जब से मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर में लागू धारा 370 को हटाया है, तभी से समानता को लेकर एक बहस सी छिड़ गई है. हर कोई ये कहता दिख रहा है कि अब जम्मू-कश्मीर के लोगों को भी देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले लोगों जैसे अधिकार मिलेंगे. जम्मू-कश्मीर को तो विशेष अधिकार मिले थे, फिर यहां किन अधिकारों की बात हो रही है? यहां बात हो रही है उन लोगों की, जो इस विशेष अधिकार की वजह से दबे-कुचले जा रहे थे. घाटी में एक ऐसा ही समुदाय है जो कई दशकों से वहां रह तो रहा है, लेकिन वहां का नागरिक नहीं बन सका. ये हैं वाल्मीकि समुदाय के लोग. राम चरित मानस के रचयिता ऋषि वाल्मीकि को मानने वाला ये समुदाय घाटी में सबसे अधिक दबाया-कुचला जा रहा है.
ये धारा 370 ही है, जिसने 20 साल की राधिका का बीएसएफ में शामिल होकर देश की सेवा करने का सपना तोड़ दिया. इसी धारा की वजह से एकलव्य का वकील बनने का सपना अधूरा रह गया. लेकिन शुक्र है कि अब इसे हटा दिया गया है और 11 साल का अनादि अपने सपने पूरे कर सकता है. राधिका, एकलव्य और अनादि में यही समानता है कि ये तीनों वाल्मीकि समुदाय के हैं. इस समुदाय का होने की वजह से इनके पास आगे बढ़ने के विकल्प नहीं थे, लेकिन अब ये समुदाय मोदी सरकार को दुआएं देते नहीं थक रहा है, क्योंकि अब तक इनके पैरों में जाति की जो बेड़ियां थीं, उन्होंने मोदी सरकार ने तोड़ दिया है.
वाल्मीकि समुदाय के लोगों की कुछ इमोशनल कहानियां
- शुरुआत करते हैं राधिका से, जिनकी उम्र करीब 20 साल है. वह बीएसएफ में शामिल होना चाहती थीं. सारे टेस्ट पास भी कर लिए थे, लेकिन जम्मू-कश्मीर की स्थायी नागरिकता (पीआरसी) नहीं होने के चलते उन्हें रिजेक्ट कर दिया गया. अपने पिता को मुसीबतों...
जब से मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर में लागू धारा 370 को हटाया है, तभी से समानता को लेकर एक बहस सी छिड़ गई है. हर कोई ये कहता दिख रहा है कि अब जम्मू-कश्मीर के लोगों को भी देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले लोगों जैसे अधिकार मिलेंगे. जम्मू-कश्मीर को तो विशेष अधिकार मिले थे, फिर यहां किन अधिकारों की बात हो रही है? यहां बात हो रही है उन लोगों की, जो इस विशेष अधिकार की वजह से दबे-कुचले जा रहे थे. घाटी में एक ऐसा ही समुदाय है जो कई दशकों से वहां रह तो रहा है, लेकिन वहां का नागरिक नहीं बन सका. ये हैं वाल्मीकि समुदाय के लोग. राम चरित मानस के रचयिता ऋषि वाल्मीकि को मानने वाला ये समुदाय घाटी में सबसे अधिक दबाया-कुचला जा रहा है.
ये धारा 370 ही है, जिसने 20 साल की राधिका का बीएसएफ में शामिल होकर देश की सेवा करने का सपना तोड़ दिया. इसी धारा की वजह से एकलव्य का वकील बनने का सपना अधूरा रह गया. लेकिन शुक्र है कि अब इसे हटा दिया गया है और 11 साल का अनादि अपने सपने पूरे कर सकता है. राधिका, एकलव्य और अनादि में यही समानता है कि ये तीनों वाल्मीकि समुदाय के हैं. इस समुदाय का होने की वजह से इनके पास आगे बढ़ने के विकल्प नहीं थे, लेकिन अब ये समुदाय मोदी सरकार को दुआएं देते नहीं थक रहा है, क्योंकि अब तक इनके पैरों में जाति की जो बेड़ियां थीं, उन्होंने मोदी सरकार ने तोड़ दिया है.
वाल्मीकि समुदाय के लोगों की कुछ इमोशनल कहानियां
- शुरुआत करते हैं राधिका से, जिनकी उम्र करीब 20 साल है. वह बीएसएफ में शामिल होना चाहती थीं. सारे टेस्ट पास भी कर लिए थे, लेकिन जम्मू-कश्मीर की स्थायी नागरिकता (पीआरसी) नहीं होने के चलते उन्हें रिजेक्ट कर दिया गया. अपने पिता को मुसीबतों में फंसकर काम करते देख राधिका ने सोचा था कि वह पढ़-लिख कर कुछ बनेंगी, ताकि परिवार का सहारा बन सकें, लेकिन पीआरसी की बेड़ियों ने उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया. पिता के लिए भी कुछ नहीं कर सकीं, यहां तक कि पढ़ाई तक छोड़नी पड़ी. हां, अब धारा 370 हटाए जाने के बाद राधिका के मन में एक उम्मीद की किरण फिर से जगी है कि वह बीएसएफ में जाने का अपना सपना पूरा कर सकती हैं.
- राधिक के पिता सालों से सफाई कर्मचारी का काम कर रहे हैं. राधिका की काउंसलिंग के लिए वह उनके साथ गए थे और पूरे दिन भूखे रहे थे, इस आस में कि बेटी कुछ बन जाएगी. लेकिन पीआरसी की वजह से बेटी बीएसएफ में शामिल नहीं हो सकी. जब उनसे बात की गई तो उनकी आंखों से बहते आंसू उस दर्द को भी दिखा रहे थे, जो उन्होंने सालों तक झेला है और उस खुशी को भी दिखा रहे थे जो धारा 370 के खत्म होने की वजह से उन्हें मिली है.
