एक जमाने में गांवों में दशहरे के दस दिन पहले से रामलीला का मंचन होता था और आखिरी दिन पाप पर पुण्य की जीत यानी दशहरा को रावण वध. रावण वध की परम्परा तो आज भी चल रही है भले ही इसके स्वरूप में काफी बदलाव आ चुका है. लेकिन रामलीला मंडलियां आज धीरे-धीरे कम होती जा रही है. अब तो गांवों में भी सूचना-प्रसार क्रांति ने इस कदर लोगों को जकड़ रखा है कि मनोरंजन और जीवन का पर्याय समझाने वाली हमारी इस विरासत को बचाता कोई नजर नहीं आता.
रामलीला उत्तरी भारत में परम्परागत रूप से विजयादशमी के अवसर पर खेला जाने वाला राम के चरित्र पर आधारित नाटक है. पहली रामलीला होने का उल्लेख वाराणसी के रामनगर में सन 1830 में मिलता है. इसके प्रवर्तक तत्कालीन काशी नरेश महाराजा उदितनारायण सिंह थे. यूनेस्को के मुताबिक बनारस के रामनगर की रामलीला अभी तक चलने वाला संसार का एक मात्र लोकनाट्य है. यूनेस्को ने भारत की रामलीलाओं को विश्व की सबसे बड़ी बहुजातीय, बहुधर्मी और बहुनस्लीय सांस्कृतिक विरासत की ईवेंट माना है.
आम जन तक रामकथा को पहुंचाने की परम्परागत रंगमंचीय कला रामलीला राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में भी कम होती जा रही हैं. इस क्षेत्र के देहाती इलाकों में रहने वाले रामलीला के दर्शक टेलीविजन वीडियो व सिनेमा जैसे माध्यमों को महत्व देने लगे हैं. धीरे-धीरे दम तोड़ रही रामलीला के कारण रामलीला मंडलियों में कार्य करने वाले कलाकार खिन्न होकर रामलीला के स्थान पर गांवो में भजन गायकी, खेत मजदूरी व विभिन्न संस्थानो में चौकीदारी, बस कन्डक्टरी जैसे कार्य करने लगे हैं.
शेखावाटी क्षेत्र के सीकर व झुंझुनू जिलों के गांवों में रामलीला मंडलियों द्वारा रामकथा की रामायण की चौपाईयों के साथ नाट्य प्रस्तुतियां की जाती हैं. रामलीला करने का सिलसिला क्षेत्र...
एक जमाने में गांवों में दशहरे के दस दिन पहले से रामलीला का मंचन होता था और आखिरी दिन पाप पर पुण्य की जीत यानी दशहरा को रावण वध. रावण वध की परम्परा तो आज भी चल रही है भले ही इसके स्वरूप में काफी बदलाव आ चुका है. लेकिन रामलीला मंडलियां आज धीरे-धीरे कम होती जा रही है. अब तो गांवों में भी सूचना-प्रसार क्रांति ने इस कदर लोगों को जकड़ रखा है कि मनोरंजन और जीवन का पर्याय समझाने वाली हमारी इस विरासत को बचाता कोई नजर नहीं आता.
रामलीला उत्तरी भारत में परम्परागत रूप से विजयादशमी के अवसर पर खेला जाने वाला राम के चरित्र पर आधारित नाटक है. पहली रामलीला होने का उल्लेख वाराणसी के रामनगर में सन 1830 में मिलता है. इसके प्रवर्तक तत्कालीन काशी नरेश महाराजा उदितनारायण सिंह थे. यूनेस्को के मुताबिक बनारस के रामनगर की रामलीला अभी तक चलने वाला संसार का एक मात्र लोकनाट्य है. यूनेस्को ने भारत की रामलीलाओं को विश्व की सबसे बड़ी बहुजातीय, बहुधर्मी और बहुनस्लीय सांस्कृतिक विरासत की ईवेंट माना है.
आम जन तक रामकथा को पहुंचाने की परम्परागत रंगमंचीय कला रामलीला राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में भी कम होती जा रही हैं. इस क्षेत्र के देहाती इलाकों में रहने वाले रामलीला के दर्शक टेलीविजन वीडियो व सिनेमा जैसे माध्यमों को महत्व देने लगे हैं. धीरे-धीरे दम तोड़ रही रामलीला के कारण रामलीला मंडलियों में कार्य करने वाले कलाकार खिन्न होकर रामलीला के स्थान पर गांवो में भजन गायकी, खेत मजदूरी व विभिन्न संस्थानो में चौकीदारी, बस कन्डक्टरी जैसे कार्य करने लगे हैं.
शेखावाटी क्षेत्र के सीकर व झुंझुनू जिलों के गांवों में रामलीला मंडलियों द्वारा रामकथा की रामायण की चौपाईयों के साथ नाट्य प्रस्तुतियां की जाती हैं. रामलीला करने का सिलसिला क्षेत्र के गांवों में कस्बों व शहरों की तरह केवल दशहरा व दीपावली के दिनो में ही नही बल्कि साल भर चलता रहता है. एक दशक पूर्व तक शेखावाटी क्षेत्र में करीब 40 रामलीला मंडलियां होती थीं. जिनमें हर मंडली में 15 से 20 कलाकार होते थे, मगर अब मात्र 8-10 मंडलियां ही रह गई हैं. जो धीरे-धीरे अपनी पहचान खोती जा रही हैं.
