरे अहमद शाह के खिलाफ मदद मांगी. हूमायूं को कर्णावती का संदेशा देर से मिला और मदद करने वो नहीं आ पाया. दो साल की लड़ाई के बाद अहमद शाह की जीत हुई तो 1537 ईवी में हजारों रानियों के साथ एक बार फिर कर्णावती ने मेरे अंदर दुर्ग में जौहर किया.
रानी मीरा
राणा सांगा के बेटे भोजराज के साथ मेड़ता की राजकुमारी की शादी हुई. लेकिन मीरा का मन कभी रानीवासा में नही लगा. वो तो गोपाल नंदलाल यानी कृष्ण के मंदिर में ही बैठी रहती है. राणा कंभा ने बाद में मीरा का मंदिर ही बना दिया जो आज भी चित्तौड़गढ़ में मौजूद है.
पन्ना धाय
राणा विक्रम सिंह की हत्या कर उनके चाचा का लड़का बनवीर चित्तौड़ की गद्दी पर बैठना चाहता था. तब चित्तौड़ के वारिस उदय सिंह पालना में थे. रानी कर्णावती की दाई पन्नाधाय उनकी देखभाल करती थी. जब पन्नाधाय को पता चला कि बनवीर तलवार लेकर उदय सिंह को मारने आ रहा है, तो पन्नाधाय ने चित्तौड़ के वारिस उदय सिंह को कुंभलगढ़ रवाना कर अपने बेटे चंदन को उदय सिंह के सामने सुला दिया और बनवीर ने मां पन्नाधाय के सामने ही उनके पुत्र चंदन को अपनी तलवार से दो टुकड़े कर दिए.
महराणा प्रताप
जब अकबर ने एकबार फिर 1567 ईवीं में मेरे ऊपर हमला किया, तो उड़ई सिंह मेरे ऊपर राज करते थे. अकबर ने पूरी तरह से किले को बर्बाद कर दिया. एक बार फिर फूलकंवर के नेतृत्व में मेरे अंदर जौहर हुआ. तब हमारे राजा उदय सिंह ने 1568 में अकबर के संधि के अनुसार मुझे छोड़कर उदयपुर को अपनी राजधानी बना लिया.
तब तय हुआ कि चित्तौड़ यानी मैं हमेशा के लिए वीरान रहूंगा और यहां कोई निर्माण नहीं होगा. दरअसल दिल्ली के सुल्तानों और मुगलों को हमेशा डर सताता था कि अगर चित्तौड़ आजाद और आबाद रहा, तो कभी दक्षिण नही जीत पाएंगे. मुगलों के साथ बारुद भारत में युद्ध में प्रयोग होने लगा तब तो हम बिल्कुल असुरक्षित हो गए थे. मगर मेरी गोद वीर पुत्रों से खाली नहीं थी. 16 साल तक मेरी गोद में खेले महराणा प्रताप को सरदारों ने चित्तौड़ का शासक घोषित कर दिया. मैनें आखिरी हमला दिल्ली की गद्दी पर बैठे अकबर का देखा और फिर हमेशा-हमेशा के लिए इतिहास बन गया. उदय सिंह की हार हुई और मुगल की संधि के अनुसार इस किले को सिसोदिया वंश को छोड़ना पड़ा. उदय सिंह ने अपनी राजधानी उदयपुर बना ली. मगर उनके जेठ पुत्र महाराणा प्रताप इसे भुला नहीं पाए. वो इसी किले की तलहटी से अकबर से दो-दो युद्ध लड़े. और आखिरी बार हल्दीघाटी की लड़ाई हुई.
ये युद्ध हिंदुस्तान के सबसे मजबूत शासक और मुट्ठी भर लड़ाकों के साहस की लड़ाई थी. जिसे दुनिया प्रताप की वीरता के लिए याद रखती है. प्रताप और उनके हथियार बनाने वाले गड़रिया लुहारों ने ये प्रतीज्ञा ली थी कि जबतक मुझे नहीं पा लेगें वो किले में प्रवेश नहीं करेंगे. भारत आजाद हुआ तो खुद देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने गड़रिया लुहारों को लेकर 1955 में मेरे अंदर यानी किले में प्रवेश किया. 1905 में अंग्रेजों के समय से अबतक हम दिल्ली की सरकार के अधीन रहे. मगर तब से हमारी सार संभाल ही हो रही है.
भामाशाह
मेरे अंदर शूर वीरता और बलिदान के साथ-साथ त्याग की भी अमिट कहानी साथ-साथ चलती है. जब प्रताप ने फैसला कि वो अकबर से चित्तौड़ दुर्ग यानी मुझे वापस लेकर रहेंगे. तो उनके पास लड़ाई के लिए पैसे नहीं थे. ऐसे समय में मेरे पास के सबसे अमीर धन्ना सेठ और प्रधानमंत्री भामाशाह ने अपनी सारी दौलत प्रताप को सौंपकर सारा राजपाठ छोड़कर प्रताप के साथ जंगलों में जाने को चुना. दानवीरता की ऐसी दास्तान इतिहास में शायद ही मिले.
यूं तो मेरे पग-पग पर शूर वीरता की गाथाएं भरी पड़ी है. लेकिन सबसे शान से मेरे सीने पर खड़ा है, यहां का विजय स्तंभ. महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद शाह खिलजी को हराकर इस विजय स्तंभ का 1448 से 1458 के बीच निर्माण करवाया था. यह स्तम्भ वास्तुकला की दृष्टि से अपने आप में एक मिसाल है. मंजिल पर झरोखा होने से इसके भीतरी भाग में भी प्रकाश रहता है. इसमें विष्णु के विभिन्न रुपों जैसे जनार्दन, अनन्त आदि, उनके अवतारों और ब्रम्हा, शिव समेत कई देवी देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं. यानी विजय स्तंभ चित्तौड़गढ़ की शान का प्रतीक है. साथ ही बताता है कि माटी के खातिर चित्तौड़गढ़ के राजा अपने जान की भी परवाह नहीं करते थे. अबतक शायद मैं भुला दिया गया था. मगर फिल्म निर्माता संजय लीला भंसाली ने फिर से मुझे इतिहास के अतित से निकालकर वर्तमान की राजनीति में ला खड़ा किया है. यहां मेरे दुश्मन और दोस्त बनने वाले कोई विदेशी आक्रांता नही हैं, बल्कि मेरे खुद अपने हैं. अपने-पराए का भेद कर कैसे लड़ा जाए, ये चित्तौड़ ने कभी सीखा ही नहीं, तो मैं क्या जानूं.
न जाने कितने कवि, लेखक और इतिहासकारों ने विभिन्न कालखंडो में मेरे बारे में और मुझ पर राज करनेवालों के बारे में क्या-क्या लिखा. मगर 2017 में इसे फिर से लिखा जा रहा है. इस बार कोई हमलावर चित्तौड़ नहीं आया है और न ही मेरे बहादुर चित्तौड़ के सैनिक इस लड़ाई को लड़ रहे हैं. मुझे इस लड़ाई से क्या हासिल होगा मुझे पता नहीं है. मैंने दुनिया के खुंखार से खुंखार आक्रांताओं और हमलावरों की खून की होली देखी है.
मैं सब जानता हूं. मुझे मेरी हिफाजत करनी आती है. मै बूढ़ा नहीं हुआ हूं. मैं चित्तौड़ हूं.
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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.