यूं देखा जाए तो कोई बड़ी बात नहीं. पर जेब है खाली तो रंज छुपाएं कैसे? हालिया दूध के दामों में अमूल और मदर डेरी के द्वारा 2 रुपये की मूल्यवृद्धि महज दो रुपये न होकर दूध के दामों को 60 रू के मानसिक स्तर से परे धकेलती है. जो कुछ लोगों के लिए डिप्रेशन का कारण बन सकती है. एक ऐसे समय में जब अधिकांश आबादी अपने रोजगार और काम धंधे को लेकर पहले से ही बैचेन है, ये जख्मों पर कुछ कुछ नमक छिड़कने जैसा है. उदाहरण के लिए एक आम मजदूर जो 300 रू की दिहाड़ी करता है उसके लिए दूध धीरे धीरे उपभोग की जगह विलासिता की वस्तु बनता जा रहा है.
अब यदि उसके घर में एक बच्चा भी हो जो दूध पर निर्भर हो तो अन्य इस्तेमाल के साथ कम से कम 2 लीटर दूध की रोज आवश्यकता हो सकती है. यानी अपनी कमाई का 40% तो वो दूध पर ही खर्च कर रहा होगा. रसोई की बाकी वस्तुओं और बिजली, पेट्रोल, डीटीएच आदि के नियमित खर्चे विषयांतर हो जायेंगे. कुल मिलाकर एक मेहनत कश गरीब के लिए जीवन और कष्टसाध्य होने जा रहा है.
आम लोगों का तो कहना ही क्या. चाय के छोटे होते जा रहे कागज और प्लास्टिक के कप और 10रू मिनिमम के रेट के बावजूद भी चाय में दूध का स्वाद घटता जा रहा है. सो दिन भर में चाय के कप भी कम होते जा रहे हैं. कांच के ग्लास तो चाय के ठेले से कब के गायब हो गए क्योंकि यूं हर रोज घटते जाने की बाजीगरी में वो नाकाबिल निकले.
उस गृहिणी के भी हाल पूछिए, जो पहले से ही मेहमानों को चाय के लिए डरते हुए पूछती रही होगी. अब न जाने कैसे आगंतुकों का सामना करेगी. और जो किसी ने चाय की फरमाइश कर भी दी तो दिमाग में बजट का सन्नाटा. चाय भारत में केवल पीने पिलाने की चीज ही नहीं है, बल्कि बहुत से लोगों के लिए...
यूं देखा जाए तो कोई बड़ी बात नहीं. पर जेब है खाली तो रंज छुपाएं कैसे? हालिया दूध के दामों में अमूल और मदर डेरी के द्वारा 2 रुपये की मूल्यवृद्धि महज दो रुपये न होकर दूध के दामों को 60 रू के मानसिक स्तर से परे धकेलती है. जो कुछ लोगों के लिए डिप्रेशन का कारण बन सकती है. एक ऐसे समय में जब अधिकांश आबादी अपने रोजगार और काम धंधे को लेकर पहले से ही बैचेन है, ये जख्मों पर कुछ कुछ नमक छिड़कने जैसा है. उदाहरण के लिए एक आम मजदूर जो 300 रू की दिहाड़ी करता है उसके लिए दूध धीरे धीरे उपभोग की जगह विलासिता की वस्तु बनता जा रहा है.
अब यदि उसके घर में एक बच्चा भी हो जो दूध पर निर्भर हो तो अन्य इस्तेमाल के साथ कम से कम 2 लीटर दूध की रोज आवश्यकता हो सकती है. यानी अपनी कमाई का 40% तो वो दूध पर ही खर्च कर रहा होगा. रसोई की बाकी वस्तुओं और बिजली, पेट्रोल, डीटीएच आदि के नियमित खर्चे विषयांतर हो जायेंगे. कुल मिलाकर एक मेहनत कश गरीब के लिए जीवन और कष्टसाध्य होने जा रहा है.
आम लोगों का तो कहना ही क्या. चाय के छोटे होते जा रहे कागज और प्लास्टिक के कप और 10रू मिनिमम के रेट के बावजूद भी चाय में दूध का स्वाद घटता जा रहा है. सो दिन भर में चाय के कप भी कम होते जा रहे हैं. कांच के ग्लास तो चाय के ठेले से कब के गायब हो गए क्योंकि यूं हर रोज घटते जाने की बाजीगरी में वो नाकाबिल निकले.
उस गृहिणी के भी हाल पूछिए, जो पहले से ही मेहमानों को चाय के लिए डरते हुए पूछती रही होगी. अब न जाने कैसे आगंतुकों का सामना करेगी. और जो किसी ने चाय की फरमाइश कर भी दी तो दिमाग में बजट का सन्नाटा. चाय भारत में केवल पीने पिलाने की चीज ही नहीं है, बल्कि बहुत से लोगों के लिए रोजगार और कुछ के लिए उच्चतम पदों पर उन्नति का साधन भी है.
और लोगों के द्वारा यू अपने शौक घटाते जाना इनके लिए कोई अच्छी खबर नही है. और दूध में इस मूल्यवृद्धि का ठीकरा फोड़ा जा रहा है उस मुए भूसे के ऊपर जो किसान को हर हाल में अगली जुताई से पहले खाली करना ही पड़ता है. समझने की बात है कि क्या देश में दुधारू पशु बढ़ गए या उनकी खुराक जो भूसा कम पड़ रहा है और महंगा हो जा रहा है.
पशु बढ़े होते तो दूध भी बढ़ा होता और यूं महंगा न होता. तो क्या सारा कसूर तल्ख होते मौसम का है? पर माफ़ कीजिए हुजूर तल्ख मौसम अनाज का दाना तो छोटा कर सकता है पर भूसा नहीं घटा सकता. लगता है भूसा भी भाई लोगों के नजर में आ गया है. चेक कर लेना चाहिए कहीं ये एमसीएक्स पर लिस्ट नहीं होने वाला? खैर चाहे कुछ भी हो. दूध दही की नदियां बहाने वाले इस देश में कभी नौनिहालों के मां बाप यूं दूध से बजट को एडजस्ट करने की जद्दोजहद करते पाए जाएंगे सोचा न था.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.