Hi हिंदी. हाय हिंदी.
तुम्हें हिंदी दिवस की मुबारकबाद. साथ ही यह कामना कि कुछ साल बाद वह दिन आए, जब यह मुबारकबाद न देनी पड़े. हिंदी का एक नन्हा तालिब-इल्म होने के नाते मैं नहीं चाहता कि कोई दिन तुम्हारे नाम से मुकर्रर किया जाए. क्योंकि दिन बनाकर चीजों को तब याद किया जाता है जब या तो उसे बिसूरने का डर हो या इससे बाजार को फायदा हो. इसीलिए शायद इस दुनिया में कोई 'इंग्लिश डे' नहीं होता.
हिंदी कैसे मजबूत होगी? हिंदी दिवस के रिवाजी आयोजनों में यह सवाल भी रिवाज की तरह उठता है और कुछ दलीलों-तालियों के बाद अगले साल तक ठंडे बस्ते में चला जाता है. 2015 का हिंदी दिवस '#हिन्दी_में_बोलो' को ट्विटर ट्रेंड बनाने में कामयाब रहा. सही आग्रह है. हिंदी में बोलना ही चाहिए, लेकिन वह हिंदी कैसी होनी चाहिए और उसकी समृद्धि किस बात में है, इस पर भी अपनी सोच का एक हिस्सा खर्च किया जाए.
मुझे याद है एक बार हिंदी पखवाड़े में एक प्रतियोगिता रखी गई थी. हर वक्ता को किसी ताजे विषय पर 15 मिनट तक बोलना था और शर्त थी कि इसमें अंग्रेजी का एक भी शब्द जुबान पर न आए. इस तरह जो वक्तव्य सामने आए, वे अंग्रेजी को वर्जित करने की सावधानी से उपजे थे और इस कदर बोझिल थे कि उन्हें यहां लिख दिया जाए तो वक्ता भी अपना माथा पकड़ ले.
इसलिए हम हिंदी को इस तरह नहीं याद करना चाहते है. हम तो इस भाषा से यारी कायम करना चाहते हैं. यारी जो बहुत ही बेतकल्लुफ होती है. यार वो होता है, जिसे टीप भी मार दी और चूम भी लिया. फिर गुस्सा आया तो गाली भी बक दी. फिर भी, हर बार, यार की जानिब लौटने का रास्ता खुला रहता है. हमारा और हिंदी का रिश्ता जिंदा होना चाहिए. बोले तो यूथफुल. इसका ताल्लुक उम्र से नहीं, उसके खुले दायरे में है. कि एक खुला पालना हो जैसे, जिसमें अलग-अलग बोली-संस्कृति के लोग अपने अपने कटे-फिटे, नए-पुराने, हल्के-गाढ़े और कच्चे-पक्के शब्द छोड़ जाते हों और हिंदी एक उदार मां की तरह उन्हें गोद लेती जाती हो. यह सरापा हु्स्नो-जमाल हिंदी का है और ये सुख़न का कमाल भी हिंदी का...
Hi हिंदी. हाय हिंदी.
तुम्हें हिंदी दिवस की मुबारकबाद. साथ ही यह कामना कि कुछ साल बाद वह दिन आए, जब यह मुबारकबाद न देनी पड़े. हिंदी का एक नन्हा तालिब-इल्म होने के नाते मैं नहीं चाहता कि कोई दिन तुम्हारे नाम से मुकर्रर किया जाए. क्योंकि दिन बनाकर चीजों को तब याद किया जाता है जब या तो उसे बिसूरने का डर हो या इससे बाजार को फायदा हो. इसीलिए शायद इस दुनिया में कोई 'इंग्लिश डे' नहीं होता.
हिंदी कैसे मजबूत होगी? हिंदी दिवस के रिवाजी आयोजनों में यह सवाल भी रिवाज की तरह उठता है और कुछ दलीलों-तालियों के बाद अगले साल तक ठंडे बस्ते में चला जाता है. 2015 का हिंदी दिवस '#हिन्दी_में_बोलो' को ट्विटर ट्रेंड बनाने में कामयाब रहा. सही आग्रह है. हिंदी में बोलना ही चाहिए, लेकिन वह हिंदी कैसी होनी चाहिए और उसकी समृद्धि किस बात में है, इस पर भी अपनी सोच का एक हिस्सा खर्च किया जाए.
मुझे याद है एक बार हिंदी पखवाड़े में एक प्रतियोगिता रखी गई थी. हर वक्ता को किसी ताजे विषय पर 15 मिनट तक बोलना था और शर्त थी कि इसमें अंग्रेजी का एक भी शब्द जुबान पर न आए. इस तरह जो वक्तव्य सामने आए, वे अंग्रेजी को वर्जित करने की सावधानी से उपजे थे और इस कदर बोझिल थे कि उन्हें यहां लिख दिया जाए तो वक्ता भी अपना माथा पकड़ ले.
