आज उर्दू कैलेंडर की ज़िलहिज्जा महीने की 18 तारीख है. ये महीना उर्दू कैलेंडर का आखिरी यानी की 12वां महीना है. और यह महीना मुस्लिम समुदाय के लिए बेहद खास है. इसी महीने को हज का महीना भी कहा जाता है. दुनियाभर के मुसलमान इसी महीने की 8वीं से लेकर 12वीं तारीख तक हज की रस्मों को पूरा करते हैं. हज के रस्मों को पूरा करना हर मुसलमान की बड़ी ख्वाहिशों में से एक होता है. इसी महीने की दसवीं तारीख को ईद-उल-अज़हा (बकरीद) भी मनाई जाती है. जिसका महत्व इस्लाम धर्म में बेहद खास होता है. मुस्लिम समुदाय मुख्य तौर पर दो वर्गों में बंटा हुआ है- एक वर्ग सुन्नी मुसलमान कहलाता है तो दूसरा शिया मुसलमान कहलाया जाता है. इसके अलावा मुसलमानों में जितने भी धड़े हैं वह शिया और सुन्नी समुदाय से ही अलग होकर बने हैं. जब हम शिया और सुन्नी मुसलमानों की बात करते हैं तो सबसे बड़ा सवाल यही होता है कि आखिर इन दोनों में फर्क क्या है और कैसे यह दोनों समुदाय एक दूसरे से अलग हैं.
शिया और सुन्नी दोनों ही समुदाय के लोगों का मानना है कि अल्लाह एक है. कुरआन अल्लाह की किताब है और मोहम्मद साहब अल्लाह के रसूल (दूत) हैं. यहां तक की दोनों ही समुदाय अल्लाह के भेजे गए 1 लाख 24 हज़ार नबी (ईश्वर के दूत) पर भी एकमत हैं और सबसे पवित्र स्थल के रूप में खानए काबा को अल्लाह का घर भी मानते हैं.
फिर ऐसे क्या कारण हैं जो दोनों ही समुदायों को एक दूसरे से अलग करते हैं. इस्लामिक इतिहास पर नज़र डाली जाए तो आज का दिन यानी कि उर्दू कैलेंडर के ज़िलहिज्जा महीने की 18वीं तारीख दोनों ही समुदायों को एक दूसरे से बांट देती है. चलिए अब बात करते हैं कि आखिर क्या हुआ था इस दिन और कैसे मुसलमान इस दिन...
आज उर्दू कैलेंडर की ज़िलहिज्जा महीने की 18 तारीख है. ये महीना उर्दू कैलेंडर का आखिरी यानी की 12वां महीना है. और यह महीना मुस्लिम समुदाय के लिए बेहद खास है. इसी महीने को हज का महीना भी कहा जाता है. दुनियाभर के मुसलमान इसी महीने की 8वीं से लेकर 12वीं तारीख तक हज की रस्मों को पूरा करते हैं. हज के रस्मों को पूरा करना हर मुसलमान की बड़ी ख्वाहिशों में से एक होता है. इसी महीने की दसवीं तारीख को ईद-उल-अज़हा (बकरीद) भी मनाई जाती है. जिसका महत्व इस्लाम धर्म में बेहद खास होता है. मुस्लिम समुदाय मुख्य तौर पर दो वर्गों में बंटा हुआ है- एक वर्ग सुन्नी मुसलमान कहलाता है तो दूसरा शिया मुसलमान कहलाया जाता है. इसके अलावा मुसलमानों में जितने भी धड़े हैं वह शिया और सुन्नी समुदाय से ही अलग होकर बने हैं. जब हम शिया और सुन्नी मुसलमानों की बात करते हैं तो सबसे बड़ा सवाल यही होता है कि आखिर इन दोनों में फर्क क्या है और कैसे यह दोनों समुदाय एक दूसरे से अलग हैं.
शिया और सुन्नी दोनों ही समुदाय के लोगों का मानना है कि अल्लाह एक है. कुरआन अल्लाह की किताब है और मोहम्मद साहब अल्लाह के रसूल (दूत) हैं. यहां तक की दोनों ही समुदाय अल्लाह के भेजे गए 1 लाख 24 हज़ार नबी (ईश्वर के दूत) पर भी एकमत हैं और सबसे पवित्र स्थल के रूप में खानए काबा को अल्लाह का घर भी मानते हैं.
फिर ऐसे क्या कारण हैं जो दोनों ही समुदायों को एक दूसरे से अलग करते हैं. इस्लामिक इतिहास पर नज़र डाली जाए तो आज का दिन यानी कि उर्दू कैलेंडर के ज़िलहिज्जा महीने की 18वीं तारीख दोनों ही समुदायों को एक दूसरे से बांट देती है. चलिए अब बात करते हैं कि आखिर क्या हुआ था इस दिन और कैसे मुसलमान इस दिन के बाद दो गुटों में बंट गया था-
पैगंबर मोहम्मद साहब अपनी ज़िंदगी का आखिरी हज करके मक्का शहर से अपने शहर मदीना की ओर जा रहे थे. रास्ते में ही ज़िलहिज्जा की 18वीं तारीख (19 मार्च 633 ईसवी) पड़ी. इस दिन मोहम्मद साहब मक्का शहर से 200 किलोमीटर दूर ज़ोहफा नामक स्थान पर पहुंचे थे. इसी जगह पर सारे हाजी एहराम (हज करने का वस्त्र) भी पहनते थे.
हज करने गए सारे हाजी वापिस इसी जगह तक आते थे और उसके बाद अपने-अपने देशों के लिए रास्ता चुनते थे. इसी जगह से मिस्र, ईराक, सीरीया, मदीना, ईरान और यमन के रास्ते अलग होते थे. कहा जाता है कि इसी जगह पर पैगंबर साहब को अल्लाह ने संदेश भेजा.
