भारत के हर राज्य में अनगिनत त्योहार मनाए जाते हैं और हर त्योहार का अपना महत्व है. दीपावाली के छठे दिन यानी कार्तिक शुक्ल की षष्ठी तिथि को छठ पर्व मनाया जाता है. छठ को लेकर ये धारणा रही है कि ये बिहारियों का त्योहार है. लेकिन छठ बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, और नेपाल में भी मनाया जाता है. ये त्योहार इतना महत्वपूर्ण और अनोखा है कि इसकी आस्था ने इसे सिर्फ उत्तर प्रदेश और बिहार तक सीमित न रखकर ग्लोबल बना दिया है. छठ अब सिर्फ एक क्षेत्र विशेष का पर्व नहीं बल्कि देश और विदेशों में भी मनाया जाने लगा है.
दीपावाली के छठे दिन यानी कार्तिक शुक्ल की षष्ठी तिथि को छठ पर्व मनाया जाता है.
लेकिन जो लोग बिहार से नहीं है, उन्हें न तो इस त्योहार के बारे में पता है और न ही इसकी विशेषताओं के बारे में. भारत के ज्यादातर त्योहारों पर नजर घुमाएं तो छठ एक ऐसा त्योहार है जो बेहद सादगी से मनाया जाने वाला त्योहार है. जिस पर न तो बाजार हावी होता है, और न ही लोगों की जेबों पर इसका असर दिखता है. कह सकते हैं कि इस त्योहार में जितना जरूरी पानी है, उतना ही जमीनी ये त्योहार खुद है.
जानते हैं उन विशेषताओं के बारे में जो इस त्योहार को सबसे अलग और खास बनाती हैं-
इस त्योहार पर छठी मइया की पूजा की जाती है, जिन्हें भगवान सूर्य की बहन माना जाता है. वैसे तो ये त्योहार षष्ठी को मनाया जाता है लेकिन त्योहार की शुरुआत चतुर्थी को नहाए-खाय से होती है. इसके अगले दिन पंचमी को खरना या लोहंडा मनाया जाता है और षष्ठी की शाम और सप्तमी की सुबह को सूर्य देव को अर्घ्य देकर छठ पूजा की समाप्ति की जाती है.
पानी में खड़े होकर ही सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है
छठ पूजा और व्रत करने के सबके अपने-अपने कारण होते हैं लेकिन मुख्य रूप से छठ पूजा सूर्य देव की उपासना कर उनकी कृपा पाने के लिए की जाती है. सूर्य देव की कृपा से सेहत अच्छी रहती है और घर में सुख-समृद्धि रहती है. ये व्रत खास तौर पर संतान प्राप्ति या फिर अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिये किया जाता है. कहते हैं कि छठी मइया संतान प्रदान करती हैं.
छठ पर्व घरेलू है
दुर्गा पूजा, गणेश चतुर्थी आदि त्योहारों की तरह छठ के लिए कोई विशाल पंडाल नहीं लगाया जाता. ये परिवार के साथ घर पर ही मनाया जाने वाला पर्व है. जिस तरह दीवाली पर हर कोई एक साथ आकर त्योहार मनाता है उसी प्रकार छठ पर भी लोग कहीं भी हों, घर लौटकर एक-साथ ही इस त्योहार को मनाते हैं. परिवार को एक साथ लाने वाला त्योहार है छठ.
बाजारवाद से दूर
दीवाली की धूम आपको घरों से पहले बाजारों में देखने मिलती है, लेकिन छठ के त्योहार पर बाजार फिलहाल हावी नहीं दिखता. बेहद सादगी से मनाया जाता है ये त्योहार जिसमें उपयोग की जाने वाली ज्यादातर सामग्री घर की ही होती है. जैसे मुख्य प्रसाद ठेकुआ जिसके बिना छठ पूजा अधूरी मानी जाती है और खरना पर बनाई जाने वाली खीर को बाहर से नहीं लाकर घर में ही बनाया जाता है. इसके अलावा गन्ना, नारियल और केला छठ की पूजा में काफी महत्वपूर्ण होता है. ये महत्वपूर्ण चीजें भी वो हैं जो बेहद साधारण हैं, जिन्हें हर कोई खरीद सकता है. सूप और टोकरी और फल सब्जियां तो खरीदकर ही लानी होती हैं.
पूजा में होती हैं सामान्य सामग्री
कोई मंत्र या मूर्ति पूजा नहीं, कोई पंडित पुजारी नहीं
छठ में मूर्ति पूजा नहीं की जाती. मुख्य है उगते और ढलते सूर्य को अर्घ्य देना. और न ही इस पूजा में किसी पंडित या कर्मकांड की जरूरत है. बाकी त्योहारों में पंडित से पूजा करवाकर, अच्छी चकाचौंध करवाकर त्योहार को भव्य बना दिया जाता है, जबकि छठ में किसी की जरूरत नहीं. न तो इसके लिए किसी खास तरह के मंत्रोचार की जरूरत होती है और न ही खास तरह की पूजा की जिसे केवल पंडित ही करवा सकते हैं. ये त्योहार भक्त और छठी मइया को सीधे जोड़ने वाला त्योहार है. जिसमें महत्वपूर्ण सिर्फ एक चीज है- आस्था.
