हमारी भारतीय संस्कृति में त्योहारों, मेलों, उत्सवों व पर्वो का महत्वपूर्ण स्थान है. यहां साल में दिन कम और त्योहार अधिक है. ऐसे में यह कहे तो भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यहां हर दिन होली और हर रात दिवाली होती है. दरअसल, ये त्योहार और मेले ही हैं जो हमारे जीवन में नवीन ऊर्जा का संचार करने के साथ ही परस्पर प्रेम और भाईचारे को बढ़ाते हैं. एक ऐसा ही 'तमसो मां ज्योर्तिगमय' का साक्षात् प्रेरणापुंज, अंधकार से उजास की ओर बढ़ने व अनेकता में एकता का संवाहक पर्व है मकर संक्रांति. हर साल 14 जनवरी को धनु से मकर राशि व दक्षिणायन से उत्तरायण में सूर्य के प्रवेश के साथ संपूर्ण भारत सहित विदेशों में मनाया जाना वाला यह पर्व अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है.
पंजाब व जम्मू-कश्मीर में 'लोहड़ी' के नाम से प्रचलित यह पर्व भगवान बाल कृष्ण के द्वारा 'लोहिता' नामक राक्षसी के वध की खुशी में मनाया जाता है. इस दिन पंजाबी भाई जगह-जगह अलाव जलाकर उसके चहुंओर भांगडा नृत्य कर अपनी खुशी जाहिर करते है. वहीं पांच वस्तुएं तिल, गुड़, मक्का, मूंगफली व गजक से बने प्रसाद की अग्नि में आहुति प्रदत्त करते है. वहीं देश के दक्षिणी इलाकों में इस दिन को 'पोंगल' के रुप में मनाने की परंपरा है. फसल कटाई की खुशी में तमिल हिंदुओं के बीच हर्षोल्लास के साथ चार दिवस तक मनाये जाने वाले 'पोंगल' का अर्थ है - विप्लव या उफान. इस दिन तमिल परिवारों में चावल और दूध के मिश्रण से जो खीर बनाई जाती है उसे 'पोंगल' कहा जाता है. इसी तरह गुजरात में मकर संक्रांति का ये पर्व 'उतरान' के नाम से मनाया जाता है. तो वहीं महाराष्ट्र में इस पर्व को 'गुडी पडवा' कहा जाता है तथा इस दिन लोग एक-दूसरे के घर जाकर तिल और गुड़ से बने लड्डू खिलाकर मराठी में 'लिळ गूळ ध्या आणि गोड़ गोड़ बोला' कहते है. जिसका हिन्दी में अर्थ होता है तिल और गुड़ के लड्डू खाइये और मीठा-मीठा बोलिये. तो वहीं असम प्रदेश में इस पर्व को 'माघ बिहू' के नाम से जाना व मनाया जाता है. इसी तरह इलाहबाद में माघ मेले व गंगा सागर मेले के रुप में मनाया जाने वाले पर्व मकर संक्रांति पर 'खिचड़ी' नामक स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर खाने की परंपरा है. जनश्रुति है कि शीत के दिनों में खिचड़ी खाने से शरीर को नई ऊर्जा मिलती है. शायद इसे ही मकर संक्रांति मनाने का साइंटिफिक कारण कह...
हमारी भारतीय संस्कृति में त्योहारों, मेलों, उत्सवों व पर्वो का महत्वपूर्ण स्थान है. यहां साल में दिन कम और त्योहार अधिक है. ऐसे में यह कहे तो भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यहां हर दिन होली और हर रात दिवाली होती है. दरअसल, ये त्योहार और मेले ही हैं जो हमारे जीवन में नवीन ऊर्जा का संचार करने के साथ ही परस्पर प्रेम और भाईचारे को बढ़ाते हैं. एक ऐसा ही 'तमसो मां ज्योर्तिगमय' का साक्षात् प्रेरणापुंज, अंधकार से उजास की ओर बढ़ने व अनेकता में एकता का संवाहक पर्व है मकर संक्रांति. हर साल 14 जनवरी को धनु से मकर राशि व दक्षिणायन से उत्तरायण में सूर्य के प्रवेश के साथ संपूर्ण भारत सहित विदेशों में मनाया जाना वाला यह पर्व अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है.
