कोरोना (Coronavirus) की इस विभीषिका को अगर किसी ने सबसे ज्यादा झेला है, तो वो हमारा प्रवासी मजदूर (Migrant Workers) वर्ग है, जिसे उनके महानगरों ने इस गाढ़े वक़्त में दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंका है. वो मजदूर, जिन्होंने इन महानगरों को अपने पसीने से सींचकर उगाया, और जिसकी इमारतों को अपने पसीने से तर किया, वो आज इस कठिन समय में, इन महानगरों में सिर छुपाने की जगह और दो वक्त की रोटी को मोहताज हो गए. मजबूरी में वो इन महानगरों से अपने घर की ओर पैदल ही निकल पड़े. क्या करते! और विकल्प ही क्या था! भूखे-प्यासे, रास्ते को पैदल नापते, सड़क किनारे बच्चे जनते, वो अपने घरों की ओर की इस महायात्रा को पूरा करते रहे. जाने कितनों ने रास्तों में ही दम तोड़ दिया. कुछ जीवित पहुंचे, और कभी 'परदेस' न जाने की कसमें खाईं. ऐसे गाढ़े वक़्त में हमें कुछ ऐसे नायक मिले, जो अब तक गुमनाम थे, या जिनके इस रूप का हमें अब तक भान नहीं था. इस लेख में मैं उन सभी नायकों को शुक्रिया कहूंगा, जिन्होंने अपनी जान की परवाह किये बिना दूसरों का जीवन बचाया.
मैं डंके की चोट पर कहूंगा कि, इस कठिन समय में जनता से कमाए पैसों पर अपना साम्राज्य खड़ा करने वाले तमाम 'हीरो' और सुपरस्टार नकारा साबित हुए हैं. ऐसे में ichowk टीम की तरफ से मैं शुक्रिया कहूंगा अभिनेता सोनू सूद (Sonu Sood) को, जिन्होंने फिल्मों में अभिनीत अपने खलनायक चरित्रों की छवि के विपरीत आम जनता और मीडिया में अपनी नायक की छवि मुकम्मल की. बताना जरूरी है कि, पूरे भारत के मजदूर इस कोरोना काल में अपने घर जाना चाहते हैं, और संयोग की बात है कि इन मजदूरों को सिवाय उत्तर प्रदेश और बिहार के कहीं और नहीं जाना.
यानी उत्तर...
कोरोना (Coronavirus) की इस विभीषिका को अगर किसी ने सबसे ज्यादा झेला है, तो वो हमारा प्रवासी मजदूर (Migrant Workers) वर्ग है, जिसे उनके महानगरों ने इस गाढ़े वक़्त में दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंका है. वो मजदूर, जिन्होंने इन महानगरों को अपने पसीने से सींचकर उगाया, और जिसकी इमारतों को अपने पसीने से तर किया, वो आज इस कठिन समय में, इन महानगरों में सिर छुपाने की जगह और दो वक्त की रोटी को मोहताज हो गए. मजबूरी में वो इन महानगरों से अपने घर की ओर पैदल ही निकल पड़े. क्या करते! और विकल्प ही क्या था! भूखे-प्यासे, रास्ते को पैदल नापते, सड़क किनारे बच्चे जनते, वो अपने घरों की ओर की इस महायात्रा को पूरा करते रहे. जाने कितनों ने रास्तों में ही दम तोड़ दिया. कुछ जीवित पहुंचे, और कभी 'परदेस' न जाने की कसमें खाईं. ऐसे गाढ़े वक़्त में हमें कुछ ऐसे नायक मिले, जो अब तक गुमनाम थे, या जिनके इस रूप का हमें अब तक भान नहीं था. इस लेख में मैं उन सभी नायकों को शुक्रिया कहूंगा, जिन्होंने अपनी जान की परवाह किये बिना दूसरों का जीवन बचाया.
