दास्तान शुरू होती है ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी से. इतिहासकार मिनहाज सिराज की रिपोर्ट आ रही है- 'इल्तुतमिश ने इस्लामी सेना लेकर उसने मालवा (उज्जैन और आसपास) पर चढ़ाई की. भिलसा (आज का विदिशा) के किले और शहर पर कब्जा जमा लिया. वहां के एक मंदिर को, जो 300 साल में बनकर तैयार हुआ था और जो 105 गज ऊंचा था, मिट्टी में मिला दिया. वहां से वह उज्जैन की तरफ बढ़ा और महाकाल देव के मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला. उज्जैन के राजा विक्रमाजीत की मूर्ति, जिसके राज्य को आज 1316 साल हो चुके हैं और जिसके राज्य से ही हिंदवी सन् शुरू होता है, तथा पीतल की अन्य मूर्तियों और महाकाल देव की पत्थर की मूर्ति को दिल्ली लेकर आया.'
हम कल्पना ही कर सकते हैं कि उस दिन महाकाल मंदिर में कैसा हाहाकार मचा होगा. वह हजारों वर्षों से हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ था. आधुनिक उज्जैन के शिल्पकार पद्मभूषण पंडित सूर्यनारायण व्यास के किसी विद्वान पूर्वज ने उस विध्वंस को देखकर आंखें बंद कर आखिरी आह भरी होगी! उस दिन मगरिब की नमाज के पहले उज्जैन का हजारों सालों का वैभव बर्बर इस्लामी ताकत के आगे ध्वस्त हो गया. आज चौबीस घंटे चैनलों से सजी दुनिया में ऐसा हुआ होता तो हम न्यूयार्क में विमानों की खौफनाक टक्कर से वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की ध्वस्त होती इमारतों की तरह बिल्कुल वैसे ही नजारे को उज्जैन से देख रहे होते.
मिनहाज सिराज के ब्यौरे में उज्जैन से दिल्ली ले जाई गई जिन विशाल मूर्तियों का जिक्र है, उनका क्या किया गया होगा? उज्जैन पर हुए इस भीषण हमले के 98 साल बाद सन् 1333 में दिल्ली पहुंचे मोरक्को के इतिहास प्रसिद्ध यात्री इब्नबतूता ने कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के बाहर राजा विक्रमादित्य...
दास्तान शुरू होती है ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी से. इतिहासकार मिनहाज सिराज की रिपोर्ट आ रही है- 'इल्तुतमिश ने इस्लामी सेना लेकर उसने मालवा (उज्जैन और आसपास) पर चढ़ाई की. भिलसा (आज का विदिशा) के किले और शहर पर कब्जा जमा लिया. वहां के एक मंदिर को, जो 300 साल में बनकर तैयार हुआ था और जो 105 गज ऊंचा था, मिट्टी में मिला दिया. वहां से वह उज्जैन की तरफ बढ़ा और महाकाल देव के मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला. उज्जैन के राजा विक्रमाजीत की मूर्ति, जिसके राज्य को आज 1316 साल हो चुके हैं और जिसके राज्य से ही हिंदवी सन् शुरू होता है, तथा पीतल की अन्य मूर्तियों और महाकाल देव की पत्थर की मूर्ति को दिल्ली लेकर आया.'
हम कल्पना ही कर सकते हैं कि उस दिन महाकाल मंदिर में कैसा हाहाकार मचा होगा. वह हजारों वर्षों से हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ था. आधुनिक उज्जैन के शिल्पकार पद्मभूषण पंडित सूर्यनारायण व्यास के किसी विद्वान पूर्वज ने उस विध्वंस को देखकर आंखें बंद कर आखिरी आह भरी होगी! उस दिन मगरिब की नमाज के पहले उज्जैन का हजारों सालों का वैभव बर्बर इस्लामी ताकत के आगे ध्वस्त हो गया. आज चौबीस घंटे चैनलों से सजी दुनिया में ऐसा हुआ होता तो हम न्यूयार्क में विमानों की खौफनाक टक्कर से वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की ध्वस्त होती इमारतों की तरह बिल्कुल वैसे ही नजारे को उज्जैन से देख रहे होते.
