किसान आन्दोलन (Farmers Protest) और भारत बंद (Bharat Bandh) के दौरान बहुत सी फोटो आई, वायरल हुई. कुछ फेक थीं और ज्यदटर जेनुइन थीं. थके-हारे किसानों (Farmers) को भोजन और पानी का लंगर (Langar) लगाकर लोकल लोगों ने बहुत अच्छा काम किया. ये देख वाकई बहुत अच्छा लगा कि कोई आन्दोलन में नारे लगाता है तो उसका गला सूखने पर कोई उसे पानी पिलाने वाला भी मौजूद होता है. पर ख़राब लगा इस ख़बर के साथ इसका कैप्शन. कैप्शन था कि 'जब CAA के विरोध में मुस्लिम समाज (Muslim Community) इकठ्ठा था तब मलेरकोटला के सिखों ने इनकी भूख प्यास का इंतेज़ाम कर लंगर लगाया था, अब सिख किसान (Sikh Farmers) जब परेशान हैं तो शाहीन बाग़ (Shaheenbagh ) के मुस्लिम परिवारों ने उनके पेट का इंतेज़ाम किया है. बहुसंख्यक आबादी को इससे सबक लेना चाहिए, यही भारतीय एकता का सबूत है, यही क्रूर डिक्टेटर टाइप सरकार के ख़िलाफ़ इस देश की एकता है'.
इसके बाद मालेरकोटला के सिखों और मुसलमानों के बारे में ढेर सारी दोस्ताने माहौल वाली इतिहास से जुड़ी बातें थी जिनका सिर पैर हास्यपद था. पर वो मुद्दा नहीं. लंगर लगाकर किसी की भूख मिटाना, प्यास बुझाना सबसे सच्चा सौदा है, नेक कार्य है लेकिन इसे मजहब के रंग में रंगना उतना ही नीच व्यहवार है जितना देश में दंगे कराना है.
पहले बात होती थी कि CAA के ख़िलाफ़ पूरा देश है, फिर सिखों का लगाया लंगर मुस्लिमों के लिए कैसे हो गया? वैसे ही किसान आन्दोलन में तो पूरा देश ही उतर आया था न? फिर मुस्लिम और सिख एकता का ये ड्रामा-ढोंग क्यों? क्या साबित करने के लिए? तिसपर ये टोंट की बहुसंख्यक आबादी को इससे सीख लेनी चाहिए? वाकई?
अनुभव सिन्हा की एक फिल्म है मुल्क, उसके क्लाइमेक्स...
किसान आन्दोलन (Farmers Protest) और भारत बंद (Bharat Bandh) के दौरान बहुत सी फोटो आई, वायरल हुई. कुछ फेक थीं और ज्यदटर जेनुइन थीं. थके-हारे किसानों (Farmers) को भोजन और पानी का लंगर (Langar) लगाकर लोकल लोगों ने बहुत अच्छा काम किया. ये देख वाकई बहुत अच्छा लगा कि कोई आन्दोलन में नारे लगाता है तो उसका गला सूखने पर कोई उसे पानी पिलाने वाला भी मौजूद होता है. पर ख़राब लगा इस ख़बर के साथ इसका कैप्शन. कैप्शन था कि 'जब CAA के विरोध में मुस्लिम समाज (Muslim Community) इकठ्ठा था तब मलेरकोटला के सिखों ने इनकी भूख प्यास का इंतेज़ाम कर लंगर लगाया था, अब सिख किसान (Sikh Farmers) जब परेशान हैं तो शाहीन बाग़ (Shaheenbagh ) के मुस्लिम परिवारों ने उनके पेट का इंतेज़ाम किया है. बहुसंख्यक आबादी को इससे सबक लेना चाहिए, यही भारतीय एकता का सबूत है, यही क्रूर डिक्टेटर टाइप सरकार के ख़िलाफ़ इस देश की एकता है'.
इसके बाद मालेरकोटला के सिखों और मुसलमानों के बारे में ढेर सारी दोस्ताने माहौल वाली इतिहास से जुड़ी बातें थी जिनका सिर पैर हास्यपद था. पर वो मुद्दा नहीं. लंगर लगाकर किसी की भूख मिटाना, प्यास बुझाना सबसे सच्चा सौदा है, नेक कार्य है लेकिन इसे मजहब के रंग में रंगना उतना ही नीच व्यहवार है जितना देश में दंगे कराना है.
