इन दिनों एक लाइन बहुत आम हो गई है. इतनी आम कि इसके डर से 4 जज मीडिया के सामने आकर रोने लगे. लाइन है-आपने क्या किया? ये सिर्फ एक लाइन नहीं, ये हथियार है, जो आपके किए धरे पर पानी फेर देगा. इस हथियार में इतनी ताकत है कि आप लाख अच्छा करें उसे धोने को बस ये सवाल ही काफी है. पिछले कुछ दिनों से अगर आप सामाजिक सरोकार की कोई बात, तस्वीर या मुद्दा साझा करते हैं तो ये सवाल वहां जरूर आ जाता है- आपने क्या किया?
सच है हमने क्या किया? एक आम इंसान की जिंदगी को गौर से देखें तो तीन फेज नजर आते हैं. बचपन, जवानी और बुढ़ापा. बचपन में वो शैतानी करता है, जवानी में नादानी और बुढ़ापे में पछतावा. इस तरह उसकी जिंदगी खप जाती है. अगर बीच में उसके जहन में कुछ करने का ख्याल भी आया तो कुछ सवाल उसे घेर लेते हैं. ये सवाल हैं- लोग क्या कहेंगे? समाज मानेगा या नहीं? और अब ये नया आया है- आपने क्या किया?
मेरा मानना है कि हम तो कुछ न कर पाए, न कर पाएंगे. बात अगर आपकी हो तो ये भी लिखकर कहीं रख लें कि आप भी अब तक कुछ खास नहीं कर पाए हैं और शायद आगे भी नहीं कर पाएंगे. ये देश-समाज सब खुद-ब-खुद चल रहे हैं. कुछ मुट्ठी भर लोग नियम बनाते हैं और हम लाशों की तरह सुन पड़े रहते हैं. पूरी ताकत जमा 4 लोगों के हाथ में होती है. बाकी बस तमाशबीन बन खेला देखा करते हैं. इसके बाद भी कई लोग ये मुगालता पाले हैं कि वो देश के लिए कुछ कर रहे हैं. मुझे हैरत होती है कि यहां खुद के लिए कुछ करना मुश्किल होता है, लोग देश के लिए कुछ करने पर तुले हैं. सवाल ये है कि, आखिर किसे बेवकूफ बनाया जा रहा है. हमें या खुद को.
कल कुछ लोग आते हैं और बोलते हैं लोकतंत्र खतरे में है. अच्छा, किस लोकतंत्र की बात...
इन दिनों एक लाइन बहुत आम हो गई है. इतनी आम कि इसके डर से 4 जज मीडिया के सामने आकर रोने लगे. लाइन है-आपने क्या किया? ये सिर्फ एक लाइन नहीं, ये हथियार है, जो आपके किए धरे पर पानी फेर देगा. इस हथियार में इतनी ताकत है कि आप लाख अच्छा करें उसे धोने को बस ये सवाल ही काफी है. पिछले कुछ दिनों से अगर आप सामाजिक सरोकार की कोई बात, तस्वीर या मुद्दा साझा करते हैं तो ये सवाल वहां जरूर आ जाता है- आपने क्या किया?
सच है हमने क्या किया? एक आम इंसान की जिंदगी को गौर से देखें तो तीन फेज नजर आते हैं. बचपन, जवानी और बुढ़ापा. बचपन में वो शैतानी करता है, जवानी में नादानी और बुढ़ापे में पछतावा. इस तरह उसकी जिंदगी खप जाती है. अगर बीच में उसके जहन में कुछ करने का ख्याल भी आया तो कुछ सवाल उसे घेर लेते हैं. ये सवाल हैं- लोग क्या कहेंगे? समाज मानेगा या नहीं? और अब ये नया आया है- आपने क्या किया?
