स्थिति बहुत अच्छी न हो तब भी इस बात को नकार नहीं सकते की जेंडर इक्वालिटी और महिला स्वास्थ की तरफ कई समूह काम कर रहें हैं. महिला स्वास्थ्य, मासिक धर्म यानी पीरियड्स के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए भी सरकारी तंत्र और गैर सरकारी संस्थाएं काम कर रही है. बदलाव आ रहा इसे भी स्वीकारने में दिक्क्त नहीं. हां बदलाव सीमित और धीमी गति से है, ये शत प्रतिशत सही है. हर कोई अपनी अपनी तरह से कोशिश कर रहा है. लेकिन जो कारनामा बिहार के सारण जिले के हल्कोरी शाह हाई बॉयज़ स्कूल ने किया है वो तो मतलब कमाल! हां हां आप भी पीठ ठोंक दीजिये. एक तो सरकारी स्कूल उस पर ये सोच! मतलब अब तक तो लड़कियों को लड़कों के बराबर समझ कर उन्हें खेल कूद पढाई लिखाई और स्वास्थ में उचित मौका देने पर चर्चा होती थी लेकिन बिहार के सारन जिले के हल्कोरी शाह हाई स्कूल ने स्ट्रैटेजी बदल दी. उन्होंने लड़कियों के लिए पोशाक योजना और सेनेटरी नैपकिन के नाम पर आने वाले फंड अपने स्कूल के लड़कों के नाम पर अप्रूव करवाए.
हां हां है न बिलकुल हट कर अप्रोच! अब क्रोनोलॉजी समझिये. देखिये, लड़कों के लिए शायद कपड़े, स्टेशनरी, मिड डे मील के फंड आते होंगे. ज़ाहिर सी बात है वो भी पहुंचते तो खाक होंगे! जिस बिहार में पशु के चारे को खाने का इतिहास हो वहां मिड दे मील बाबुओं और बबुआइन द्वारा खा लिया जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
अब ये तो खाते ही हैं और क्या नया स्वाद ढूंढा जाये, इस पर मंत्रणा हुई होगी. यकीनन हुई होगी. दिमाग में कहां कमी है भई ? तो क्यों न पोशाक योजना और सैनिटरी पेड का पैसा डकार ले. 'देखो पोशाक तो लड़का लोग भी पहनता है और पैड! अरे राइटिंग पैड बोल कर रफा दफा कर लिया जायेगा. वैसे भी लड़की लोगन का एड पैड, हक...
स्थिति बहुत अच्छी न हो तब भी इस बात को नकार नहीं सकते की जेंडर इक्वालिटी और महिला स्वास्थ की तरफ कई समूह काम कर रहें हैं. महिला स्वास्थ्य, मासिक धर्म यानी पीरियड्स के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए भी सरकारी तंत्र और गैर सरकारी संस्थाएं काम कर रही है. बदलाव आ रहा इसे भी स्वीकारने में दिक्क्त नहीं. हां बदलाव सीमित और धीमी गति से है, ये शत प्रतिशत सही है. हर कोई अपनी अपनी तरह से कोशिश कर रहा है. लेकिन जो कारनामा बिहार के सारण जिले के हल्कोरी शाह हाई बॉयज़ स्कूल ने किया है वो तो मतलब कमाल! हां हां आप भी पीठ ठोंक दीजिये. एक तो सरकारी स्कूल उस पर ये सोच! मतलब अब तक तो लड़कियों को लड़कों के बराबर समझ कर उन्हें खेल कूद पढाई लिखाई और स्वास्थ में उचित मौका देने पर चर्चा होती थी लेकिन बिहार के सारन जिले के हल्कोरी शाह हाई स्कूल ने स्ट्रैटेजी बदल दी. उन्होंने लड़कियों के लिए पोशाक योजना और सेनेटरी नैपकिन के नाम पर आने वाले फंड अपने स्कूल के लड़कों के नाम पर अप्रूव करवाए.
