जिन्दगी भले संघर्ष से भरी हो. हमें इससे लड़ने का तरीका आ गया हो. हमें जिन्दगी में सही गलत की पहचान हो गई हो लेकिन न जाने क्यूं जब मैं अधेरे में गांव के उस रास्ते से गुजरता हूं तो आज भी भय लगता है. बचपन के दिन थे, जून का महीना गर्मियों का दिन, गोधूली का बेला, आस पड़ोस के भी बच्चे आ जाया करते थे. हम बच्चों के खेलने की आवाज से पूरा घर परेशान. अंधेरा हो चुका था. मैं थक कर सो चुका था. हल्की सी नींद आई ही थी तब तक चिल्लाने की आवाज मेरे कानों में आई.
कोई कहीं छुप रहा था तो कोई कहीं भाग रहा था. कोई सीढ़ी के नीचे तो कोई आम के पेड़ की तरफ भाग रहा था. मेरी आंखे खुली तो देखा काला कपड़ा पहने हुए कोई तो खड़ा था. जीभ लाल आंखे भी शायद लाल थी, देखने मात्र से ही डर लगता था और ठीक वो सामने खड़ी थी. न जाने मैं जिस खाट पर सोया था. किसी ने टार्च (स्टील वाली टार्च रखी थी उसमें याद 3 मोटे वाले सेल लगते थे.) रखी थी, मैं लेकर मारने की कोशिश कर रहा था.
मेरी उम्र ठीक से याद तो नहीं लेकिन 8 या 9 साल रही हो गई. तभी तो मार नहीं पाया जीभ कटनी को (जीभ काटने वाली) और वो घर में भग गई. फिर मैं डंडा (गांव मैं लाठी बोलते है) लेकर घर में बहुत ढूंढा लेकिन मिली नहीं. और हम को जब भी डराना होता था तो उसी का नाम लिया जाता था, जीभ- कटनी अब धीरे धीरे बड़ हुए तो पता चला वो तो बढ़ी मम्मी (अम्मा) बनती थीं.
ऐसी बहुत सी कहानी है जिनसे हमें डराया जाता था. हमारे गांव में एक रास्ता है और वहां बैर का पेड़ जिस पर चुड़ैल रहती है, हम ही नहीं उससे पूरा गांव का बच्चा डरता था. इस रास्ते से मत जाना पेड़ पर चुड़ैल रहती है और शायद आज भी उस रास्ते से जाते हैं तो एक बार सोचते है, क्या रहती थी या नहीं? लेकिन ये सब मन का वहम है.
जिन्दगी भले संघर्ष से भरी हो. हमें इससे लड़ने का तरीका आ गया हो. हमें जिन्दगी में सही गलत की पहचान हो गई हो लेकिन न जाने क्यूं जब मैं अधेरे में गांव के उस रास्ते से गुजरता हूं तो आज भी भय लगता है. बचपन के दिन थे, जून का महीना गर्मियों का दिन, गोधूली का बेला, आस पड़ोस के भी बच्चे आ जाया करते थे. हम बच्चों के खेलने की आवाज से पूरा घर परेशान. अंधेरा हो चुका था. मैं थक कर सो चुका था. हल्की सी नींद आई ही थी तब तक चिल्लाने की आवाज मेरे कानों में आई.
कोई कहीं छुप रहा था तो कोई कहीं भाग रहा था. कोई सीढ़ी के नीचे तो कोई आम के पेड़ की तरफ भाग रहा था. मेरी आंखे खुली तो देखा काला कपड़ा पहने हुए कोई तो खड़ा था. जीभ लाल आंखे भी शायद लाल थी, देखने मात्र से ही डर लगता था और ठीक वो सामने खड़ी थी. न जाने मैं जिस खाट पर सोया था. किसी ने टार्च (स्टील वाली टार्च रखी थी उसमें याद 3 मोटे वाले सेल लगते थे.) रखी थी, मैं लेकर मारने की कोशिश कर रहा था.
मेरी उम्र ठीक से याद तो नहीं लेकिन 8 या 9 साल रही हो गई. तभी तो मार नहीं पाया जीभ कटनी को (जीभ काटने वाली) और वो घर में भग गई. फिर मैं डंडा (गांव मैं लाठी बोलते है) लेकर घर में बहुत ढूंढा लेकिन मिली नहीं. और हम को जब भी डराना होता था तो उसी का नाम लिया जाता था, जीभ- कटनी अब धीरे धीरे बड़ हुए तो पता चला वो तो बढ़ी मम्मी (अम्मा) बनती थीं.
ऐसी बहुत सी कहानी है जिनसे हमें डराया जाता था. हमारे गांव में एक रास्ता है और वहां बैर का पेड़ जिस पर चुड़ैल रहती है, हम ही नहीं उससे पूरा गांव का बच्चा डरता था. इस रास्ते से मत जाना पेड़ पर चुड़ैल रहती है और शायद आज भी उस रास्ते से जाते हैं तो एक बार सोचते है, क्या रहती थी या नहीं? लेकिन ये सब मन का वहम है.
ये सारी बातें सारी कहानियां हम अकेले गांव से बाहर न जाएं, रोकने के लिए हुआ करती थी. अच्छा जब छोटे थे तो डराने के लिए की दोपहर में घूमने न जाएं... इसके लिए भी कहानी बुनी गई थी. दोपहर को 12 बजे वह खाना खाने के लिए पेड़ से उतरती है. और इन सब बातों का यकीन दिलाने के लिए दो तीन लोग हुआ करते थे जिनको वो पहले कभी पकड़ी रहती थी.
किसी तरीके से साधू बाबा ने जान बचा ली थी. अब इन सब बातों को सुनकर इतना भय हो गया था कि बचपन तो छोड़ो आज भी उसका असर दिखता है. जब भी उस बाग वाले रास्ते पर जाता हूं बातें याद आती है. दादी याद आती उसकी कहानियां याद आती हैं और बचपन याद आता है, अम्मा याद आती है और शैतानियां, गोली, गुल्ली दंडा, वो पिठू, वो पेड़ वाला लखानी आदि. आखिर में बचती है इन यादों के साथ तो हल्की सी मुस्कुराहट, हर दिन का सफर और जीवन का संघर्ष.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.