मोहर्रम (Muharram) के दौरान ताज़िया जुलूस (Tajiya) हमेशा से आकर्षण का विषय रहा है. आखिर क्यों निकाला जाता है ये ताज़ियाेें का जुलूस? ताज़िया का जुलूस होता कैसा है और यह कब से निकल रहा है? आज हम इसी को जानने की कोशिश करेंगे. ताज़िया एक अरबी शब्द है जिसका मतलब होता है इमाम हुसैन (Imam Hussain) के मज़ार की नक्ल. ताज़िया की बनावट में भी इस चीज़ का खयाल रखा जाता है कि यह दिखने में इमाम हुसैन की कब्र की याद दिलाए. ताज़िया मुसलमानों (Muslims) के साथ साथ कई धर्म के लोग अकीदत के साथ उठाते हैं. इसके इतिहास पर नज़र डाली जाए तो पैगंबर मोहम्मद (Prophet Mohammad) के जीवन पर नज़र डालनी होगी. मोहम्मद साहब ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में ही अपने नवासे इमाम हुसैन की दर्दनाक शहादत की खबर दे दी थी. मोहम्मद साहब ने अपनी धर्मपत्नी उम्मे सलमा को थोड़ी सी मिट्टी देकर कर्बला (Karbala) के बारे में पूरी जानकारी दे दी और बता दिया था कि उस वक्त आप मदीने (सउदी अरब) में होंगी जबकि हज़रत हुसैन को कर्बला यानी ईराक में शहीद किया जाएगा. उस वक्त आप तक खबर आऩे में काफी वक्त लगेगा लेकिन यह मिट्टी आप अपने पास संभाल कर रखियेगा और जिस वक्त हज़रत हुसैन को शहीद किया जाएगा यह मिट्टी खून से सन जाएगी.
मोहम्मद साहब के इस दुनिया से जाने के कई साल बाद ऐसा मौका आया जब इमाम हुसैन ने मजबूर होकर अपना वतन छोड़ दिया और मक्का होते हुए कर्बला पहुंच गए, जहां इमाम हुसैन को उनके 71 साथियों के साथ बेरहमी से शहीद कर दिया गया. इमाम हुसैन के शहीद होते ही वहां से कोसों दूर रखी हुई वह मिट्टी खून में तर हो गई जिससे मदीने में खबर हो गई कि हज़रत हुसैन को शहीद कर दिया गया है. यह खून से तर मिट्टी देख कर ही मोहम्मद साहब की धर्मपत्नी उम्मे सलमां की चीखें निकल गई और वहीं मातम करना शुरू कर दिया.
मोहर्रम (Muharram) के दौरान ताज़िया जुलूस (Tajiya) हमेशा से आकर्षण का विषय रहा है. आखिर क्यों निकाला जाता है ये ताज़ियाेें का जुलूस? ताज़िया का जुलूस होता कैसा है और यह कब से निकल रहा है? आज हम इसी को जानने की कोशिश करेंगे. ताज़िया एक अरबी शब्द है जिसका मतलब होता है इमाम हुसैन (Imam Hussain) के मज़ार की नक्ल. ताज़िया की बनावट में भी इस चीज़ का खयाल रखा जाता है कि यह दिखने में इमाम हुसैन की कब्र की याद दिलाए. ताज़िया मुसलमानों (Muslims) के साथ साथ कई धर्म के लोग अकीदत के साथ उठाते हैं. इसके इतिहास पर नज़र डाली जाए तो पैगंबर मोहम्मद (Prophet Mohammad) के जीवन पर नज़र डालनी होगी. मोहम्मद साहब ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में ही अपने नवासे इमाम हुसैन की दर्दनाक शहादत की खबर दे दी थी. मोहम्मद साहब ने अपनी धर्मपत्नी उम्मे सलमा को थोड़ी सी मिट्टी देकर कर्बला (Karbala) के बारे में पूरी जानकारी दे दी और बता दिया था कि उस वक्त आप मदीने (सउदी अरब) में होंगी जबकि हज़रत हुसैन को कर्बला यानी ईराक में शहीद किया जाएगा. उस वक्त आप तक खबर आऩे में काफी वक्त लगेगा लेकिन यह मिट्टी आप अपने पास संभाल कर रखियेगा और जिस वक्त हज़रत हुसैन को शहीद किया जाएगा यह मिट्टी खून से सन जाएगी.
