30 जुलाई एक ऐसा दिन, जो अवध के एक ऐसे नवाब के नाम दर्ज है. जिसका नाम सुनकर या जिसकी कोई पुरानी तस्वीर देखकर बस दो ही चीजें जहन में आती हैं पहली है शतरंज दूसरी है कत्थक. हम बात कर रहे हैं अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह की. 30 जुलाई 1822 में लखनऊ में जन्मे और 21 सितम्बर 1887 में मटियाबुर्ज में अपनी आखिरी सांस लेने वाले नवाब वाजिद अली शाह के 65 साल के जीवन को देखें तो हमारे लिए ये कहना कहीं से भी गलत न होगा कि नवाब का पूरा जीवन रहस्यों से घिरा था.
इतिहासकारों और लेखकों की भी नवाब को लेकर अलग अलग राय है. कुछ इतिहासकार और लेखक नवाब वाजिद अली शाह को आराम-तलब, अय्याश, लुजलुज, अक्षम और अयोग्य मानते हैं. तो वहीं कुछ ऐसे भी हैं जिनकी नवाब वाजिद अली शाह को लेकर राय बिल्कुल जुदा है. ऐसे लोगों के तर्क हैं कि तमाम नकारात्मक बिन्दुओं के बावजूद ये अवध की खुशकिस्मती थी जो उसे वाजिद अली शाह के रूप में अपना शासक मिला.
इतिहास में भी नवाब के चरित्र को लेकर कई किस्से मशहूर हैं. वाजिद अली शाह के विषय में एक सबसे दिलचस्प किस्सा सुनिए.1857 में अंग्रेज अवध को अपने बस में करने के लिए हमला कर रहे थे. वाजिद अली शाह अपने महल में थे. नवाब इसलिए नहीं भाग पाए क्योंकि तब महल में ऐसा कोई सेवादार मौजूद नहीं था जो नवाब साहब के पावों में जूतियां पहना सके. चूंकि नवाब साहब को किसी ने जूतियां नहीं पहनाई इसलिए वो पकड़े गए और इन्हें गिरफ्तार करते हुए कलकत्ता भेज दिया गया. ये किस्सा इतिहास में दर्ज है. इसके अलावा भी इतिहास में वाजिद अली शाह को लेकर सैकड़ों किस्से दर्ज हैं जिन्हें देखकर पहली नजर में वही कहावत चरितार्थ होती है कि 'जब रोम जल रहा था तब नीरो बांसुरी बजा...
30 जुलाई एक ऐसा दिन, जो अवध के एक ऐसे नवाब के नाम दर्ज है. जिसका नाम सुनकर या जिसकी कोई पुरानी तस्वीर देखकर बस दो ही चीजें जहन में आती हैं पहली है शतरंज दूसरी है कत्थक. हम बात कर रहे हैं अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह की. 30 जुलाई 1822 में लखनऊ में जन्मे और 21 सितम्बर 1887 में मटियाबुर्ज में अपनी आखिरी सांस लेने वाले नवाब वाजिद अली शाह के 65 साल के जीवन को देखें तो हमारे लिए ये कहना कहीं से भी गलत न होगा कि नवाब का पूरा जीवन रहस्यों से घिरा था.
इतिहासकारों और लेखकों की भी नवाब को लेकर अलग अलग राय है. कुछ इतिहासकार और लेखक नवाब वाजिद अली शाह को आराम-तलब, अय्याश, लुजलुज, अक्षम और अयोग्य मानते हैं. तो वहीं कुछ ऐसे भी हैं जिनकी नवाब वाजिद अली शाह को लेकर राय बिल्कुल जुदा है. ऐसे लोगों के तर्क हैं कि तमाम नकारात्मक बिन्दुओं के बावजूद ये अवध की खुशकिस्मती थी जो उसे वाजिद अली शाह के रूप में अपना शासक मिला.
