यूपी की राजनीति में गुजरात का गधा और गधे पर राजनीति. कुछ भी कहें लेकिन सच तो यह है कि आज गधा राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है. आम आदमी जब गधे पर अपने भाव व्यक्त करने से रोक नहीं पा रहा, सोशल मीडिया पर स्टेटस पर स्टेटस डाल रहा है, तो फिर भला कवि क्यों पीछे रहें, उन्हें तो इन भावों को गीतों और छंदों में पुरोना बखूबी आता है.
आजतक ने ऐसे ही कवियों को एक मंच पर आमंत्रित किया और उनके साथ हुई गधों पर चर्चा. चर्चा क्या बस यूं कहें कि कवि सम्मेलन भी गधा सम्मेलन हो गया. मंच पर वरिष्ठ कवियों के साथ साथ कुछ गधे भी दिखाई दे रहे थे. कुछ उदास थे तो कुछ हंस रहे थे. राजनीति का मोहरा बने बस इन्हीं गधों की कथा व्यथा हमारे कवियों ने अपने शब्दों में बयां की, जिसे नहीं सुना तो फिर क्या सुना...
हास्य कवि पॉपुलर मेरठी जी ने कार्यक्रम की शुरुआत की और राजनीति पर अपने भाव कुछ इस तरह कहे, सुनिए
पॉपुलर मेरठी जी के बाद हास्य कवि सुनील जोगी ने कुछ यूं कहकर समां बाधा-
डॉ. प्रवीण शुक्ला ने राजनीति में गधे के प्रवेश पर कुछ पंक्तियां कहीं-
राजनीति में नहीं है आजकल नीति कोई
यहां बैरियों के जज़बात मिल जाएंगे,
बिना मतलब यहा काम नहीं होता कोई,
मतलब हो तो दिन रात मिल जाएंगे
सांप नेवले की बाज चिड़िया की दोस्ती के
सैकड़ों रिसल हाथों हाथ मिल जाएंगे
भालू बंदरों की भी तो दोस्ती मिलेगी यहां
सारे गधे तुम्हें एक साथ मिल जाएंगे.
साथ ही एक छन्द के माध्यम से कुर्सी की राजनीति को विस्तार से बताया -
कुर्सी की बात करूं कुर्सी पे घात करूं
देखो कुर्सी को ही डांट रही कुर्सी
कुर्सी बनी आवारा कुर्सी बनी है आरा
देखो कुर्सी को ही काट रही...
यूपी की राजनीति में गुजरात का गधा और गधे पर राजनीति. कुछ भी कहें लेकिन सच तो यह है कि आज गधा राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है. आम आदमी जब गधे पर अपने भाव व्यक्त करने से रोक नहीं पा रहा, सोशल मीडिया पर स्टेटस पर स्टेटस डाल रहा है, तो फिर भला कवि क्यों पीछे रहें, उन्हें तो इन भावों को गीतों और छंदों में पुरोना बखूबी आता है.
आजतक ने ऐसे ही कवियों को एक मंच पर आमंत्रित किया और उनके साथ हुई गधों पर चर्चा. चर्चा क्या बस यूं कहें कि कवि सम्मेलन भी गधा सम्मेलन हो गया. मंच पर वरिष्ठ कवियों के साथ साथ कुछ गधे भी दिखाई दे रहे थे. कुछ उदास थे तो कुछ हंस रहे थे. राजनीति का मोहरा बने बस इन्हीं गधों की कथा व्यथा हमारे कवियों ने अपने शब्दों में बयां की, जिसे नहीं सुना तो फिर क्या सुना...
हास्य कवि पॉपुलर मेरठी जी ने कार्यक्रम की शुरुआत की और राजनीति पर अपने भाव कुछ इस तरह कहे, सुनिए
पॉपुलर मेरठी जी के बाद हास्य कवि सुनील जोगी ने कुछ यूं कहकर समां बाधा-
डॉ. प्रवीण शुक्ला ने राजनीति में गधे के प्रवेश पर कुछ पंक्तियां कहीं-
राजनीति में नहीं है आजकल नीति कोई
यहां बैरियों के जज़बात मिल जाएंगे,
बिना मतलब यहा काम नहीं होता कोई,
मतलब हो तो दिन रात मिल जाएंगे
सांप नेवले की बाज चिड़िया की दोस्ती के
सैकड़ों रिसल हाथों हाथ मिल जाएंगे
भालू बंदरों की भी तो दोस्ती मिलेगी यहां
सारे गधे तुम्हें एक साथ मिल जाएंगे.
