फेसबुक पर एक मित्र ने मेरे भिंडी प्रेम पर भिंडी का हाल पूछा तो मैंने कहा कि आजकल ओल का स्वाद ले रहा हूं. भिंडी इस सीजन में जाती हुई सब्जी है. मिथिला या आसपास के इलाकों या संभवत: बंगाल में भी जिसे 'ओल' कहते हैं उसे बनारस की तरफ 'सूरन' कहा जाता है. और शायद दूसरे इलाकों में 'जिमीकंद'. तो ओल की जो महिमा है, वो अपरंपार है- पापा हर दूसरे रोज कहते हैं कि बाजार से ओल ले आना. ओल की सब्जी मुझे तब से याद है जब एक जमाने में दादी के हाथ में रसोई का निर्देशन था.
ओल की सब्जी में जंबीरी नींबू डाल दीजिए, दुनिया की सब सब्जी फीकी है. ओल का सन्ना (चोखा) और ओल का रसदार दोनो परफेक्ट. मज़े की बात तो ये है कि इसे आप चाहें तो मछली के मसाले के साथ बनाएं या मटन के मसाले के साथ- ओल आपको दगा नहीं देगा. जिसे मैथिली में 'तड़ुआ' या 'बड़'(पकौड़ा टाइप) बोला जाता है, चाहें तो आप वो भी बना लें. ओल को पूस-माघ में रोपा जाता है और भादो और आसिन तक आते-आते मिलने लगता है. हमारे यहां एक पुरानी कहावत है-
कियो-कियो खाइये भादवक ओल....की खाय राजा, की खाय चोर!
(यानी भादो का ओल किसी-किसी को नसीब है, या तो राजा को या चोर को!)
घर के आसपास की जमीन पर हरा-हरा ओल का पौधा और उसका स्वस्थ डंठल. पौधे पर पानी या ओस की बूंदे पड़ती हैं तो देखते बनता है. यह दरअसल पौधे की जड़ होती है. देसी या घरैइया ओल का स्वाद ही अपूर्व है. दिल्ली में 300 रुपये किलो मिले तो बेमोल खरीद लीजिए! आजकल जो ओल मिलता है, उसे हमारे यहां निकासी या बजरुआ ओल कहते हैं. इसका स्वाद थोड़ा-थोड़ा बी ग्रेड की सिनेमा की तरह है.
मुझे याद है कि चौठचन के त्योहार के समय(भादो महीना में) रात को आंगन में हमलोग ओल जरूर खाते थे. ओल की चटनी बनाने का तरीका बिल्कुल सिंपल है. ओल को कूकर में...
फेसबुक पर एक मित्र ने मेरे भिंडी प्रेम पर भिंडी का हाल पूछा तो मैंने कहा कि आजकल ओल का स्वाद ले रहा हूं. भिंडी इस सीजन में जाती हुई सब्जी है. मिथिला या आसपास के इलाकों या संभवत: बंगाल में भी जिसे 'ओल' कहते हैं उसे बनारस की तरफ 'सूरन' कहा जाता है. और शायद दूसरे इलाकों में 'जिमीकंद'. तो ओल की जो महिमा है, वो अपरंपार है- पापा हर दूसरे रोज कहते हैं कि बाजार से ओल ले आना. ओल की सब्जी मुझे तब से याद है जब एक जमाने में दादी के हाथ में रसोई का निर्देशन था.
ओल की सब्जी में जंबीरी नींबू डाल दीजिए, दुनिया की सब सब्जी फीकी है. ओल का सन्ना (चोखा) और ओल का रसदार दोनो परफेक्ट. मज़े की बात तो ये है कि इसे आप चाहें तो मछली के मसाले के साथ बनाएं या मटन के मसाले के साथ- ओल आपको दगा नहीं देगा. जिसे मैथिली में 'तड़ुआ' या 'बड़'(पकौड़ा टाइप) बोला जाता है, चाहें तो आप वो भी बना लें. ओल को पूस-माघ में रोपा जाता है और भादो और आसिन तक आते-आते मिलने लगता है. हमारे यहां एक पुरानी कहावत है-
कियो-कियो खाइये भादवक ओल....की खाय राजा, की खाय चोर!
(यानी भादो का ओल किसी-किसी को नसीब है, या तो राजा को या चोर को!)
घर के आसपास की जमीन पर हरा-हरा ओल का पौधा और उसका स्वस्थ डंठल. पौधे पर पानी या ओस की बूंदे पड़ती हैं तो देखते बनता है. यह दरअसल पौधे की जड़ होती है. देसी या घरैइया ओल का स्वाद ही अपूर्व है. दिल्ली में 300 रुपये किलो मिले तो बेमोल खरीद लीजिए! आजकल जो ओल मिलता है, उसे हमारे यहां निकासी या बजरुआ ओल कहते हैं. इसका स्वाद थोड़ा-थोड़ा बी ग्रेड की सिनेमा की तरह है.