पंजाब व जम्मू-कश्मीर में 'लोहड़ी' के नाम से प्रचलित यह पर्व भगवान बाल कृष्ण के द्वारा 'लोहिता' नामक राक्षसी के वध की खुशी में मनाया जाता है. इस दिन पंजाबी भाई जगह-जगह अलाव जलाकर उसके चहुंओर भांगडा नृत्य कर अपनी खुशी जाहिर करते है. वहीं पांच वस्तुएं तिल, गुड़, मक्का, मूंगफली व गजक से बने प्रसाद की अग्नि में आहुति प्रदत्त करते है. वहीं देश के दक्षिणी इलाकों में इस दिन को 'पोंगल' के रुप में मनाने की परंपरा है. फसल कटाई की खुशी में तमिल हिंदुओं के बीच हर्षोल्लास के साथ चार दिवस तक मनाये जाने वाले 'पोंगल' का अर्थ है - विप्लव या उफान. इस दिन तमिल परिवारों में चावल और दूध के मिश्रण से जो खीर बनाई जाती है उसे 'पोंगल' कहा जाता है. इसी तरह गुजरात में मकर संक्रांति का ये पर्व 'उतरान' के नाम से मनाया जाता है. तो वहीं महाराष्ट्र में इस पर्व को 'गुडी पडवा' कहा जाता है तथा इस दिन लोग एक-दूसरे के घर जाकर तिल और गुड़ से बने लड्डू खिलाकर मराठी में 'लिळ गूळ ध्या आणि गोड़ गोड़ बोला' कहते है. जिसका हिन्दी में अर्थ होता है तिल और गुड़ के लड्डू खाइये और मीठा-मीठा बोलिये. तो वहीं असम प्रदेश में इस पर्व को 'माघ बिहू' के नाम से जाना व मनाया जाता है. इसी तरह इलाहबाद में माघ मेले व गंगा सागर मेले के रुप में मनाया जाने वाले पर्व मकर संक्रांति पर 'खिचड़ी' नामक स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर खाने की परंपरा है. जनश्रुति है कि शीत के दिनों में खिचड़ी खाने से शरीर को नई ऊर्जा मिलती है. शायद इसे ही मकर संक्रांति मनाने का साइंटिफिक कारण कह सकते हैं.
मकर संक्रांति को मनाने के पीछे अनेक धार्मिक कारण भी है. इसी दिन गंगा भागीरथ के पीछे चलकर कपिल मनु के आश्रम से होते हुए सागर में जा मिली थी. तो वहीं इस दिन भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण की दिशा में गमन के साथ ही स्वेच्छा से अपना देह त्यागा था. यह दिन श्रद्धा, भक्ति, जप, तप, अर्पण व दान-पुण्य का दिन माना जाता है. या यूं कहे कि हिंदू धर्मावलंबियों के लिए मकर संक्रांति का महत्व वैसा ही जैसा कि वृक्षों में पीपल, हाथियों में ऐरावत और पहाड़ों में हिमालय का है. भले मकर संक्रांति का पर्व देश के विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग नामों से मनाया जाता हो पर इसके पीछे समस्त लोगों की भावना एक ही है. तिल और गुड़ के व्यंजन हमें एक होने का संदेश देते है. तो वहीं नीले अंबर में शीतल वायु के संग उड़ती पतंग मानवीय यथार्थ से रू-ब-रू करवाती है. इंसान को शिखर पर पहुंचकर भी अभिमान नहीं करना चाहिए यह पतंग भलीभांति समझाती है. क्योंकि जिस प्रकार पतंग भले कितनी ही क्यूं ना ऊंचे आकाश में उड़े पर उसे खींचने वाली डोर इंसान के हाथ में ही रहती है. वैसे ही इंसान भी भले कितना ही अकूत धन-दौलत के अभिमान की हवा के बूते विलासिता व ऐश्वर्य के आसमान में उड़े लेकिन उसके सांसों की डोर भी परमपिता परमेश्वर अविनाशी के हाथों में ही रहती है. अंत्वोगत्वा पतंग हो या इंसान दोनों का माटी में विलीन होना तय है. इसलिए इंसान को भूलकर भी अपने जड़ों और संस्कारों से हटकर कोई गलत कृत्य नहीं करना चाहिए.
पतंगबाजी के दौरान उन बेजुबान पक्षियों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए जो सुबह अपने घर से दाने की तलाश में निकलते हैं. पर पतंग के पक्के धागे की डोर के कारण उनकी शाम नहीं हो पाती है. जहां मकर संक्रांति पुण्य अर्जित करने का स्वर्णिम पल व पर्व है वहां यदि किसी निर्दोष पक्षी के प्राण लिये जाये तो यह सबसे बड़ा पाप ही है. मानवीय संवेदना का परिचय देते हुए पतंगबाजी कच्चे मांझे के साथ दोपहर के समय केवल दो से तीन घंटे के बीच ही करें. और यदि कोई पक्षी मांझे की चपेट में घायल व जख्मी अवस्था में मिलें तो यथासंभव उपचार व सहायता प्रदान करें. केवल हम मकर संक्रांति को पतंगबाजी व तिल और गुड़ के स्वादिष्ट व्यंजनों तक ही सीमित न रखें अपितु इस पावन पर्व पर आपसी रंजिश और बैर मिटाकर प्रेम, स्नेह, भाईचारे व अपनत्व के साथ रहते हुए हिंदू-मुस्लिम का भेद भुलाकर अनेकता में एकता की मिसाल संपूर्ण जगत में दीप्तिमान करें. तभी जाकर हम सच्चें मायनों में मकर संक्रांति के पर्व की प्रासंगिकता जमीनी धरातल पर सिद्ध कर पाएंगे.
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