साथ ही एक छन्द के माध्यम से कुर्सी की राजनीति को विस्तार से बताया -
कुर्सी की बात करूं कुर्सी पे घात करूं
देखो कुर्सी को ही डांट रही कुर्सी
कुर्सी बनी आवारा कुर्सी बनी है आरा
देखो कुर्सी को ही काट रही कुर्सी
कुर्सी खरीदती है कुर्सी ही बेचती है
हमेशा से कुर्सी की हाट रही कुर्सी
कुर्सी में कुर्सी ही दीमक सी घुस गई
आजकल कुर्सी को चाट रही कुर्सी
जब कुर्सी की बात चलती है तो एक और शख्स की बात जरूरी हो जाती है जिसका नाम है 'चमचा', उसके लिए शुक्ला जी ने कहा
कोई न था आस-पास, नेता जी भी थे उदास
चोरी छिपो नेताजी की दुम हुआ चमचा
नोता जी के वंदन में हर अभिनंदन में
उनके माथे का कुमकुम हुआ चमचा
नेताजी हंसे तो मुआ तालियां बजाने लगा
दुखी होने पर गुमसुम हुआ चमचा
नेताजी की सभा में जो जूतों की बौछार हुई
गधे के सींग जैसा गुम हुआ चमचा
जब बात राजनीति की हो तो दलबदलू नेताओं की जिक्र करना भी जरूरी हो जाता है. इन दलबदलुओं पर शुक्ला जी ने अपने भाव कुछ यूं व्यक्त किए-
वोटर ने कहा झूठ का है बोलबाला यहां
एक भी नेता न मिला सच्चाई के घर में
गांधियों की नीतियों की बात जो भी करते थे
वो भी मुझे मिले नहीं गांधी की डगर में
मैंने कहा मेंढकों की टर-टर में मिलेंगे
या मिलेंगे किसी घटर-पटर में
ढक्कन उछाके मेनहोल को तूं झांक लेना
दलबदलू मिलेंगे तैरते गटर में
आगरा से आए, पवन आगरी जी ने गधों की पंचायत पर कविता सुनाई-
सारे गधों ने मिलकर एक राष्ट्रीय स्तर की पंचात बुलाई,
एक युवा गधे ने सबसे पहले मुंह खोला और पंचायत के सामने आत्मोसित स्वर में बोला कि
'आजकल ये नेता कौन सा चूरन फांक रहे हैं,
हम सीधे साधे हैं तो ये हमको दोनों तरफ से हांक रहे हैं.
हमारा गधत्व हमारी संस्कृति हमारी पहचान है,
कोई हमारा प्रचार करे तो इसमें इनका क्या नुकसान है,
हम यूपी के हों या गुजरात के
सबके सब परंपराओं के खूंटे से बंधे हैं
गिर जाएं नैतिक चक्र से ऐसा भी नहीं
क्योंकि हम आदमी नहीं विशुद्ध गधे हैं.
सीएम से लेकर पीएम तक
आजकल सभी के मन में हमारी ही मूरत है
देश की सियासत को अब मुद्दों की नहीं हमारी जरूरत है
लोकतंत्र के इस उत्सव में अब अपना पलड़ा भारी है
सुना है कि अब हमको राष्ट्रीय पशु घोषित करने की तैयारी है
माना की शतरंज की सियासत पर हर दाव चलता है
पर भाईसाहब, हम गधों पर कोई नेता तंज ककरे तो ये हमें बहुत खलता है.'
दीपक गुप्ता ने मंच पर आते ही मजाकिया लहजे में कहा कि 'आज तक की इस पहल को धन्यवाद कि जैसा विषय है वैसे ही पात्र यहां मंच पर सुशोभित हैं. और आपने इन सभी पात्रों को तमाम प्रांतो से बुलाकर एक मंच पर बैठाकर ये सिद्ध किया कि गधा कहीं का भी हो उसका स्थान एक ही है.'
