राजा और राजनीति की गवाही करने वाली दिल्ली है. दिल्ली की दीवारों पर ब्राह्मणों के खिलाफ लिखे गए शब्दों एव लोगों पर मुझे ही नहीं देश को आपत्ति है, घोर आपत्ति है. ब्राह्मण एक व्यवस्था है, ब्राह्मण एक वेद है, ब्राह्मण एक वेदांत है, ब्राह्मण एक व्याकरण है, ब्राह्मण शून्य से लेकर आकाश में घूमने वाले ग्रहों की गति है. किताब है तो उसकी व्याख्या ब्राह्मण है. ब्राह्मण धर्म है जो अतीत और वर्तमान दोनों है, उसका सम्मान होना चाहिए.
जेएनयू की दीवारों पर विगत हफ्ते लिखा गया है, ब्राह्मण भगाओ देश बचाओ, सनद रहे जेएनयू के संस्थापक पंडित जवाहरलाल नेहरू थे, जो जाति से ब्राह्मण थे, कर्म से ब्राह्मण थे, भारत के प्रथम सेवक थे, उस संस्थापक के हाथों नींव में पड़ी ईट पर तुम लोगों ने ब्राह्मण भगाओ देश बचाओ को लिख दिया. इस अशोभनीय कार्य के लिए सदियां उन्हें माफ नहीं करेंगी. भारत जितना बड़ा है, उसका मन उतना ही छोटा है. अपराधी तो हर जगह होते है. उनका बहिष्कार होना चाहिए. यहां तक तो ठीक है. इसके आगे वाहियात है.
इन तमाम के पीछे सिर्फ राजनीति है जो भारत को गंदा कर रही है. 140 करोड़ के देश में गरीबी हटाने वाले समय के साथ अपने अमीर होते गए और गरीब वहीं का वहीं रह गया. कभी दलितों के पीछे राजनीति लगी, तो कभी पिछड़ों के पीछे लगी. लोग mp/mla बनते गए और गरीब मालाओं के साथ जिंदाबाद बोलती रही. परिणाम यह रहा की मालाओं के मूल्य भी आसमान में चले गए. उसके खिलाफ कभी भी किसी दीवार पर नहीं लिखा जाता.
बड़ी बड़ी गाड़ियों और मंहगा वस्त्र धारण करने वालों के खिलाफ किसी भी दीवार पर कुछ नहीं लिखा जाता. बुद्ध और महावीर का विरोध तो हुआ मगर वे विचारों से जिंदा थे, तो आज भी जिंदा है. विरोध एक ब्रह्मास्त्र है, जिसका समय समय पर उपयोग करते रहना चाहिए.राजनीति का विरोध तो होना चाहिए तभी वह स्वच्छ होगी.
जाति का विरोध तो मुर्दे लोग करते है, तभी वह आज अस्वच्छ है. भारतीय बनो और भारतीय बनाने की कवायद शुरू करो. ब्राह्मण एक विद्या है उसका अध्ययन करना चाहिए, उसका अनुसरण होना चाहिए विरोध करने की भी एक मर्यादा होती है फिर कहता हूँ विरोध कर के कृष्ण भी भगवान बने. आज राहुल भी विरोध कर रहे है, कब भगवान बनेंगे, यह देखना बाकी है.
विरोध तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, कौन कितना प्रयोग करता है, यह भी देखना बाकी है? विरोध तो गांधी जी ने भी किया, बिना वस्त्र के वस्त्रों वालों का विरोध किया, जिसमें नैतिकता थी, अहिंसा थी, हे राम भी थे, हिंदू के साथ साथ मुसलमान भी थे. बृहद भारत की कल्पना थी. विरोध तो नेहरू जी के पास भी था, जिसमे प्यार था. इस विरोध को अटल जी भी आगे बढ़ाए, पर साथ साथ लेते गए.
विरोध तो अंबेडकर जी भी किए, विरोध करते करते भगवान बुद्ध के हो लिए. विरोध अगर मर्यादित हो तो वह पूज्यनीय है, अगर अमर्यादित है तो वर्तमान की राजनीति है. बिना आचार और विचार का विरोध है तो राजा नही रंक बनने की दिशा में एक कदम है. हर विरोधी को बिना सबूत के परेशान करने का लक्ष्य है तो कलंक बनने की तरफ आप अग्रसरित है. साहस के साथ विरोध है, नैतिकता के साथ विरोध है, जेल जाने से विरोध को डर नही है, आप भी पुरुषोत्तम बनने के कगार पर खड़े हैं.
सत्ता तो आती जाती रहेगी. उस सत्ता से सम्बन्धित दो उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूं, अटल जी सांसद और विधायकों की पेंशन को बहाल रखते हुए सरकारी कर्मचारियों की पेंशन खत्म कर दिए. मनमोहन सिंह की सरकार में अपराधियों पर दर्ज मुकदमे को वापस लेने के लिए संसद में एक बिल लाया गया. संभवतः पास होने के कगार पर खड़ा था. राहुल जी ने उस बिल को प्रेस क्लब में फाड़ दिया. हमेशा के लिए मुजरिम को मुजरिम बना दिया. बिना प्रेस कांफ्रेंस किए अखबारों को बता दिया की साहस के साथ विरोध करता हूं. इन दोनों घटनाओं को सदियों तक संसद तो छोड़िए जनता याद करेगी.
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