हां हां है न बिलकुल हट कर अप्रोच! अब क्रोनोलॉजी समझिये. देखिये, लड़कों के लिए शायद कपड़े, स्टेशनरी, मिड डे मील के फंड आते होंगे. ज़ाहिर सी बात है वो भी पहुंचते तो खाक होंगे! जिस बिहार में पशु के चारे को खाने का इतिहास हो वहां मिड दे मील बाबुओं और बबुआइन द्वारा खा लिया जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
अब ये तो खाते ही हैं और क्या नया स्वाद ढूंढा जाये, इस पर मंत्रणा हुई होगी. यकीनन हुई होगी. दिमाग में कहां कमी है भई ? तो क्यों न पोशाक योजना और सैनिटरी पेड का पैसा डकार ले. 'देखो पोशाक तो लड़का लोग भी पहनता है और पैड! अरे राइटिंग पैड बोल कर रफा दफा कर लिया जायेगा. वैसे भी लड़की लोगन का एड पैड, हक अधिकार, सुख का बात और दुःख का शिकायत सब बस कागज पर ही होता है.
और जब एक बार ऊपर से नीचे तक सारा डिपार्टमेंट सबहि लोग पैड के काला पालीथीन में रैप हो जायेंगे तो क्या कोई बोलेगा? कुछ ऐसा ही सोचा होगा हेडमास्टर साहब ने और स्कूल के लड़को के लिए भी करवा लिया फंड का अप्रूवल वो भी सैनिटरी पैड्स का!
हल्कोरी शाह हाई स्कूल के नए हेड मास्टर 'रैसुल एहरार खान' ने अब जा कर इस गड़बड़ी को पकड़ा और अफसरों का ध्यान इस ओर किया. फिर क्या जरा जांच हुई तो मामला पता चला की पुराने हेडमास्टर साहब 2019 से पहले कई लड़को को सैनिटरी पेड और पोषक योजना के अंतर्गत धन आवंटन करवा चुके हैं.
अब धन लड़को के खाते में गया या पुराने हेडमास्टर साहब के ये तो आगे की जांच में पता चलेगा फिलहाल कुछ बाते सोचनीय भी हैं और दुखद भी -सरकारी तंत्र में पैसा है, ज़रूरत उसे सही जगह खर्च करने की. ऐसे में फंड मांगने वाले और देने वाले और इस केस में शायद ऊपर से ले कर नीचे तक हर कोई चोरी में से अपना हिस्सा बनाये हुए था.जिस सैनिटरी पैड को लड़की बेझिझक खरीद नहीं सकती उसके फंड में से हिस्सा सबने बनाया!
चूंकि ये मर्दों की दुनिया है और नारी की सामान्य शारीरिक प्रक्रिया भी, शर्मिंदगी और सामाजिक छुआ छूत का कारण बन जाती है ,लाखों लाख बच्चियां हर साल मासिक की शुरुआत के साथ ही स्कूली शिक्षा को अलविदा बोल देती हैं ऐसे में सरकार की तरफ से ये फंड उन्हें आगे पढ़ने में सहायक होते हैं और इसी सरकारी शिक्षा के तंत्र में काम करने वाले अपनी पैसे की भूख के आगे लड़कियों के भविष्य को दांव पर लगाते हैं.
सोचने वाली बात ये भी है की किसी भी सरकारी फंड को बांटने में बहुत सी कागज़ी कार्यवाही होती है. क्या इस पूरी प्रिक्रिया में एक भी अफसर इतना पढ़ालिखा नहीं था की उसे सैनिटरी पैड के इस्तेमाल का पता हो ?या तो ये अनपढ़ता की सीमा है या स्त्री के प्रति उदासीनता का एक और नमूना की पढ़े लिखे उम्रदराज़ अफसर भी शरीरिक संरचना और प्रक्रिया से अनभिज्ञ है.
बात ऊपरी तौर पर मात्र फंड चोरी और करप्शंन की मालूम होगी और शायद जांच में पकड़े जाने पर हेडमास्टर पेंशन प्रोमोशन से हाथ धो बैठे लेकिन ये मामला लड़कियों के शिक्षा और स्वास्थ के प्रति उदासीनता का भी है.
बदलाव की धीमी गति होने का कारण यही है कि जहां कोई एक तंत्र से लड़ कर बराबरी लाने पर आमादा है वहीं तंत्र के भीतर लालच से भरे सरकारी कर्मचारी दीमक की तरह इस बदलाव को चाट रहें हैं. बहुत मुमकिन है आम जन में बात मज़ाक में उड़ा दी जाएगी लेकिन सोचियेगा ज़रूर - पाँच दिन की पीड़ा का फंड भी चोरी होता है और हालात वहीं के वहीं और हाथ आती है मात्र कागज़ी योजनाएं.
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