राजनीति में गधा जिस प्रकार हीरो बन गया उसपर ये ये लगने लगा कि और किसी के आएं न आएं, लेकिन गधों के अच्चे दिन जरूर आने वाले हैं. इसपर दीपक गुप्ता ने दो गधों का वार्तलाप कुछ इस तरह सुनाया-
एक गधे ने दूसरे गधे से कहा,
आजतक हमने बहुत अपमान सहा
मेहनत में हमारा खूब पसीना बहा
और हमें कभी भी इज्जत नहीं मिली
पसीने की सही कीमत नहीं मिली
मगर इस बार हमें चुनावों में खाने को हरी घास मिली है
पहचान खास मिली है, और ये आस मिली है कि
हमारे समर्थक हमें हमारा हक दिलाने वाले हैं
हम गधों के भी अच्छे दिन आने वाले हैं
सियासत में बहुत से लोगों को गधा बताया जा रहा है, उसपर दीपक गुप्ता का कहना था-
सियासत की घुड़दौड़ में जो गधे हैं
बने बोझ जनता के सर पर लदे हैं
जिन्हें रेंकना था लगे हिनहिनाने
गधे आजकल हो गए हैं सयाने
गधें से ही मुझको पता ये चला है
गधा होके घोड़ों में रहना कला है
आपने दोहे सुने होंगे, पर बात गधे की हो तो गधे पर दोहा बनना भी लाजिमी है. लेकिन अब गधे पर बेबाक जौनपुरी ने जो दोहे लिखे, उन्हें पढ़ना जरूरी है-
गधा आप या मैं सुनो, इसमें कुछ संदेह
नकली चढ़ गए मंच पर, हम तो रहे विदेह
कहे गधा ये चीखकर, बंद करो तकरार
हमपर लादो नहीं राजनीति का भार
बेबाक साहब ने पूरे सम्मेलन में एक ऐसी कविता पढ़ी कि हर कोई शख्स एक ही बात बोलने लगा, वो था- 'ढेंचू-ढेंचू'
मेरी औकात है 'ढेंचू-ढेंचू'और ज़ख्मी जज़बात हैं 'ढेंचू-ढेंचू'
कभी खच्चर, कभी घुड़सर, कभी जनता भी कहा
कठिन हालात हैं 'ढेंचू-ढेंचू'
हम चुनाव में बने हैं नायक
क्या करामात है 'ढेंचू-ढेंचू'
अब से बदले किस्मत अपनी
आपकी सौगात है 'ढेंचू-ढेंचू'
वेद प्रकाश वेद वो हास्य कवि हैं जिनके चेहरे पर मुस्कुराहट भी ढूंढने से नहीं मिलती, हास्य का भाव तो भूल ही जाएं, लेकिन जितनी गंभीरता से वो अपनी कविताएं कहते हैं, उनकी ही जोर से श्रोताओं को हंसी आती है. आते ही उत्तरप्रदेश की राजनीति पर जोरदार तंज कसे, जो कुछ यूं थे-
जो दूध के धुले थे सबका ईमां मचल गया
जिसके पास जो भी दाव था वो चल गया
टीपू और मोदी के दो गधों की लड़ाई में
मायावती का देखिए हाथी कुचल गया
उन्होंने कहा कि गधा बहुत सीधा प्रणी कोई नहीं होता, अमिताभ बच्चन से लेकर सीएम और पीएम तक सब उसी की चर्चा कर रहे हैं, मगर कसम है कि बंदे को घमंड आया हो.
रिकार्ड ये इस बार तो चुपचाप बना
यूपी में इलेक्शन हुए तो राज खुला
गुजरात का गधा यूपी में बाप बना
नोटबंदी पर भी वो बोलने से नहीं चूके, उन्होंने कहा-
नुकसान न कमल न झाडू न पंजो का होगा
नुकसान अगर होगा तो इन गंजों का होगा
बिलकुल तहस नहस हो जाएंगे
केसलेस तो थे ही अब कैशलेस हो जाएंगे
व्यंगकार तेज नारायण शर्मा 'बेचैन' ने आते ही उत्तर प्रदेश की हालिया राजनीति पर व्यंग बांण छोडे, जिसे जरा ध्यान से समझने की जरूरत है-
अखिल भारतीय गधों ने जिराफ को डांटते हुए कहा कि
तुम्हें प्रांतीय गधों की ब्रांडिंग नहीं करनी चाहिए थी
ये जंगल की आचार संहिता के खिलाफ है
उधर लकड़बग्घों की सभा को संबोधित करते हुए शेर की मौसी ने कहा
गधा गधों की ब्रांडिंग करते हुए जिराफ ने दलित ऊदबिलावों का ध्यान नहीं रखा,
ये लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है
कुल मिलाकर राजनीति के अस्तबल से ढेंचू-ढेंचू का स्वर सुनाई दे रहा है
और ब्रांडिंग गधों की पीठ पर धारियां खींचकर उनके जेबरा होने के सुबूत जुटा रही है
राजनीति धुंआधार बल्लेबाजी कर रही है और देश लगातार फॉलोइंग खेलता जा रहा है
लोकतंत्र का इससे बड़ा मजाक क्या होगा
सूर्योदय लाने का दावा वे ही लोग कर रहे हैं जिनका खुद का चुनाव चिन्ह लालटेन है
राजनीति की परीक्षाएं आते ही नाथूराम गोडसे स्कूल के छात्र भी महात्मा गांधी मार्ग से होकर गुजरने लगते हैं.