- पीआरसी से ही परेशान हैं वाल्मीकि समुदाय के एकलव्य, जो बनना तो चाहते थे वकील, लेकिन उनका ये सपना अधूरा रह गया. इसकी भी वह थी धारा 370, जिसके चलते पीआरसी ने उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया. अब धारा 370 के खत्म होने की वजह से एकलव्य कितने खुश हैं, इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि वह वह 5 अगस्त को ही अपना स्वतंत्रता दिवस मान रहे हैं, क्योंकि इसी दिन उन्हें असल मायनों में आजादी मिली है.
खैर, 11 साल के बच्चे अनादि से जब बात की गई तो वह भी वकील बनना चाहता है. खुशी की बात ये है कि अब धारा 370 नहीं होने की वजह से जल्द की वाल्मीकि समुदाय के लोगों को स्थायी नागरिकता मिलेगी और अनादि एक दिन अपना सपना पूरा कर लेगा.
आज का नहीं, 6 दशक पुराना जख्म है ये
इस कहानी की शुरुआत हुई थी 1957 में, जब जम्मू-कश्मीर के सफाई कर्मचारी कई महीनों के लिए हड़ताल पर चले गए थे. उस दौरान जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री (तब वहां मुख्यमंत्री नहीं, प्रधानमंत्री होते थे) बक्शी गुलाम मोहम्मद थे. उन्होंने तय किया कि दूसरे राज्यों से सफाई कर्मचारी बुलाकर उन्हें जम्मू-कश्मीर में नौकरी दी जाएगी. सबसे पास में पंजाब था, तो वहां के वाल्मीकि समुदाय के लोगों को जम्मू-कश्मीर आने के लिए कहा गया. जम्मू-कश्मीर की नागरिकता के साथ-साथ तमाम तरह के फायदे भी देने की पेशकश की गई. इसकी वजह से गुरदासपुर और अमृतसर जिले से करीब 272 कर्मचारी बुलाई गए, जो राज्य में धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते करीब 2.5 लाख पहुंच गए हैं. 6 दशकों से भी अधिक का समय गुजर चुका है, लेकिन सुविधाएं तो दूर की बात, वाल्मीकि समुदाय के लोगों को स्थायी नागरिकता तक नहीं मिली.
धारा 370 थी पैरों की बेड़ियां
जिस धारा 370 को मोदी सरकार ने खत्म किया है, उसी के तहत संविधान में धारा 35ए को जोड़ा गया था, जिसने वाल्मीकि समुदाय का जीवन नरक बना दिया. 35ए के तहत ही जम्मू-कश्मीर की सरकार ये तय कर सकती है कि राज्य का स्थाई निवासी कौन होगा. यहां तक कि संविधान में ये भी जोड़ दिया गया कि वाल्मीकि समुदाय के लोग राज्य में सिर्फ सफाई कर्मचारी का काम कर सकते हैं. इस तरह जब भी वाल्मीकि समुदाय में कोई बच्चा पैदा होता है तो भले ही वह सपने कितने भी बड़े देख ले, लेकिन उनकी मंजिल गटर की गंदगी साफ करना ही होती थी. धारा 370 हटाकर मोदी सरकार ने वाल्मीकि समुदाय के पैरों की बेड़ियां तोड़ने वाला काम किया है.
वाल्मीकि समुदाय को बंधुआ मजदूर बना दिया !
वाल्मीकि समुदाय को बड़ी ही चालाकी से वहां की सरकार ने बंधुआ मजदूर जैसा बना दिया. अपने संविधान में ये लिख दिया गया कि सफाई कर्मचारी के बच्चे सिर्फ सफाई कर्मचारी का ही काम कर सकते हैं. वहीं दूसरी ओर, इस समुदाय के बच्चों को राज्य सरकार के इंजीनियरिंग, मेडिकल या किसी अन्य प्रोफेशनल कोर्स के कॉलेजों में एडमिशन नहीं दिया जाता था. यहां बड़ा सवाल ये है कि इसका विरोध क्यों नहीं हुआ. विरोध दर्ज कैसे कराया जाए? या तो विरोध प्रदर्शन कर के, या फिर चुनाव में अपने वोट का इस्तेमाल करते हुए सरकार बदलकर. यहां के लोग लोकसभा चुनाव में तो वोट डाल सकते हैं, यानी वह भारत का प्रधानमंत्री तो चुन सकते थे, लेकिन विधानसभा चुनाव में उन्हें वोट डालने का हक नहीं था यानी वह अपने राज्य का मुख्यमंत्री नहीं चुन सकते थे.
जब 1957 में श्रीनगर और कश्मीर में कूड़े का अंबार लग गया था, तो प्रशासन के हाथ-पांव फूल गए थे. स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर, नरक से भी बदतर होता जा रहा था. ये वाल्मीकि समुदाय ही थी, जिसने यहां-वहां फैली गंदगी को साफ किया और वापस कश्मीर को स्वर्ग बना दिया. ये समुदाय तो 6 दशकों से जम्मू-कश्मीर को स्वर्ग बना रहा है, लेकिन वहां के संविधान ने हर गुजरते दिन के साथ इस समुदाय की जिंदगी नरक बनाने का काम किया है. प्रशासन ने वादे तो पूरे नहीं किए, उल्टा इतने जुल्म किए कि समुदाय की परेशानियां बढ़ती ही चली गईं. एक ओर राज्य के अन्य हिस्सों में हाथ से मैला न उठाने जैसे प्रावधान किए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर है, जहां इन मैला उठाने वालों की जिंदगी गटर में डुबाने की कोशिश हो रही थी.
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