मैं डंके की चोट पर कहूंगा कि, इस कठिन समय में जनता से कमाए पैसों पर अपना साम्राज्य खड़ा करने वाले तमाम 'हीरो' और सुपरस्टार नकारा साबित हुए हैं. ऐसे में ichowk टीम की तरफ से मैं शुक्रिया कहूंगा अभिनेता सोनू सूद (Sonu Sood) को, जिन्होंने फिल्मों में अभिनीत अपने खलनायक चरित्रों की छवि के विपरीत आम जनता और मीडिया में अपनी नायक की छवि मुकम्मल की. बताना जरूरी है कि, पूरे भारत के मजदूर इस कोरोना काल में अपने घर जाना चाहते हैं, और संयोग की बात है कि इन मजदूरों को सिवाय उत्तर प्रदेश और बिहार के कहीं और नहीं जाना.
यानी उत्तर प्रदेश और बिहार इस देश को सबसे ज्यादा प्रवासी मजदूर मुहैया कराते हैं. खैर, प्रवासी मजदूरों के बारे में कभी फुरसत से लिखूंगा. फिलहाल मैं बात करूंगा कोरोना काल में मजदूरों की दुर्दशा पर, और उन नायकों पर, जो इस दौर में उनके काम आए. मैं बात करूंगा भोजपुरी भाषा, भोजपुरी फ़िल्म उद्योग, और भोजपुरी लोकगायकों की भी.
तो सवाल है कि भोजपुरी ही क्यों? मजदूरों के लिए ये भाषा क्यों इतनी खास है?
दरअसल भोजपुरी उत्तर प्रदेश और बिहार में समान रूप से बोली जाने वाली अकेली भाषा है, जो इन दोनों राज्यों के बीच की 'लिंग्वा फ्रांका' है. लिंग्वा फ्रांका यानी वो भाषा जो भिन्न भाषाई क्षेत्रों के बीच कनेक्टिंग लैंग्वेज का काम करे. यहां मैं ये कहने से बिल्कुल नहीं चूकूंगा कि माननीय मनोज तिवारी, रवि किशन, निरहुआ, और खेसारी लाल यादव जैसे वीरों से जुड़ाव रखने वाले भोजपुरी मनोरंजन उद्योग ने कोरोना के इस गंभीर मसले पर ज़हालत और असंवेदनशीलता का परिचय दिया, और अश्लील गीत बनाए.
जबकि, भोजपुरी मनोरंजन उद्योग के पास इस गंभीर मसले पर मजदूरों के बीच कोरोना को लेकर उन्हीं की भाषा में जागरूकता फैलाने का भरपूर अवसर था. पर इस उद्योग ने 'लंहगा में घुसल बा कोरोना' जैसे फूहड़ अश्लील गाने बनाए, और कमपढ़-अनपढ़ मजदूरों को इस बीमारी के प्रति असंवेदनशील और मनोरंजन-आकांक्षी बनाए रखा, और बड़ी संख्या में लोगों का जीवन खतरे में डाला.
फिर भी, अगर बॉलीवुड के पास सोनू सूद जैसे 'असली नायक' हैं, तो भोजपुरी भाषा की जमीन भी वीरों और वीरांगनाओं से खाली नहीं है. भोजपुरी के पास भी नेहा सिंह राठौर जैसे अपने खुद के लोकगायक और लोकनायक हैं, जिन्होंने अपनी जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ा.
नेहा सिंह राठौर का ज़िक्र यहां इसलिए जरूरी है, क्योंकि नेहा पिछले कई महीनों से कोरोना के खिलाफ अपनी मुहिम में अकेले जुटी हुई हैं. उनके पास न ही कोई पी आर मैनेजमेंट की टीम है, न ही कोई सपोर्ट ग्रुप. पर पिछले कई महीनों से इन्होंने अपने खुद के लिखे गीतों को गा-गाकर, आम जनता में कोरोना महामारी के खिलाफ जागरूकता की मुहिम छेड़ रखी है.