इसलिए हम हिंदी को इस तरह नहीं याद करना चाहते है. हम तो इस भाषा से यारी कायम करना चाहते हैं. यारी जो बहुत ही बेतकल्लुफ होती है. यार वो होता है, जिसे टीप भी मार दी और चूम भी लिया. फिर गुस्सा आया तो गाली भी बक दी. फिर भी, हर बार, यार की जानिब लौटने का रास्ता खुला रहता है. हमारा और हिंदी का रिश्ता जिंदा होना चाहिए. बोले तो यूथफुल. इसका ताल्लुक उम्र से नहीं, उसके खुले दायरे में है. कि एक खुला पालना हो जैसे, जिसमें अलग-अलग बोली-संस्कृति के लोग अपने अपने कटे-फिटे, नए-पुराने, हल्के-गाढ़े और कच्चे-पक्के शब्द छोड़ जाते हों और हिंदी एक उदार मां की तरह उन्हें गोद लेती जाती हो. यह सरापा हु्स्नो-जमाल हिंदी का है और ये सुख़न का कमाल भी हिंदी का है.
और इस दिशा में जिनने भी पहल की, उनका शुक्रिया. चाहे वे हिंदी के वितान को आसमान देने वाले कवि हों या सिनेमा के पॉपुलर डायरेक्टर-एक्टर-डायलॉग राइटर. यहां से बहस हिंदी के बाजार और बाजार की हिंदी पर आती है. पर सवाल है कि जो 'बाजार की हिंदी' नहीं है, वह किसकी हिंदी है और उसे कौन लिख-पढ़ रहा है? कौन है जो कठिन हिंदी को भी क्लिष्ट हिंदी कह रहा है? आप मुश्किल हिंदी में समाज-सुधार की बात कर रहे हैं तो हम आपका सम्मान करते हैं. लेकिन आपकी कविता लोकप्रिय नहीं हुई तो इसका रोना रोते हुए हमारा कंधा मत गीला कीजिए. 'है स्वच्छन्द-सुमंद गंध वह, निरानंद है कौन दिशा' का मतलब अब लोग नहीं समझते हैं, इसे अब स्वीकार कर लीजिए. यह उस हिंदी का दौर है जो फिल्मों के जरिये बताता है कि करोल बाग की लड़कियां कैसे बात करती हैं और बनारसी लड़के अपनी प्रेम कहानियों को कैसे याद करते हैं.
वे लोग जिन्होंने हिंदी को अपना जीवन दिया और अब सेमिनारों में दीप प्रज्जवलन करके प्रसन्न हैं, उन्हें बाजार को हीन और अछूत मानना छोड़ देना चाहिए. वे हिंदी की खाते हैं और हाय तौबा भी मचाते हैं. बॉलीवुड में जहां-जहां हिंदी का शानदार काम हुआ, उसे याद कीजिए और एक शुक्रिया फिल्म वालों का भी कीजिए. असंख्य पूर्वाग्रहों और नाटकीयता से भरपूर होने के बाद भी इस उद्योग ने हिंदी के लिए बड़ी संभावना तैयार की है, जिसे न भुनाने का दंभ हमें महंगा पड़ेगा. इसलिए हम शुक्रगुजार हैं अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धूलिया और दिबाकर बैनर्जी के, जो कोनों-कस्बों में गंधा रही हिंदी को बीच मंच पर लेकर आए.
यह दौर अज्ञेय की हिंदी को भी पढ़े, लेकिन महज उसे ही साधने और साथ ले चलने की जिद पर न अटका रहे. यह गुलजार, प्रसून जोशी और अमिताभ भट्टाचार्य की लीक पर चलने का वक्त है, जो 'हर एक फ्रेंड जरूरी होता है' की ध्वनि को जरूरी सम्मान दिए जाने की मांग करता है. बहुत सारे पॉपुलर लिक्खाड़ों के बहुत सारे फंडे साफ नहीं हैं, लेकिन फिर भी जब मैं सिर्फ हिंदी का चश्मा लगाकर समग्रता में इसे देखता हूं तो मुझे एक बड़ा मंच नजर आता है. जरूरत है इस मंच पर पहुंचकर पूरी ताकत से नाचने की और हिंदी का भोकाल बनाने की.