मिनहाज सिराज के ब्यौरे में उज्जैन से दिल्ली ले जाई गई जिन विशाल मूर्तियों का जिक्र है, उनका क्या किया गया होगा? उज्जैन पर हुए इस भीषण हमले के 98 साल बाद सन् 1333 में दिल्ली पहुंचे मोरक्को के इतिहास प्रसिद्ध यात्री इब्नबतूता ने कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के बाहर राजा विक्रमादित्य की मूर्ति को पड़े हुए अपनी आंखों से देखा. उसने इसे जामा मस्जिद कहा और इससे सटकर बनी कुतुबमीनार का भी जिक्र किया.
इल्तुतमिश ने सिंध से लेकर बंगाल और मध्य भारत में उज्जैन तक लगातार हमले किए. यह एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच किसी मसले पर लड़े गए आमने-सामने के चुनौतीपूर्ण युद्ध या आक्रमण नहीं थे. जैसा कि हम देख रहे हैं, यह साफतौर पर आतंकी हमले थे, क्योंकि जिस पर हमला किया जा रहा है, उसे पता ही नहीं है कि उसका कुसूर क्या है? कोई चुनौती नहीं, कोई मुद्दा नहीं. सीधे हमला. लूटपाट और मारकाट.
आप कल्पना कीजिए कि तब विदिशा या उज्जैन के आम निवासियों को क्या पता होगा कि अजीब सी शक्ल-सूरत और अजनबी जबान वाले ये हमलावर हैं कौन, क्यों उन्हें कत्ल कर रहे हैं, क्यों मंदिर को तोड़ रहे हैं, क्यों ये हमारी संपत्तियां लूटकर क्यों ले जा रहे हैं? अगर उन्हें किसी ने यह सूचना दी भी होगी कि ये दिल्ली के नए और विदेशी राजा हैं तो अपना सब कुछ तबाह होने के बाद पहली ही बार उन्होंने आतंकी सुलतानों के दीदार किए होंगे!
इस्लाम और अल्लाह, ये दो शब्द भी पहली दफा इन्हीं झुंडों में आए लोगों के मुंह से एक भयावह शोर-शराबे में सुने गए. हम आज के बेतरतीब और बदहाल विदिशा और उज्जैन की पुरानी बस्तियों, गलियों और मोहल्लों में घूमते हुए कल्पना भी नहीं कर सकते कि ये इल्तुतमिश की इस्लामी फौज के हाथों पहली बार बरबाद होने के पहले किस शक्ल में सदियों से मौजूद रहे होंगे. वे सब अब खंडहरों या उजाड़ और गुमनाम टीलों में मौजूद हैं. बदली हुई पहचानों की आबादी के वे विस्तार उन्हीं अंधड़ों की उपज हैं. हम धूल-धूसरित कर दिए गए उज्जैन की गलियों में पसरे मातम के बीच मिनहाज सिराज से सबसे पहले शम्सुद्दीन इल्तुतमिश के बारे में जानना चाहते हैं, जिसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने खरीदा था और अपनी लड़की से शादी कर दी थी.
मिनहाज साहब बता रहे हैं-'अल्लाह ने शम्सुद्दीन इल्तुतमिश के द्वारा मुहम्मद के मजहब की रक्षा कराई है और उसे तरक्की दिलवाई है. सुल्तान कुतुबुद्दीन अपने समय लाखों की दौलत दान करता था लेकिन सुल्तान शम्सुद्दीन एक लाख की जगह पर सौ-सौ लाख की दौलत देता है. आलिमों, काजियों और परदेशियों को वह आश्रय देता है. अपनी हुकूमत की शुरुआत से ही वह आलिमों, मलिकों, सैयदों, अमीरों और सद्रों को हजार लाख से ज्यादा दौलत देता है. दुनिया में अलग-अलग जगहों से लोग दिल्ली पहुंचा करते हैं, जो कि इस्लाम की रक्षा और शरिअत का केंद्र बन गई है. ईरान के इलाकों की मुश्किलों और मुगलों के उत्पात के डर से लोग भाग-भागकर हिंदुस्तान पहुंच रहे हैं.'
(गरुड़ प्रकाशन से छप रही 'भारत में इस्लाम' श्रृंखला के पहले भाग 'हिंदुओं का हश्र' के एक अध्याय से.)
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