इस क्षेत्र की रामलीला मंडलियों के कार्यक्रम बरसात के मौसम को छोडक़र वर्ष भर चलते रहते हैं. ये मंडलियां एक गांव से दूसरे गांव अपने पूरे साजो सामान के साथ जाती रहती हैं. गांव के किसी सार्वजनिक चौक में दो-चार काठ से बने तख्ते रखकर रंगमंच तैयार करते हैं. रंगमंच के पीछे विभिन्न दृश्यों के पर्दे लगाये जाते हैं जो घटनाक्रम के अनुसार बदलते रहते हैं. रामलीला में इन पर्दों का बहुत महत्व रहता है. रामलीला मंचन के दौरान ही दर्शकों से आरती की थाली में दक्षिणा ली जाती है. रामलीला मंडलियां एक गांव में दस से पन्द्रह दिनों तक ठहर कर अपनी कला का प्रदर्शन करती हैं. लोगों से मिलने वाला चढ़ावा ही इनकी आय का मुख्य साधन होता है.
एक दशक पहले तक रामलीला मंडलियों की प्रस्तुति का जादू लोगों के सिर चढकर बोला करता था. गांवो में लोग रामलीला मंडली का बेताबी से इंतजार किया करते थे. रामलीला स्थल पर लोग सांयकाल ही अपने बैठने के लिये पीढ़ा, मुढ़ा, दरी, बोरी आदि रखकर अपना स्थान सुरक्षित कर देते थे. गांव के छोटे बच्चे तो दिनभर रामलीला के कलाकारों के इर्द गिर्द मंडराते रहते थे. रामलीला मंडली का नकलीड़ा (जोकर) तो दर्शकों को हंसा-हंसा कर लोटपोट कर देता था. पहले गांवो में जब तक रामलीला का मंचन होता उस वक्त पूरे गांव का वातावरण राममय हो जाता था. लेकिन पिछले कुछ सालों के दौरान क्षेत्र के गांवों में रामलीला के प्रति उत्साह में भारी कमी आई है.
दूरदर्शन पर रामायण के प्रसारण को प्राय: सभी लोगों ने देखा है. इसलिए दूरदर्शन की चमक दमक के समक्ष गांवो में प्रस्तुत की जाने वाली रामलीला लोगों को अब अर्थहीन ड्रामा लगने लगी हैं. आज मनोरंजन के तरीके ही बदल गए हैं. अपने पात्रों को सजीव दर्शानें के लिये पहले महीनों रिहर्सल किया करते थे आज इतना समय किसके पास है. वर्षों रामलीला में राम का अभिनय करने वाले बगड़ कस्बे के डा.राजेश शर्मा का कहना है कि दूरदर्शन पर रामलीला के प्रदर्शन के बाद से तो इन रामलीलाओं का क्रेज ही समाप्त हो गया है.
झुंझुनू जिले के मानोता गांव के 57 वर्षीय भागीरथ रामलीला वाले ग्रामीण क्षेत्र में रामलीला के पितामह माने जाते हैं. विगत 40 वर्षो से अनवरत रामलीला कर रहे हैं. उनके दो भाई मदन व रामनिवास की रामलीला मंडलियां भी क्षेत्र में सक्रियता से कार्यरत हैं. इन तीनों भाइयों के अभिनय और काबलीयत को लोग दाद देते नहीं थकते थे. मगर भागीरथ अब रामलीला से खिन्न हैं. क्योंकि लोगों की आस्था रामलीला के प्रति तेजी से खत्म होती जा रही है. अब एक-एक पैसे के लिए लोगों को कहना पड़ता है, पहले ऐसा नहीं था. पहले लोगों द्वारा रामलीला मंडलियों को अपने घरों पर बुलाकर बड़े प्रेम के साथ भोजन करवाया जाता था. वे नहीं चाहते कि उनकी अगली पीढ़ी रामलीला करें. उनका कहना है कि मुझे तो अब इस धंधे से घृणा होने लगी है. रामलीला के बहाने कुछ राम भक्ति हो जाती है. इस कारण यह कार्य कर रहा हूं.
गुढागौडज़ी कस्बे के रामावतार शर्मा द्वारा रामलीला में हनुमानजी के पार्ट की सजीव प्रस्तुती की जाती थी. संजीवनी बूटी लाते वक्त जब वे सौ फीट की ऊंचाई से सीने के बल रस्सी पर चल कर नीचे आते वक्त दर्शक रोमांचित हो उठते थे. मगर रामलीला में काम करने वाले वरिष्ठ कलाकार धीरे-धीरे उपेक्षित हो अन्य लाईन में जा रहे हैं. रामलीला मंडलियों से जुड़े कलाकार इसी रवैये से व्यथित हैं. उनका कहना है कि चकाचौंध के दौर में रंगमंच पिट रहा है. उनके पास इतने पैसे भी नहीं हैं कि वे आधुनिक थियेटर के गुणों वाले मंच गांवों में तैयार करें और वैसी आय की उम्मीद भी गांवों में नही है. सरकारी स्तर पर भी इन रामलीला मंडलियों को कोई सहायता या संरक्षण नहीं मिल पाता है. जिससे धीरे-धीरे इनका वजूद मिटता जा रहा है.
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