हास्य कवि सुनील साहिल ने छोटी-छोटी बाते कीं जो दर्शकों को गुदगुदा गईं. अमिताभ बच्चन के विज्ञापन से प्रेरण लेते हुए इन्होंने गधों के संचार का विज्ञापन अपने शब्दों में बनाया-
''अगली बार आपको कोई नेता कहे तो बिलकुल बुरा मत मानिएगा, बल्कि उसे थैंक्यू बोलिएगा
इस प्रदेश का सरताज इंडियान नेता ये जनाब यहीं मिलेंगे
आपके घर से थोड़ी सी दूर आपके मोहल्ले में
महीनों हो गए इनको नहाए, लेकिन ये दिखते नीट एंड क्लीन हैं
वो शहर वाला नेता नहीं जो सड़क पर खड़ा कोई गहरी बात सोचता रहता है,
इसके पास सोचने की फुर्सत ही कहां, ये बिना सोचे समझे ही देश चला लेता है
अगर आप इनसे कोई सवाल करें तो ये 70 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार के सात भाग लेते हैं
ये भाईसाहब खुद को बड़ा हैंडसम प्राणी मानता है जो सारे नेताओं का नाम रौशन कर रहा है
याद रखिएगा कि नेता कोई गाली नहीं है, तारीफ की थाली है
इनकी आदत है मुक्का लात की, इनमें खुशबू है राज पाट की.
इनकी टिकिट कटवालो, छड़ी रखलो अपने हाथ में
अरे कुछ दिन तो गुजारो बिना इनकी बात में.''
आखिरी में हास्य कवि अरुण जेमिनी ने सिर्फ मुहावरों का इस्तेमाल करके एक रचना रची, जिसे सुनना दर्शकों के कानों को खूब भाया. उन्होंने कहा-
गधे ने जंगल में सभा बुलाई
क्योंकि इन दिनों गधा चर्चा में भी था तो भारी भीड़ आई
भाषण देते हुए गंधर्व राज बोले हम पशु पक्षी हमेशा से ही राजनीति को भाते रहे हैं
क्योंकि राजनीति में मनुष्यता का कोई स्थान नहीं है
इसलिए मुहावरों तक में हमीं छाते रहे हैं
जिसकी लाठी उसकी भैंस से शुरू हुई राजनीति
कब भैंस के आगे बीन बजाने लगी, पता ही नहीं चला
कुत्ते-बिल्ली की तरह लड़ते-लड़ते कुत्ते की दुम, आस्तीन के सांप और रंगे सियार बन जाना इन्हें कभी नहीं खला
जनता को काठ का उल्लू समझकर उल्लू बनाना और अपना उल्लू सीधा करना हर राजनेता जानता है
और सारे दल एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं और इसलिए राजनीति के तालाब में रहकर कोई भी मगरमच्छ से बार नहीं पालता
देश के विकास पर कोई सवाल इनसे करो तो इन्हें सांप सूंघ जाता है
बगुला भगत बनकर वोटर को मछली की तरह फंसाना इन्हें अच्छी तरह आता है
बिल्ली के भागों छींका फूटते ही राजनीति का हर चूहा खुद को पंसारी समझने लगता है
गद्दी पर बैठते ही अंधे के हाथ में लगती है बटेर और चूहा भी बन जाता है शेर
पक्ष-विपक्ष में चलता है चूहे बिल्ली का खेल गद्दी पर बैठा नेता एसा लगता है
जैसे झझूंदर के सिर में चमेली का तेल
जनता हर चुनाव में आस्तीन के सांप को दूध पिलाती है
वोट डलते ही हर गिरगिट की शक्ल बदल जाती है
बंदर के हाथ में उस्तरा लगता है बिल्ली के गले में घंटी सी बंध जाती है
नौसौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चलेगी
सियासत ऐसी ही थी, ऐसी है और ऐसी ही रहेगी
कभी नहीं बदला है राजनीति का दौर
ये तो हाथी के दांत हैं खाने के और दिखाने के और
मैं गधा कभी इन मुहावरों में नहीं दिखा
सियासत की मंडी में सारे जानवर बिके पर मैं नहीं बिका
इस बाजार में हमेशा मैं रहा बारह वाट का
मैं तो धोबी का गधा ही रहा, न घर का न घाट का
लेकिन सियायत जानती है कि मैं गधा ही अवसरवादी राजनीति का परिमाप बनता रहा हूं
जबभी मतलब पड़ा है मां नेताओं का बाप बनता रहा हूं
अब मैं जनता से यही कहुंगा, राजनीति की जमीन में नहीं गढने चाहिए अवसरवाद के खूंटे
वोट की ताकत का ऐसा प्रयोग करो कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.
ये भी पढ़ें-
Exclusive : नेता बने गधे का पहला इंटरव्यू
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.