पहले बात होती थी कि CAA के ख़िलाफ़ पूरा देश है, फिर सिखों का लगाया लंगर मुस्लिमों के लिए कैसे हो गया? वैसे ही किसान आन्दोलन में तो पूरा देश ही उतर आया था न? फिर मुस्लिम और सिख एकता का ये ड्रामा-ढोंग क्यों? क्या साबित करने के लिए? तिसपर ये टोंट की बहुसंख्यक आबादी को इससे सीख लेनी चाहिए? वाकई?
अनुभव सिन्हा की एक फिल्म है मुल्क, उसके क्लाइमेक्स में करैक्टर आरती मुहम्मद बताती है कि दिक्कत क्राइम या चैरिटी नहीं है, दिक्कत है ‘हम और वो’. s and them. लंगर किसानों के लिए लगा था, लोकल लोगों ने मदद की, इतनी बात अच्छी लगती है न पढ़कर? लेकिन नहीं! ऐसे आग कैसे लगेगी? आग लगाने के लिए लिखना पड़ेगा कि ‘मुसलमानों ने सिखों की मदद की’ और ये जताना होगा कि ‘बहुसंख्यक (हिन्दू) जो हैं वो किसी चैरिटी किसी लंगर में विश्वास नहीं रखते, उन्हें सबक लेना चाहिए.’
कोई मुझे बताए कि फ्री किचन या लंगर या खैरात का कांसेप्ट आया कहां से है? शब्दों का फेर है, इसे भंडारा भी कहा जाता है. हर शुभ कार्य के वक़्त पूजा, हवन और फिर भंडारा कराना किस सभ्यता में होता आ रहा है? एकादशी के दिन ठंडा जल या अष्टमी के बाद पूरी हलुए का प्रसाद किस धर्म में बांटा जाता है? एक संपन्न परिवार में जन्मदिन भी होता है तो उस रोज़ जागरण के बाद अगले दिन भंडारा कराया जाता है.
ये तो ओकेशन्स हुए, डेली रूटीन के बारे में बताता हूं. चिड़ियों के लिए सुबह-सुबह पानी, गाय के लिए रोटी, शाम को गली के कुत्तों को नियमित रूप से खाना खिलाना, यहां तक की चीटियों के लिए भी पेड़ के पास आंटा रखने के संस्कार दिए जाते हैं हिन्दुओं में, इंसानों की तो बात छोड़िए, जीवों यहां तक की कीटों के लिए भी हिन्दुओं में यही सिखाया जाता है कि उसे उसके हक़ का अन्न मिले. ‘साईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाये, मैं भी भूखा न रहूं साधू भी भूखा न जाये’ इसका मतलब क्या होता है? कौन है साधु?
एक अरसा पंजाब में जीवन बीता, कभी फ़र्क समझ ही नहीं आया कि सिखों और हिन्दुओं में अलग क्या है? सब पंजाबी ही कहलाते हैं उधर. गुरद्वारे और वहां के सेवाभाव की तारीफ सारी दुनिया करती है. गुरद्वारे में जब मैं रेगुलर सेवा करता था तब वहां आने वाले शख्स से आईडी नहीं मांगी जाती थी. सिर्फ सिख ही नहीं होते हैं सेवादार, बहुतायत हिन्दू, कुछ मुस्लिम्स, जैन, पारसी यहां तक की ईसाई भी आकर सम भाव से सेवा करते हैं.
सेवा करना, चैरिटी करना समुदायों में नहीं बांटा जाता. देश भर के सैकड़ों मंदिर सारा दिन भंडारा चलाते हैं, वैष्णों देवी में तो मैं ख़ुद खाकर आया हूं. एक के चैरिटी करने का मतलब ये नहीं होता कि वो दूसरों को नीचा दिखाए. सरकार के विरुद्ध या सरकार के पक्ष में होना अलग बात है, पर इस तरह की स्टेटमेंट्स समाज के ख़िलाफ़ होती हैं. ये ही बांटने की खाई गहरी करते हैं.
जो लोग इस तरह के आर्टिकल्स से मुतासिर होते हैं उनको बताता चलूं कि हिन्दू ही बीजेपी और बीजेपी ही हिन्दू नहीं है. सरकार की बुराई करनी है, जम के करो. ख़ूब ट्रोल करो लेकिन अपनी पर्सनल कुंठा निकालने के लिए सारे समुदाय को बांटना बंद करो. इस तरह के स्टंट पहले भी गैप बढ़ाते आए थे, आगे भी बढ़ाते ही नज़र आयेंगे.
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