इतिहास में भी नवाब के चरित्र को लेकर कई किस्से मशहूर हैं. वाजिद अली शाह के विषय में एक सबसे दिलचस्प किस्सा सुनिए.1857 में अंग्रेज अवध को अपने बस में करने के लिए हमला कर रहे थे. वाजिद अली शाह अपने महल में थे. नवाब इसलिए नहीं भाग पाए क्योंकि तब महल में ऐसा कोई सेवादार मौजूद नहीं था जो नवाब साहब के पावों में जूतियां पहना सके. चूंकि नवाब साहब को किसी ने जूतियां नहीं पहनाई इसलिए वो पकड़े गए और इन्हें गिरफ्तार करते हुए कलकत्ता भेज दिया गया. ये किस्सा इतिहास में दर्ज है. इसके अलावा भी इतिहास में वाजिद अली शाह को लेकर सैकड़ों किस्से दर्ज हैं जिन्हें देखकर पहली नजर में वही कहावत चरितार्थ होती है कि 'जब रोम जल रहा था तब नीरो बांसुरी बजा रहा था.'
अवध क्षेत्र की पृष्ठभूमि में लिखी गई किताबों में सबसे अग्रणीय, रोज़ी लेवेलिन-जोन्स ने भी अपनी किताब 'द लास्ट किंग' में वाजिद अली शाह के किरदार को बेहद अजीब बताया है. किताब जहां एक तरफ वाजिद अली शाह को स्त्रीलोलुप बताती है तो वहीं ये भी मानती हैं कि यदि अवध को वाजिद अली शाह न मिले होते तो आज हम जिस लखनऊ की नफासत और नजाकत के किस्से गढ़ते हैं उसका स्वरूप शायद ही ऐसा होता. हमने बात की शुरूआत वाजिद अली शाह के दो रूपों से की थी और बताया था कि वाजिद अली शाह अवध के एक ऐसे शासक हैं जिन्होंने औरतों के अलावा शतरंज और कत्थक के लिए जाना गया.
यदि हम वाजिद अली शाह के जीवन का आंकलन करें तो मिलता है कि वाकई ये अवध के अन्य शासकों से हर मायनों में अलग थे. एक शासक के जीवन में जब उसका हरम, उसकी रानियां, युद्ध, तलवार हिंसा और कूटनीति होती है तो वहीं वाजिद अली शाह का पूरा जीवन ही अलग और रचनात्मकता से भरा था. कभी वाजिद अपने महल में हाथ में सुई पकड़े चिकन का बारीक काम करते हुए दिखते हैं. तो कभी ये रदीफ़ और रदीफ़-काफ़िया जोड़कर शायरी करते हुए दिखते हैं. कभी हमने वाजिद अली शाह को उनके कत्थक प्रेम के लिए जाना. तो कभी हमने उन्हें साहित्य में अग्रणीय योगदान देते हुए देखा. कला, साहित्य, संगीत के अलावा नवाब अपनी खाने की आदतों और मेहमान नवाजी के लिए भी जाने जाते हैं.
बात जब नवाब के पाक-कौशल की चल रही है तो बात आगे बढ़ाने से पहले हमारे लिए ये बताना भी बेहद जरूरी है कि आज अवधी कुजीन जिस मुकाम पर है उसके लिए नवाब वाजिद अली शाह के योगदान को नहीं भूला जा सकता. खुद कल्पना करते हुए देखिये मिलेगा कि वाजिद अली शाह के जीवन में कितनी विविधताएं हैं. यदि हम नवाब के जीवन से कुछ बुराइयों को फ़िल्टर कर दें तो हमारे लिए ये कहना गलत नहीं है कि नवाब वाजिद अली शाह अपने दौर में अवध के लियोनार्डो दा विंची थे. अगर नहीं थे उनसे कम भी नहीं थे.