मोहम्मद साहब के इस दुनिया से जाने के कई साल बाद ऐसा मौका आया जब इमाम हुसैन ने मजबूर होकर अपना वतन छोड़ दिया और मक्का होते हुए कर्बला पहुंच गए, जहां इमाम हुसैन को उनके 71 साथियों के साथ बेरहमी से शहीद कर दिया गया. इमाम हुसैन के शहीद होते ही वहां से कोसों दूर रखी हुई वह मिट्टी खून में तर हो गई जिससे मदीने में खबर हो गई कि हज़रत हुसैन को शहीद कर दिया गया है. यह खून से तर मिट्टी देख कर ही मोहम्मद साहब की धर्मपत्नी उम्मे सलमां की चीखें निकल गई और वहीं मातम करना शुरू कर दिया.
अरब प्रांत का शोक या गम मनाने का यही तरीका था कि वह अपने हाथ से सीना या सिर पीटते थे. इसी परंपरा को मानते हुए शिया समुदाय आज भी इसी तरह से इमाम हुसैन का शोक मनाता है. जब वह मिट्टी खून से तर हो गई और इमाम हुसैन की शहादत की खबर मिल गई तो उस मिट्टी को जनाब उम्मे सलमां ने एक जगह से दूसरे जगह ले जाकर रख दिया या दफ्न कर दिया. कहने को इसे ही पहली ताज़िया कहा जा सकता है लेकिन इमाम हुसैन की याद में उनका घोड़ा (ज़ुल्जनाह) या उनका ताबूत भी उठाया जाता है और इसकी शुरूआत इमाम हुसैन की शहादत के बाद ही हो गई थी.
भारत में ताज़िया उठाए जाने की कोई परंपरा नहीं थी लेकिन तुर्की का सरदार तैमूर लंग भारत पर कब्ज़ा करने की नीयत से सन् 1398 में भारत आया हुआ था. इससे पहले वह मोहर्रम के दिनों में हर साल कर्बला (ईराक) जाया करता था और वहां से आने के बाद जितने भी युद्ध लड़ता. भारत में आने के बाद तैमूर एक साल बहुत बीमार पड़ गया और कर्बला नहीं जा सका तो उसके दरबारियों ने फैसला लिया कि क्यों न यहीं कर्बला की तस्वीर बना दी जाए.
दरबारियों ने फैसला लिया और कारीगरों को बुलाकर इमाम हुसैन की कब्र की तरह ताज़िया बना दी. उसके बाद वह हर साल भारत में ही ताज़िया बनवाता और उठाता था. इस ताज़िये में लोग आकर मन्नत मुराद मांगते थे और जिसकी भी मन्नत पूरी हो जाती थी वह अगले साल खुद भी ताज़िया उठाने लग जाता था. ताज़िया उठाने के लिए इस्लाम धर्म का होना ज़रूरी नहीं है बल्कि जो भी इमाम हुसैन की शहादत के बारे में जान लेता है वह ताज़िया उठाने लग जाता है.
भारत और पाकिस्तान में आज भी कई ऐसे राजा और महाराजा के परिवार हैं जहां ताज़िया बड़े ही अकीदत के साथ उठाया जाता है. इस क्रम में ग्वालियर का सिंधिया राजघराना और हैदराबाद का राजघराना भी शामिल हैं. भारत में ताज़िये की शुरूआत तैमूर ने की जो खुद मन्नत पूरी होने के बाद ताज़िया उठाया करता था. कहा जाता है कि जैसे जैसे मन्नत, मुराद लोगों की पूरी होती गई वैसे ही ताज़िया हर जगह बनाई और सजाई जाने लगी. ताज़िया की यह परंपरा मुगलों को भी बहुत पंसद आई और उन्होंने एक से बढ़कर एक ताज़िया बनाई. ताज़िया की परंपरा भारत से होते हुए पाकिस्तान, बाग्लादेश और म्ंयामार तक पहुंची और अब लगभग दुनिया के हर देश में ताज़िया को बनाकर रखा जाता है और मोहर्रम की दसवीं तारीख को हर जगह ताज़िया का जुलूस निकाला जाता है.