अब सवाल है कि अंग्रेजी महफिलों में हिंदी वाले अपना भोकाल कैसे बनाएं? तो 'सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग' की ग्रंथि से उबरना होगा. बुनियादी चीज है ज्ञान की प्राप्ति और झिझक का त्याग. याद रखिए कि जलवा ज्ञान का है, भाषा तो उसे जाहिर करने का जरिया है. और ये जरिया मौलिक हो तो ज्यादा मजेदार होगा. मगर मौलिकता सिर्फ भाषा की न हो. ज्ञान की हो. तभी मिसरा पूरा होगा.
वो क्या बोलते हैं दिल्ली में- चौड़ा. तो हिंदी वालों को चौड़े होने की जरूरत है. चरचराटा कायम करना है तो अंग्रेजी महफिलों में बेफिक्री से, बेतकल्लुफ होकर हिंदी बोलें. शुरू में लोग इग्नोर करेंगे, फिर हंसेंगे, फिर चौंकेंगे, फिर डरेंगे और बात में दम होगा तो पूरे सम्मान से स्वीकार करेंगे. संभव हो तो अंग्रेजी बोलना भी सीखिए, ताकि कभी हिंदी का समर्थन अंग्रेजी में करना पड़े तो आपकी जुबान लड़खड़ाए नहीं. यह हिंदी का टाइम है बॉस, बस श्रेष्ठता का झूठा दर्प छोड़कर सिंहासन से उतरकर आना होगा. एक आदमी मिली-जुली हिंदी बोल-बोलकर पीएम बन गया है. आलोचना भी कीजिए लेकिन हिंदी-छवि की उसकी पहुंच का मैकेनिज्म भी समझिए.
तीसरी जरूरी बात है, तकनीक को गले लगाना. हिंदी वाले जितनी मेहनत सस्ती शायरी पढ़ने में करते हैं, उतनी मेहनत तकनीक से मेलजोल बढ़ाने में करनी चाहिए. तकनीक उनकी तरफ बांहें फैलाकर आ रही है, उन्हें उस ओर लपक पड़ना चाहिए. हुलसकर उसे बांहों में भर लेना चाहिए और छाती से भींच लेना चाहिए.
हिंदी ज्ञान के लिए अनुवाद पर आश्रित है. इसलिए जरूरी है कि अनुवाद ज्यादा से ज्यादा हो और दोयम दर्जे का न हो. अंग्रेजी समेत सभी भाषाएं खुलेपन से अनुवाद करती हैं. ज्ञान मीमांसा की किताबों का आसान अनुवाद होना चाहिए. वैसा नहीं जैसा यूपीएसएसी की परीक्षाओं और हवाई अड्डों पर होता है. फ्लाइट में बैठे हुए जब आप सुनते हैं कि 'आपात स्थिति में प्रतिदीप्ति पट्टिकाएं जलने लगेंगी' तो तन-बदन तो उसी वक्त जलने लगता है. ये कौन लोग हैं जो 'स्टील प्लांट' को 'इस्पात पौधा' लिख रहे हैं. इन्हें खोज खोजकर खारिज कीजिए.
आप कॉलेज जाते हैं तो ऐसी गर्लफ्रेंड चाहते हैं जो लिप ग्लॉस लगाती हो, कभी-कभी शॉर्ट स्कर्ट भी पहनती हो और अंग्रेजी भी बोलती हो. यह प्रेम का ही एक रूप है. लेकिन यह प्रेम क्या मां से आपके प्रेम को बेअसर कर देता है? जवाब आप जानते हैं. तो आधुनिकता और तकनीक के प्रति हिंदी वालों का रवैया ऐसा ही होना चाहिए. अंतत: जब वही गर्लफ्रेंड साड़ी पहनकर आपके घर आती है तो लगता है कि माथे पर बिंदी भी होती तो मां कसम ये बंदी पूरी माधुरी लगती.
गांधी को याद कीजिए. जिन्होंने कहा कि दुनिया के सभी धर्मों और आस्थाओं का स्वागत है. मैं नहीं चाहता कि मेरे घर की खिड़कियां बंद हों. मैं चाहता हूं कि सारी जमीनों की संस्कृतियां मेरे घर में पूरी आजादी से हवा की तरह बहें. लेकिन मेरे पांव मेरी जमीन पर टिके हैं और यह जमीन छोड़ने से मैं इनकार करता हूं. मैं दूसरे लोगों के घर में बिना अधिकार के रहने वाले शख्स की तरह, भिखारी या गुलाम की तरह रहने से इनकार करता हूं.
hi हिंदी. ये अब हमें तय करना है कि तुम अब 'high हिंदी' में बदल जाओगी या 'हाय हिंदी' के मर्सिये में ही उलझी रहोगी.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.