जैसा कि हम बता चुके हैं वाजिद अली शाह को लेकर इतिहास और इतिहासकारों के अपने अलग मत हैं. यदि हम इसका भी आंकलन करें तो मिलता है कि तकरीबन 9 वर्षों तक अवध के सिंहासन पर बैठने वाले वाजिद अली शाह को विरासत में एक कमजोर और लगभग उजड़ा हुआ राज्य मिला था. एक ऐसा राज्य जहां उसके राजा के पास खोने के लिए कुछ था ही नहीं. ज्ञात हो कि वाजिद अली शाह से पहले के जितने भी नवाब हुए वो अंग्रेज़ों से प्लासी और बक्सर जैसा महत्वपूर्ण युद्ध पहले ही लड़ और हार चुके थे. इतिहासकारों की मानें तो इस हार के बाद अवध को अंग्रेज़ों को भारी जुर्माना देना पड़ता था. ऐसे में वाजिद अली शाह की स्थिति खुद-ब-खुद हमारे सामने आ जाती है कि उनका वैसा हाल क्यों था जैसा हमें इतिहास ने बताया.
इतिहास ने भले ही वाजिद अली शाह को एक बुरा, सुस्त और अय्याश बताया हो मगर वाजिद अली शाह के बारे में ये भी दिलचस्प था कि उन्होंने कभी अपनी कमियां छुपाने में गुरेज नहीं किया. अपनी लिखी किताब इश्क़नामा में भी वाजिद अली शाह ने अपनी कमियों को स्वीकार किया है. ज्ञात हो कि वाजिद अली शाह पर आरोप है कि नवाब ने लगभग 300 शादियां कीं और तलाक़ भी खूब दिए थे.
शाह को भले ही इतिहास एक अक्षम और अयोग्य मानता हो मगर ये शायद इनके चरित्र की खूबी, हिंसा से नफरत और कला संगीत से प्रेम ही था जिसके कारण इन्हें एक सच्चा सेक्युलर कहने में भी कोई गुरेज नहीं है. इस बात को हम एक अन्य किस्से से समझ सकते हैं. चूंकि लखनऊ एक शिया बाहुल्य क्षेत्र हैं तो कहा जाता है कि एक बार होली और मुहर्रम एक साथ पड़ा. अब क्योंकि मुहर्रम पर लखनऊ गम में डूबा था तो उस वक़्त राज्य के हिन्दुओं ने भी होली नहीं खेली.
इसपर जब वाजिद अली शाह ने कारण तलाश किये तो असली बात निकल के सामने आई और उन्होंने पूरे राज्य के लिए होली खेलने का फरमान जारी किया. वाजिद अली शाह ने राज्य के मुसलमानों को निर्देशित किया कि वो भी हिन्दुओं के साथ होली खेले. वाजिद अली शाह एक सच्चे सेक्युलर थे ये बात हमें उनकी लिखी एक ठुमरी से भी समझ आती है. ये ठुमरी भगवान श्री कृष्ण को संबोधित थी और इसके बोल थे- मोरे कान्हा जो आए पलट के, अब के होली मैं खेलूंगी डट के...
इसके अलावा एक मामला और है जो बताता है कि वाजिद अली शाह जितने मुसलमानों के थे उतने ही हिन्दुओं के थे.बात 1855 की है. वह विवाद भी बाबरी मस्जिद-राम मंदिर जैसा ही था. लेकिन उसे अक्लमंदी से सुलझा लिया गया. अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह ने सांप्रदायिक ताकतों को कोई मौका न देते हुए समस्या का हल निकाल लिया और दूसरे समुदाय के साथ पूरा न्याय किया.
आज वाजिद अली शाह हमारे बीच नहीं हैं, मगर इतिहास है. एक ऐसा इतिहास जिसने एक राजा की अच्छाइयों के मुकाबले उसकी बुराइयों पर बल दिया और उसका वो रूप दिखाया जिसने उसे दुनिया के सामने हंसी का पात्र बनाया. अंत में हम इस बिंदु पर अपनी बात खत्म करेंगे कि यदि वाजिद अली शाह में हजार बुराइयां थीं तो वहीं उनमें लाखों अच्छे गुण भी थे जैसे उनकी बुराइयों का जिक्र होता है. वैसे ही हमें उनकी बताई गई अच्छी बातों का भी जिक्र करना चाहिए.
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