लखनऊ विश्वविधालय के हे़ड आफ द डिपार्टमेंट (उर्दू विभाग) अब्बास रज़ा नय्यर का मानना है कि ताजिया के जुलूस में हर धर्म के लोग विश्वास और आस्था रखते हैं. ताज़िया एक तरीके से जनाज़े की नक्ल है. लोगों की आस्था है कि हम कर्बला में होते तो सच्चाई के मार्ग पर रहकर इमाम हुसैन की ओर से अपनी कुर्बानी पेश करते. चूंकि हज़रत हुसैन को कर्बला में बेदर्दी के साथ मारा गया था और उनका जनाज़ा भी नहीं उठ सका था इसलिए इमाम हुसैन की याद में आज तक इमाम हुसैन का ताबूत भी उठाया जाता है और ताज़िया भी उठाया जाता है.
ताज़िया को कर्बला के 72 शहीदों की याद में उठाया जाता है. शिया समुदाय का कोई भी इंसान जब तक ताज़िया नहीं उठा लेता वह भूखा ही रहता है. किसी के घर में भी चूल्हा नहीं जलाया जाता है. वहीं सुन्नी समुदाय के लोग इस दिन रोज़ा रखते हैं. ताज़िया का जुलूस भी अलग अलग तरीके से निकाला जाता है जिसमें शिया समुदाय इमाम हुसैन की शहादत का गम मनाते हैं और ताज़िया को इमाम हुसैन के जनाज़े का प्रतीक मानकर बेहद सादगी के साथ निकालते हैं जबकि सुन्नी समुदाय इस दिन को इस्लाम की जीत का जश्न मनाता है वह इमाम हुसैन की शहादत को सलामी पेश करते हैं और इस्लाम धर्म की जीत की याद में जुलूस निकालते हैं.
ताजिये के विरोधी: शिया और सुुुुुन्नी समुदाय से अलग हटकर मुसलमानोंं में वहाबी विचारधारा के लोग भी हैं जो ताज़िया के प्रति अकीदत नहीं रखते हैं. इस विचारधारा के लोगों का मानना है कि अल्लाह ने हम सभी को सिर्फ अपनी इबादत के लिए पैदा किया है हज़रत मोहम्मद साहब, हज़रत हुसैन साहब सब हम जैसे इंसान थे और वो भी अल्लाह की इबादत किया करते थे. इनके अनुसार ताज़िया एक इमारत का प्रतीक है उसका इस्लाम धर्म से कोई वास्ता नहीं है. इनकी मान्यताओं के अनुसार ये मन्नत मुराद और मज़ारों पर भी कोई आस्था नहीं रखते हैं. ये सिर्फ अल्लाह की इबादत करते हैं और इस्लाम के किसी भी दूत पर इनकी कोई आस्था नहीं होती है. भारत में देेवबंदी नजरिए वाले मुुुसलमान भी ताजिये के प्रति आस्था नहींं रखते हैं. दारुल उलूम देवबंद ने तो इस पर बाकायदा एक फतवा दिया हुआ है, जिसमें उसने ताजिया बनाने को इस्लाम विरुद्ध बताया है. ताजिए के सामने सजदा करने को गुनाह और ड्रम बजाकर जुलूस निकालने को हराम कहा है. इतना ही मुसलमानों से ऐसी किसी भी परंपरा से बचने को कहा गया है. भारत और पाकिस्तान में भी इस विचारधारा के लोगों की अच्छी खासी जनसंख्या है.
खैर, इन तमाम वैचारिक टकराव के बावजूद इमाम हुसैन के बताए रास्ते सभी संप्रदायों में उनके प्रति श्रद्धा और विश्वास जगाते हैं. ताजियों का इंतजाम भले तैमूर के दरबारियों ने अपने सरदार को खुश करने के लिए किया था, लेकिन उसके पीछे जज्बा तो इमाम हुसैन के प्रति श्रद्धा का ही था. इमाम हुसैन को हमेशा इंसाफ, बराबरी और भाईचारा के लिए याद किया जाता रहेगा. इंसानों में सदाचार जगाने वाले ये उसूल, उम्मीद करें कि मोहर्रम के ताजिए देखकर और मजबूत हों.
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