मेरा मानना है कि हम तो कुछ न कर पाए, न कर पाएंगे. बात अगर आपकी हो तो ये भी लिखकर कहीं रख लें कि आप भी अब तक कुछ खास नहीं कर पाए हैं और शायद आगे भी नहीं कर पाएंगे. ये देश-समाज सब खुद-ब-खुद चल रहे हैं. कुछ मुट्ठी भर लोग नियम बनाते हैं और हम लाशों की तरह सुन पड़े रहते हैं. पूरी ताकत जमा 4 लोगों के हाथ में होती है. बाकी बस तमाशबीन बन खेला देखा करते हैं. इसके बाद भी कई लोग ये मुगालता पाले हैं कि वो देश के लिए कुछ कर रहे हैं. मुझे हैरत होती है कि यहां खुद के लिए कुछ करना मुश्किल होता है, लोग देश के लिए कुछ करने पर तुले हैं. सवाल ये है कि, आखिर किसे बेवकूफ बनाया जा रहा है. हमें या खुद को.
कल कुछ लोग आते हैं और बोलते हैं लोकतंत्र खतरे में है. अच्छा, किस लोकतंत्र की बात हो रही है. जहां, निदोर्ष सिर्फ इस लिए जेल काट रहा होता है कि इसकी औकात नहीं अपने निदोर्ष होने का सुबूत देने की. या उस लोकतंत्र की, जिसमें जमानत की राशि न होने की वजह से जेल की दीवारों से सर पटक-पटक कर लोग मर जाते हैं. अच्छा होता, जज ये कहते कि हमारे अहम को ठेस पहुंच रही है. तुम मूर्खों को क्या पता कितना बुरा लगता है जब कोई साथ का टशन दिखाए. वो ये बोलते तो शायद हम विश्वास मान भी लेते.
आप कहते हैं लोकतंत्र खतरे में है. हो सकता है खतरे में हो भी. लेकिन ये लोकतंत्र उस आम इंसान का तो बिल्कुल नहीं, जो मोटी फीस न दे पाने की वजह से अपना केस न लड़ सका. ये उस इंसान का भी नहीं होगा, जिसे आतंकी बता कर जेल में उसकी जवानी गला दी गई. आज आलम ये है कि लोग पुलिस से ज्यादा कोर्ट कचहरी के चक्कर से बचना चाहते हैं. क्योंकि वो जानते हैं कि न्याय पाने में उनकी पूरी उम्र खर्च हो जाएगी. वैसे भी देर से मिला न्याय किस काम का.
बहरहाल, देश के जजों के लिए इतना ही कहा जा सकता है कि, आप सब को न्याय की मूर्ति कहा जाता है. इस देश में आपके खिलाफ बोलना भी पाप माना जाता है. लेकिन आप भी तो हममें से ही हैं. फिर आप इतना दूर क्यों हो गए हमसे. एक ऊंची मीनार में बैठ कर वो तमाम फैसले लिए जाते रहे जिसका जमीन पर लेटे इंसान से कोई वास्ता नहीं. उसकी जिंदगी उसी जमीन से चिपकी रही और एक दिन उसी जमीन में दफन हो गई. सच ये है कि राष्ट्र आप और आप जैसे कुछ बड़े लोग चलाते हैं. हमें बस ये भ्रम है कि हम भी इस देश के हाईजैक लोकतंत्र का हिस्सा हैं. और ये भ्रम हमारी आखिरी सांस तक बना रहेगा.
बाकी ये जो सवाल है, जो आपको परेशान किए है कि लोग पूछेंगे- आपने क्या किया? तो रजाई ओढ़ कर सो जाइए, किसी को नहीं पड़ी जो पूछे. विश्वास मानिए यहां लोगों को सुबह से शाम होने का इल्म नहीं. आपके किए पर कौन कहां तक गौर करेगा. आप नियम बनाते रहिए, हम पालन करते रहेंगे. कुछ सिर फिरे टाइप लोग भी होंगे, जो आपके इस नियम की दीवार को कुरेदने का काम करेंगे. लेकिन नाखूनों में उतनी ताकत कहां जो दीवार को कुरेद दे.
अंत वही होगा, सबके नाखून घिस जाएंगे और उंगलियों से खून रिस रहा होगा. लेकिन यही खून तो चाहिए, जो राष्ट्र को और आगे ले जाएगा. एक खूनी राष्ट्र बनाएग. आखिर कुछ तो योगदान हो देश में, वर्ना देश तो चल ही रहा है.
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