लाखों लोग नेहा के संदेश और गीतों को सुन चुके हैं, और उनकी ये मुहिम अभी जारी है. फेसबुक और यूट्यूब के माध्यम से वो आम जनता में अपना संदेश पहुंचा रहीं हैं, और करोड़ों रुपये कमाने वाले भोजपुरी फ़िल्म उद्योग के धुरंधरों को लजवा रही हैं. हमने उनसे बात की तो उन्होंने स्पष्ट शब्दों में बताया कि उन्होंने जो कुछ भी सीखा है, वो उनके समाज और देश का उनपर कर्ज है, जिसे लौटाना उनका नैतिक दायित्त्व है. एक कलाकार के रूप में लोक के सुख-दुख उनके गीतों का मुख्य विषय है.
नेहा ने न सिर्फ मजदूरों के दुख को समझा, बल्कि उन स्त्रियों को भी आवाज़ दी, जो पुरुष मजदूरों की भीड़ में बच्चे जनती, ईंटे ढोतीं दोहरी जिम्मेदारियों का बोझ उठाती हैं. नेहा ने उस मजदूर स्त्री को भी अपने गीत का विषय बनाया, जिसने महानगर से घर लौटने की पैदल यात्रा के बीच बच्चे को जन्म दिया, और अगले ही दिन बच्चे को हाथ मे लेकर फिर से महायात्रा पर निकल पड़ी.
सवाल ये है कि जरूरतमंद और दबे-कुचलों की मदद कर रहे इन लोकनायकों को अब तक मीडिया कवरेज क्यों नहीं मिला? क्यों उनके हिस्से का महत्त्व और प्रतिष्ठा दूसरे लोग हड़पते रहे? नेहा सिंह राठौर का लोकगायन कोरोना के महामारी बनने से पहले ही शुरू हो गया था, जब उन्होंने सर्वप्रथम युवाओं में बेरोजगारी के मुद्दे को अपने गायन का विषय बनाया.
इसके अतिरिक्त प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा की दुर्दशा, दहेज प्रथा, शराबखोरी के विरुद्ध और स्वच्छता अभियान के पक्ष में नेहा की कलम और आवाज़ मुखर ही रही है, जिसे सोशल मीडिया पर लाखों लोगों ने सुना और सराहा है. पर इन सबके बावजूद, कोरोना के इस कठिन दौर में, मजदूरों के दुख नेहा के गीतों का प्रमुख विषय रहे हैं.
यहां तक कि नेहा कि लिखी कविताएं भी मजदूरों की पीड़ा को ही अपना विषय बनाती रही हैं. एक बानगी देखिये -
मजूर कबिता*********
ऊ ठेहुना ना टेकलें
ना झुकलें बदहाली के आगे
मरज़ाद के पूंजी कांख में दबाइके
निकल पड़लें छोड़ ई महादेश के भटूरा नगरी
महानगरन के ई किसान
सड़की के थरिया बनाके
खइलें दाल-भात-सतुआ-पिसान
सुति गइलें उहे थरिये में
जगले, औरि चल पड़िले थरियवे में
केहू पहुंचले ठेकाना ले
केहू थरिये के भेंट चढ़ि गइलें
कहरत, बकबकात मुर्छाइल कहे
परदेस आपन ना ह
देसौ आपन ना ह.
नेहा ने अपने यूट्यूब चैनल 'धरोहर' के माध्यम से अपनी आवाज़ को उन कानों तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है, जिन्हें अब तक मजदूरों की चीखें भेद नहीं पायी हैं, और जहाँ तक वो आवाज़ें पहुंचना बहुत ज्यादा जरूरी है.
बातचीत में नेहा ने बताया कि बतौर लोककलाकार उन्हें लगता है कि, ये महामारी उनके लिए एक ऐसा है, जब वो लोक के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए लोक का कुछ कर्ज अपने ऊपर से उतार सकती हैं. 'जस की तस धर दीनी चदरिया' वाली बात है ये.
ऐसे में ये कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि नेहा जैसे लोग ही हमारे समाज और देश के असल लोकनायक हैं, जो कोरोना से जंग जीतने में हमारे सिपहसालार साबित होंगे.
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