न जात-पात न अमीर-गरीब-
इस पर्व को कोई भी व्यक्ति अपनी श्रद्धा से मना सकता है. इस पर्व में न जात-पात के मायने हैं और न ही धर्म के. छठ पूजा ब्राह्मणवादी नहीं है. क्योंकि सूर्य को कोई नहीं बांध सकता, वो सबपर अपनी रौशनी और गर्मी एक सी बरसाता है. बहुत से मुस्लिम परिवारों की आस्था भी इस त्योहार से जुड़ी है और वो लोग भी पूरी श्रद्धा से छठ का व्रत करके सूर्य को अर्घ्य देते हैं. इतना ही नहीं ये त्योहार जितना गरीबों का है उतना ही अमीरों का भी. जितना दलितों का है उतना ही ब्राह्मणों का भी. हर तबके और हर जाति के लोग सूर्य के सामने पानी में खड़े होकर उन्हें अर्घ्य देते हैं. उस वक्त न कोई अमीर न गरीब, न ऊंच न नीच. ईश्वर सिर्फ उनकी श्रद्धा देखता है न कि उनके सूपे में रखा हुआ सामान.
छठ हर किसी का त्योहार है
समाज से जुड़ाव-
कहा जाता है कि एक बार अगर कोई छठी मइया का व्रत करता है तो उससे हर साल नियम से इसे मानना होता है. सूर्य़ काे अर्पित किया जाने वाला अर्घ्य और डाला हर साल उन्हें अर्पित करना जरूरी है. और किसी कारणवश, किसी की मृत्यु होने पर अगर कोई डाला या अर्घ्य नहीं दे सकता तो उसका डाला कोई और देता है. यानी दूसरा व्यक्ति उतनी ही श्रद्धा के साथ व्रत करता है और अपने साथ-साथ दूसरे का भी डाला अर्पित करता है. इससे होता ये है कि ये त्योहार सिर्फ एक परिवार का नहीं रह जाता बल्कि समाज में दो परिवारों को जोड़ने का आसाधारण काम भी करता है. और एक खास बात है इस पर्व की- सूप में सूर्य को अर्पित करने के लिए बहुत से फल और सब्जियां रखी जाती हैं, जिसमें कुछ आसानी से उपलब्ध नहीं होतीं, जैसे बड़ा वाला नींबू या कोई महंगा फल. ऐसे में जिन लोगों के पास ये उपलब्ध होता है वो उसे खुशी खुशी दूसरों के डाले में डाल देते हैं जिससे सबका डाला भरा रहे. एक-दूसरे से साझा करने का ऐसा प्रेम किसी और त्योहार में नहीं देखने को मिलता.
समाज को जोड़ने वाला त्योहार है छठ
एक ही गाना, एक ही राग-
साधारण तरीके से मनाए जाने वाले इस त्योहार में गीत भी साधारण और सरल तरीके से ही गाए जाते हैं. अपनी लोक भाषा में गाए जाने वाले ये गीत बेहद मीठे और कानों को सुकून देने वाले होते हैं. नवरात्रि पर तो आप डीजे पर भक्ति वाले गाने लगाकर डांडिया कर सकते हैं, होली-दीवाली पर डांस कर सकते हैं लेकिन छठ पर आप सिर्फ भक्ति में लीन होते हैं सिर्फ छठ मइया के लिए भाव गीत ही गा सकते हैं, बिना शोर-शराबे के एक ही राग में.
बिना हंगामे के बीत जाने वाला त्योहार
होली पर हुड़दंग न हो ये कभी नहीं सुना, दिवाली पर पटाखे फोड़ने से लेकर प्रदूषण की बातें तो आप सुन ही रहे हैं. लेकिन छठ बिना किसी शोर-शराबे और हंगामे के साथ शांति से मनाया जाने वाला त्योहार है. इसमें व्रत रखकर इंसान संयम रखना सीखता है.
अगर नदी या तालाब नहीं होते तो इसे घर पर ही तैयार किया जाता है
यूं ही नहीं हो गया है ग्लोबल
जिसने भी छठ मैया को अपनाया, वो उनके प्रेम और आस्था से खुद को अलग नहीं कर पाया. लोग हर साल इस त्योहार को मनाते हैं, चाहे स्थिति कैसी भी क्यों न हो. बहुत सी जगह अगर तलाब या पानी नहीं मिलता तो लोग पानी के लिए टब में खड़े होकर भी सूर्य को अर्घ्य देते हैं. जब आस्था इस कदर हो तो फिर क्या देश और क्या विदेश. भारत से दूर जाकर बसने वाले लोग वहां भी ये परंपरा निभा रहे हैं. कुछ तो बात है इस त्योहार में कि अब सिर्फ होली और दीवाली नहीं बल्कि छठ भी ग्लोबल बना गया है.
टेक्सास में तो स्विमिग पूल के किनारे मनाई गई छठ
दिल्ली या ऐसे क्षेत्र जहां मूल रूप से ये त्योहार नहीं मनाया जाता वहां शायद लोगों को इस त्योहार और इससे जुड़े रिवाजों को देखकर अचरज होता हो. महिलाओं की मांग से लेकर नाक तक फैले सिंदूर को देखकर अजीब लगता हो या नदी और तालाब के किनारे जुटी भीड़ को देखकर असुविधा होती हो. लेकिन उनके लिए भी ये जरूरी है कि वो भी इस त्योहार को करीब से समझें, क्योंकि जमीन से जुड़ा ये त्योहार लोगों को लोगों से जोड़ता है. हां, अब इसमें कहीं-कहीं राजनीति दिखाई देने लगी है, लेकिन बाजारीकरण अभी इस पर हावी नहीं हुआ है. क्योंकि यह त्योहार है सिर्फ और सिर्फ श्रद्धा का. छठ को समझेंगे तो इससे मनाने वाले लोगों को भी जानने का मौका मिलेगा और ये भी हो सकता है कि जिस तरह औरों ने इसे अपनाया आप भी इस त्योहार को अपना लें.
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