यह संदेश कुरआन में भी मौजूद है, कुरआन के पांचवे सूरह (सूरह मायदा) की 67 वीं आयत में उस संदेश के बारे में लिखा है कि - 'या अय्युहर रसूलु बल्लिग़ मा उनज़िला इलैका मिन रब्बिक व इन लम् तफ़अल फ़मा बल्लग़ता रिसालतहु वल्लाहु यअसिमुका मिन अन्नास'
इसका अर्थ है कि 'ऐ रसूल उस संदेश को पहुंचा दीजिये जो आपके परवरदिगार (अल्लाह) की तरफ से आप पर नाज़िल (बताया जा) हो चुका है. अगर आपने यह संदेश नहीं पहुंचाया तो गोया (मतलब) आपने रिसालत (इस्लाम का प्रचार प्रसार) का कोई काम ही नहीं अंजाम दिया.
इस आयत के नाज़िल होने के बाद पैगंबर मोहम्मद साहब ने सभी हाजियों को ज़ोहफा से 3 किलोमीटर दूर गदीर नामक मैदान पर रुकने के आदेश दे दिए. मोहम्मद साहब ने उन लोगों को भी वापिस बुलवाया जो लोग आगे जा चुके थे और उन लोगों का भी इंतज़ार किया जो लोग पीछे रह गए थे.
तपती गर्मी और चढ़ती धूप के आलम में भी लोग मोहम्मद साहब का आदेश पाकर ठहरे रहे. इस दौरान सीढ़ीनुमा ऊंचा मंच भी बनाया गया जिसे मिम्बर कहा जाता है. हदीसों के मुताबिक इसी मंच यानी कि मिम्बर से पैगंबर मोहम्मद साहब ने अपने दामाद हज़रत अली को गोद में उठाया और कहा कि 'जिस जिसका मैं मौला हूं उस उस के ये अली मौला हैं.'
यहां तक दोनों ही समुदाय एकमत हैं. दोनों ही समुदाय के लोग कहते हैं कि हां यही घटना हुई थी. लेकिन दोनों ही समुदायों के बीच मतभेदों की जड़ भी यहीं से पनपी. इस ऐलान में मौला शब्द का प्रयोग किया गया है. मौला शब्द पर ही दोनों समुदाय एक दूसरे से भिड़ पड़ते हैं. शिया मुसलमान मानते हैं कि मौला शब्द का मतलब उत्तराधिकारी का है.
जबकि सुन्नी मुसलमान ऐसा नहीं मानते हैं. गदीर की घटना के बाद मोहम्मद साहब तीन दिन तक उसी मैदान पर रुके रहे. तमाम हाजी (हज करने वाले यात्री) मोहम्मद साहब से मुलाकात रहे. शिया मुसलमान कहते हैं कि लोग मोहम्मद साहब को उनके उत्तराधिकारी का ऐलान करने के लिए मुबारकबाद दे रहे थे.
जबकि सुन्नी मुसलमानों का मानना है कि लोग मोहम्मद साहब को हज की मुबारकबाद दे रहे थे. हालांकि उस वक्त तक शिया और सुन्नी नाम के शब्दों की ही उपज नहीं हुई थी. यानी अभी तक मुसलमान धड़ों में नहीं बंटा था. पैगंबर मोहम्मद साहब अपने शहर पहुंचे और कुछ ही महीनों के बाद उनका निधन हो गया.
निधन की तारीखों पर भी मुसलमानों के दोनों तबके अलग-अलग राय रखते हैं. मोहम्मद साहब के निधन के बाद मोहम्मद साहब की गद्दी पर उनका कौन वारिस बैठेगा इसी को लेकर दोनों ही समुदाय अलग-थलग पड़ गए. शिया मुसलमानों का मानना था कि मोहम्मद साहब ने गदीर के मैदान पर अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था. इसलिए इस पद पर किसी और को नहीं बिठाया जा सकता है.
जबकि सुन्नी मुसलमानों के अनुसार मोहम्मद साहब ने किसी को भी अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया था इसलिए इस पद के लिए चुनाव किया जाना चाहिए और फिर उस वक्त के बुजुर्ग हज़रत अबु बक्र को इस पद के लिए चुन लिया गया. यहीं से मुसलमानों के दो टुकड़े हो गए. मोहम्मद साहब के इंतकाल के बाद जिन लोगों ने हज़रत अबु बक्र को अपना नेता माना वह सुन्नी समुदाय कहलाए गए.
जिन लोगों ने हज़रत अली को अपना नेता माना वह शियाने अली यानी कि अली के चाहने वाले शिया कहलाए गए. सुन्नी समुदाय ने हज़रत अबु बक्र के बाद हज़रत उमर, हज़रत उमर के बाद हज़रत उस्मान और हज़रत उस्मान के बाद हज़रत अली को अपना खलीफा चुना.
जबकि शिया मुसलमानों ने खलीफा के बजाय हज़रत अली को अपना इमाम माना और हज़रत अली के बाद ग्याहर अन्य इमामों को मोहम्मद साहब का उत्तराधिकारी माना.
खलीफा और इमाम का अर्थ लगभग एक जैसा ही है, इन दोनों का ही अर्थ उत्ताराधिकारी का है. यानी दोनों ही समुदायों के बीच असल लड़ाई मोहम्मद साहब के उत्तराधिकारी के पद को लेकर है. हालांकि दोनों ही समुदायों में काफी सारी भिन्नताएं हैं जो दोनों को ही एक दूसरे से अलग करती है. इन दोनों समुदाय के लोगों की अज़ान से लेकर नमाज़ तक के तौर तरीके अलग अलग हैं.
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