मुझे याद है कि चौठचन के त्योहार के समय(भादो महीना में) रात को आंगन में हमलोग ओल जरूर खाते थे. ओल की चटनी बनाने का तरीका बिल्कुल सिंपल है. ओल को कूकर में उबाल लीजिए, फिर उसमें नमक, कच्चा तेल, हरी मिर्च, नींबू का रस मिलाइये और राई को पीस कर ऊपर छिड़क दीजिए. कुछ लोग अचार का तेल भी डालते हैं. ओल की रसदार सब्जी बनाने के लिए पहले तो उसे कूकर में उबाल लीजिए. इसके बाद उबले ओल को कड़ाही में घी या तेल में फ्राई कर लीजिए. हींग-मेथी का फोड़न (मछली स्टाइल) और जीड़-हींग का फोड़न (मटन स्टाइल) डालिए. मछली स्टाइल में धनिया, जीरा, सरसो, हल्दी और मिर्च और खटाई का प्रयोग करें. मटन स्टाइल में गरम मसाला, घी, जीरा-धनी को पीसकर डालें.
फिल्मों में खासी रुचि रखनेवाले एक मित्र ने ओल की महिमा यूं बखानी है कि फिल्म बाबर्ची में रघु इसका कबाब बना देता है और परिवार के लोग पूछते हैं कि मटन कब आया! ओल का जिक्र अंग्रेजी राज के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ व्यंग्य गढ़ने में भी बहुत काम आया. जैसे अंग्रेजों ने भारतीयों के खिलाफ तरह-तरह की कहांनियां गढ़ रखी थी, हमारे लोगों ने भी वैसी कहानियां गढ़ी औ गाढ़े वक्त पर काम आया ओल. कहानी ये है कि एक अंग्रेज, किसी हाट से गुजर रहा था तो उसने ओल खरीद लिया. उसे लगा कि कोई फल है. वह उसे अमरूद या सेब की तरह खाने लगा.
लेकिन चूंकि कच्चे ओल का स्वाद (देसी का तो और ज्यादा) 'कब-कब' होता है (कब-कब का हिंदी अनुवाद नहीं हो सकता है, एक बार खुद अनुभव करिए!)..तो वह कच्चा ओल खाकर परेशान हो गया! फिर लोगों ने उसे पानी पिलाया और ये कहानी चल पड़ी की अंग्रेज दरअसल होते वेबकूफ हैं! जब-जब लोगों को अंग्रेजों को वेबकूफ साबित करना होता, मेरे इलाके में ओल की कहानी आगे कर दी जाती.
मैथिली के बड़े साहित्यकार और हास्य सम्राट हरिमोहन झा ने ओल के 'कब-कब' स्वाद का अपनी एक कविता में जिक्र किया है, सुधीजन उससे अंदाज लगाएं. हरिमोहन बाबू ने लिखा-
'टन-टन-टन-टन बाजथि कनियां सेदल ढोल जकां,
बोली हुनकर लागि रहल अछि कब-कब ओल जकां'
(अर्थात-नई नवेली-बहू गरम ढोल से निकली आवाज की तरह टन-टन बोल रही है और लोगों को उसकी बोली कब-कब ओल की तरह लग रही है!)
एक मित्र ने कहा कि अवध की तरफ 'कब-कब' को 'कनकनाना' बोलते हैं! दरअसल, ओल के कब-कब स्वाद का अंग्रेजी अनुवाद हमारे इलाके में क्विज होता था. एक मित्र की राय है कि इसे उबालने में अगर इमली का प्रयोग किया जाए या उबाल कर दो-तीन घंटा धूप में रखा जाए तो ये 'कब-कब' नहीं लगेगा! देसी 'ओल महाराज' पहले इतने बड़े नहीं होते थे, लेकिन भला हो कृषि विश्वविद्यालयों का जिसने चट्टान की तरह ओल पैदा कर दिए. पापा कहते हैं कि गुमला(झारखंड) के बदला गांव में एक किसान ने 29 किलो का ओल पैदा कर लिया!
पता नहीं ओल को चीन या म्यांमार में क्या कहा जाता है. म्यांमार में होता तो शरत बाबू जरूर जिक्र करते. नार्वे में रहनेवाले डॉक्टर प्रवीण झा कहते हैं कि उन्होंने वहां भी इसका जुगाड़ लगा लिया है और इसे एमॉर्फोफैलस कहते हैं. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ओल न होता तो दुनिया जरूर थोड़ी कम खूबसूरत होती.
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