हम में से ज्यादातर लोग ये मानते हैं कि कांवड़ यात्रा पर जाने वाले अधिकतर लोग बेकार, आवारा, घर से फालतू होते हैं. उन्हें सिर्फ हुड़दंग और हंगामे करने के लिए कांवड यात्रा में जाना होता है. कुछ लोग ये भी मानते हैं कि अपराधी और लंठ टाइप लोग भी बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं. हो सकता है कि ये सारी बात सही हों. लेकिन मुझे नहीं लगता कि एक फीसदी से ज्यादा लोग ऐसे होते होंगे.
उत्सवों के मौकों पर नौजवानों का इकट्ठा हो जाना और हुड़दंग मचाना भारत के नौजवानों का एक आम गुण, या कहें दुर्गुण है. गुरुपर्व हो या शबे बारात या दशहरे का दिन या कुछ और, जब नौजवान इकट्ठा होते हैं तो हुड़दंग भी करते हैं और हंगामा भी. शायद समूह में होने पर आनंद की अनुभूति का ये एक तरीका है. लेकिन कांवड़ यात्रा को कुछ नौजवानों के हुड़दंग के तौर पर देखना ठीक नहीं है.
सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करके कंधे पर बोझ लादे-लादे नंगे पांव कष्ट सहते, सीधे सादे भोले-भाले धर्म भीरू लोग असल कांवडिए होते हैं, और वो सारी तकलीफें उठाकर अपना धार्मिक, सांस्कृतिक या कहें परंपरागत लक्ष्य पूरा करते हैं.
हमारे जैसे शहरी लोगों का नाक-भौं सिकोड़ना कुछ और नहीं बल्कि एक तरह का वर्ग विभेद है. हम कार चलाने वाले उन्हें आपने रास्ते में अड़चन मानते हैं, हमें उनका हुड़दंग आनंद से ज्यादा तनाव देता है क्योंकि हम उस आनंद का हिस्सा नहीं होते. शायद वो गरीब, ग्रामीण और निम्न मध्यवर्ग से आते हैं, हम उनके सांस्कृतिक संदर्भों से...
हम में से ज्यादातर लोग ये मानते हैं कि कांवड़ यात्रा पर जाने वाले अधिकतर लोग बेकार, आवारा, घर से फालतू होते हैं. उन्हें सिर्फ हुड़दंग और हंगामे करने के लिए कांवड यात्रा में जाना होता है. कुछ लोग ये भी मानते हैं कि अपराधी और लंठ टाइप लोग भी बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं. हो सकता है कि ये सारी बात सही हों. लेकिन मुझे नहीं लगता कि एक फीसदी से ज्यादा लोग ऐसे होते होंगे.
उत्सवों के मौकों पर नौजवानों का इकट्ठा हो जाना और हुड़दंग मचाना भारत के नौजवानों का एक आम गुण, या कहें दुर्गुण है. गुरुपर्व हो या शबे बारात या दशहरे का दिन या कुछ और, जब नौजवान इकट्ठा होते हैं तो हुड़दंग भी करते हैं और हंगामा भी. शायद समूह में होने पर आनंद की अनुभूति का ये एक तरीका है. लेकिन कांवड़ यात्रा को कुछ नौजवानों के हुड़दंग के तौर पर देखना ठीक नहीं है.
सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करके कंधे पर बोझ लादे-लादे नंगे पांव कष्ट सहते, सीधे सादे भोले-भाले धर्म भीरू लोग असल कांवडिए होते हैं, और वो सारी तकलीफें उठाकर अपना धार्मिक, सांस्कृतिक या कहें परंपरागत लक्ष्य पूरा करते हैं.
हमारे जैसे शहरी लोगों का नाक-भौं सिकोड़ना कुछ और नहीं बल्कि एक तरह का वर्ग विभेद है. हम कार चलाने वाले उन्हें आपने रास्ते में अड़चन मानते हैं, हमें उनका हुड़दंग आनंद से ज्यादा तनाव देता है क्योंकि हम उस आनंद का हिस्सा नहीं होते. शायद वो गरीब, ग्रामीण और निम्न मध्यवर्ग से आते हैं, हम उनके सांस्कृतिक संदर्भों से दूर होते हैं इसलिए उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पाते.
ये गरीबों के प्रति अजीब सी वितृष्णा है. अक्सर लोग झुग्गी में रहने वालों, बिहार से आने वाले मजदूरों और घरेलू नौकरों को बेहद नफरत की नजर से देखते हैं. हम उन्हें अपने बीच का व्यक्ति नहीं मानते, हम उनके घर में एक टीवी भी बर्दाश्त नहीं कर पाते. सड़क पर दुकान लगाकर पेट पालने वाले लोगों के प्रति हमारा नजरिया भी हिकारत भरा होता है.
दरअसल ये समाज में पल रहा वर्ग भेद है. कांवड़ लाने वाले भोले-भाले लोग उसी का शिकार होते हैं. मैं कांवड़ियों के लिए किए गए रोड डायवर्जन को भी गलत मानता रहा हूं, लेकिन अब सोचता हूं कि अगर एक व्यक्ति भारी वजन लेकर पैदल 200 से 300 किलोमीटर का सफर करके आ रहा है तो इसमें कोई बुराई नहीं कि उसे रास्ता दिया जाए. हो सकता है कि किसी के दिमाग में उसे सुविधा देना धार्मिक तुष्टिकर लगे, लेकिन ये मानवीय भी है.
इसलिए अगली बार किसी से घृणा करें तो एक बार उसने नजरिए से ज़रूर देखें. यहां बात कांवड़ यात्रा के औचित्य पर नहीं है, ये उस व्यकित का व्यक्तिगत फैसला है जो कांवड़ लेकर आ रहा है. हमें उसका सम्मान करना चाहिए. वो भी हमारी तरह का एक व्यक्ति है. वो भी अपनी असुरक्षा और जीवन के कष्टों को दूर करने का एक उपाय इस कठोर तप में ढूंढता है. समझदार लोग जानते हैं कि इससे उसके कष्ट दूर नहीं होंगे लेकिन वो यहां दोषी नहीं है, वो खुद शिकार है. सहानुभूति और सम्मान उसका हक है जो उसे मिलना चाहिए.
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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.